(ले. श्री दशरथ दीन भटनागर, जावरा)
हम पढ़ते बहुत हैं पर गुनते कुछ नहीं। कई सज्जनों को अध्यात्म विद्या की चर्चा करना बहुत पसंद होता है। भजन- कीर्तन, कथा- उत्सव, पूजा- पाठ के अवसरों पर वे आगे रहते हैं। रामायण, गीता, भागवत या जिन पुस्तकों को उन्होंने पढ़ा होता है उनकी चर्चा बड़े उत्साह से करते हैं। खोज खोज कर उसमें से बारीकियाँ निकालते हैं। शंका और तर्कों का संग्रह करते हैं और उनका समाधान सोचकर तैयार रखते हैं। समय समय पर वे उन प्रसंगों को दुहराते हैं, कुछ मनोरंजक उपाख्यान याद करके मौके बे मौके उन्हें लोगों को सुनाते रहते हैं। ऐसी प्रकृति के लोगों में कुछ तो सचमुच महात्मा होते हैं पर अधिकांश बड़े विचित्र पुरुष होते हैं। उनके मुख और हृदय आपस में एक दूसरे से बिलकुल भिन्न होते हैं। उन सज्जनों के कहने और करने में बड़ा अन्तर होता है।
संसार में सर्वत्र सत्य धर्म, ईश्वर और अध्यात्म विद्या का ऊँचा स्थान है। इन महान सत्य स्तंभों की ओर जिनका मुख है उन्हें साधारण दृष्टि से आदरणीय और पूज्य समझा जाता है। अतएव जो लोग धर्म विषयक चर्चा करते हैं वह भी श्रद्धास्पद गिने जाते हैं और प्रशंसा के पात्र होते हैं। इसी लोभ के कारण अनेक व्यक्ति धर्म चर्चा में रुचि रखते हैं। साधुओं जैसा ढोंग रचते हैं किन्तु अपने खुद के मन में धर्मोपदेशों को स्थान नहीं देते।
इसी प्रकार बहुत पढ़ने और सुनने के कुछ लोग बड़े प्रेमी होते हैं। असंख्य पुस्तकें पढ़ने और उपदेश सुनने की इच्छा सदैव बनी रहती हैं। यह कोई बुरी बात नहीं है। उन्नति के लिए श्रवण और पठन दोनों आवश्यक हैं। परन्तु यदि इस श्रवण पठन की छाप व्यवहारिक जीवन में न पड़े तो वह एक प्रकार का व्यसन ही होगा। केवल रुचि भिन्नता के नियमानुसार उन्होंने ताश, शतरंज, चौपड़ आदि खेलने की अपेक्षा पढ़ने सुनने का व्यसन धारण कर लिया होता है। कोई आदमी जिस पात्र में पानी रखना चाहे उसकी पेंदी में मोटे छेद कर दे तो उसमें क्या ठहरेगा? ऐसा घड़ा जिस पर चिकनाई पुती हुई हो पानी में डालने पर भी जल को अपने अन्दर ग्रहण न करेगा। गंगाजी पड़े हुए कछुओं की तरह वे उस ज्ञान सुरसरी के लाभ से वंचित रह जाते हैं। उनके मुख से उपदेशों की झड़ी सुनकर बाहरी लोगों की श्रद्धा अवश्य जम जाती है परन्तु वह भी स्थायी नहीं होती। वास्तविकता का पता लगने पर वह भी उड़ जाती है। कागज के फूल पर जितनी देर भौंरे को लुभाना चाहिये उतनी देर लोग उनके आस पास चक्कर काटते हैं और असलियत के मालूम होते ही निराश होकर वहाँ से चले जाते हैं।
ऐसे वाचक ज्ञानी एक भले प्रकार के विषयी है। ज्ञान गंगा का मुकाबिला जो कथा के बेंगनों से करते हैं उन्होंने व्यर्थ ही अपना समय इसमें बर्बाद किया। वाचक ज्ञान से उसके अभिमानी को उतना ही लाभ है जितना गधे को अपने ऊपर लदे हुए सुस्वादु व्यंजनों से। लड्डू लड्डू चिल्लाने से किसका पेट भरा है। जो पानी में घुसना नहीं चाहता उसे तैरने का मजा कैसे मिलेगा?
इसलिए जरूरत इस बात की है कि कुछ पढ़ो, कुछ गुनों जितना सीखो उस पर मनन करो। आ कल विज्ञान ने ज्ञान प्राप्त के साधनों को बड़ा सरल कर दिया है। अलभ्य ज्ञानमयी पुस्तकें स्वल्प मूल्य में सर्वत्र सुलभ हैं। सद्गुरुओं, महापुरुषों से उपदेश ग्रहण करने के लिए जाना आना सुगम है। प्राचीन काल में यह सुविधाऐं नहीं थी, फिर भी जिज्ञासु ज्ञान से वंचित नहीं रहते थे। प्रकृति कल्पवृक्ष है। उसके अक्षय भण्डार में किसी चीज की कमी नहीं। जो जिस चीज को चाहता है उसे वह वस्तु आसानी से मिल जाती है। सच्ची जिज्ञासा का होना ही प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन सिद्ध हुआ है।
प्रकृति की पाठशाला में हर विषय के प्रोफेसर मौजूद हैं वे हर समय उपदेश दिया करते हैं। दृष्टि उठाकर जिधर देखिये उधर से ही कुछ उपदेश मिलेगा। हँसते हुए तो पल्लवित वृक्ष लताऐं, कल- कल करती नदियाँ, गर्वोन्नत पर्वत, मन्द पवन मानों हमारी ओर कुछ संकेत करते हैं और चुपके- चुपके कुछ शिक्षा प्रद पाठ पढ़ाते हैं। महान तत्ववेत्ता और दृष्टा ऋषियों ने इसी कालेज में इतना ज्ञान सींख लिया था जिसकी आज थाह लेन भी कठिन है। अपने अन्दर ग्रहण करने का यन्त्र सावधान हो तो अनायास बहुत कुछ मिल सकता है। बुड्ढे रोगी और मृतकों को रोज निकलते देखा जाता है। पर किसी पर कोई असर नहीं होता। महात्मा बुद्ध ने सड़क पर जाते हुए एक बुड्ढे को देखा उन्होंने सोचा क्या मैं भी ऐसा वृद्ध हो जाऊँगा? दूसरा एक रोगी उन्हें दिखाई दिया वे सोचने लगे क्या मैं भी ऐसा रोगी हो सकता हूँ? ठठरी पर कसे हुए मुर्दे ने तो मानो उनके गाल पर तमाचा मारा कि मूर्ख तुझे भी मेरी तरह मरना है। कुद्ध तिलमिला गये और उन्होंने सन्यास ले लिया। पूजनीय मूर्तियों का कीट पतंगों द्वारा अपवित्र होना रोज देखा जाता है। किसी को कोई विशेष अनुभूति नहीं होती। स्वामी दयानन्द ने शिव मूर्ति पर चूहे को फुँदकता देखा तो उनकी आँखें खुल गई। मानों चूहे ने अवतार लेकर उन्हें उपदेश दिया हो कि मैं केवल इस मूर्ति तक ही सीमित नहीं हूँ। मेरी सत्ता इससे अधिक है। एक कथा है कि ऋषि दत्तात्रेय न २४ गुरु बनाये जिनमें कई पशु पक्षी भी थे।
ईश्वर हमारे भीतर और बाहर हर घड़ी उपदेशों की वर्षा करता रहता है। प्रकृति की हर चीज कुछ शिक्षा देती है। रोजमर्रा घटित होने वाली घटनाऐं एक नसीहत लेकर आती हैं। सत्संग और सद्ग्रन्थों में तो उनका संग्रह एक ही स्थान पर मिल जाता हैं। विचारणीय प्रश्न यही है कि हम अपने को चिकना घड़ा न बनाकर सीखने की शक्ति कायम रखें। इन उपदेशों को सुनें, मनन करें और अपने जीवन व्यवहार में उतारें। जो कुछ पढ़ते हैं उसे पढ़ने को व्यसन की सीमा तक ही न रखें वरन् कुछ पढ़े और कुछ गुनें।
जिनका पढ़ने का व्यसन इतना बढ़ गया है कि वे अपने को पूर्ण ज्ञानी समझते हुए कर्तव्य में उसे उतारने की जरूरत नहीं समझते, उनकी बीमारी भयंकर हैं। इससे तो वही लोग अच्छे हैं जो ज्ञान के अभाव में अपने आचरणों का सुधार नहीं कर सकते हैें। उनसे यह तो आशा की जा सकती है कि कभी इन्हें समुचित ज्ञान मिला तो वह बदल जायेंगे। वाल्मीकि ज्ञान के अभाव में वधिक बने हुए थे। ज्ञान का प्रसाद पाते ही ऋषि हो गये। किन्तु बेहद हठी रावण और दैत्य गुरु शुक्राचार्य? इनका सुधार होना कठिन था। जो सो रहा है उसे जगाया जा सकता है किन्तु जो जागते हुए भी सोने का बहाना करके पड़ा हुआ है उसे कौन जगावेगा?
बहुत सुनने और उससे कुछ भी लाभ न उठाने का व्यसन ऐसा ही है जैसा खाये हुए भोजन का जैसे का तैसा मल रूप में निकल जाना। ऐसी बीमारी हममें से किसी को हो जाय तो उसकी चिकित्सा के लिए तुरन्त दौड़ धूप की जायेगी। तब ढेरों सदुपदेश प्राप्त करके भी जो उसमें से कुछ भी ग्रहण नहीं करते और ज्यों का त्यों उन्हें मल रूप में निकाल देते हैं उनका रोग उपेक्षणीय क्यों समझा जाय? हम आत्म निरीक्षण करें, चिन्तन करें, मनन करें। जो उपदेश पढ़ते और सुनते हैं उन्हें ग्रहण कर रहे हैं या नहीं, इस बात का भली प्रकार परीक्षण करें। यदि अब तक भूल में रहे हैं तो आगें के लिए सचेत हो जावें यह आदर्श हर क्षण अपने सामने रहे- ‘‘कुछ पढ़ो, कुछ गुनो।’’
जिसमें स्थिरता, संयम, मनुष्य के प्रति विश्वास और सहयोग बुद्धि हैं, वही संसार का सफल व्यवस्थापक हो सकता है।
आत्मिक ज्ञान से बुराई का नाश और भलाई के नियमों का ज्ञान हो जाता है। जिसने पूर्ण आत्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया वह पाप कर्मों में नहीं गिरता।
अपने क्षणिक और काल्पनिक सुख को छोड़ोगे तो नित्य और स्थायी सुख को प्राप्त करोगे।
अपने संकुचित स्वार्थों को छोड़ों अपने ही लाभ के लिए सम्पूर्ण वस्तुओं को मत चाहो। फिर तुम स्वर्ग के देवता बन जाओगे और तुम्हारे अंग अंग सार्वभौम प्रेम उमड़ पड़ेगा।
कितने ही अभागे मनुष्य ऐसे है जिनके पास विपुल धन सम्पदा है तो भी दुखी है और कितने ही भाग्यशाली मनुष्य ऐसे है जो अपना खर्च मुश्किल से चला पाते है फिर भी प्रसन्न हैं।