आओ, अन्तर में मुँह डालें

April 1940

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कितना खोया, कितना पाया, चलो हिसाब लगा लें।
अपनी पूँजी देखें, आओ, अन्तर में मुख डालें।।

मेरा पड़ोसी व्यापारी हर वर्ष अपने कार वार का हिसाब बनाता है। चिट्ठा बाँधता है। बड़ी तीक्ष्ण दृष्टि से हर आंकड़े को देखता है कि किसमें कितना लाभ हुआ और कितनी हानि। जिस मद में लाभ हुआ है उस मद में और बारीकी के साथ देखता है कि आगामी वर्ष और अधिक लाभ किस प्रकार उठा सकता हूँ। जिस व्यापार में हानि हुई है उसे बन्द करने या हानि के कारण की ढ़ूँढ़ कर बन्द कर देने का हिसाब बनाता है। पूँजी को तो बड़े ही उत्साह, लालसा और एकाग्रता पूर्वक देखता है। बैंक में इतना हुन्डी पर्चों में इतना, सूद पर इतना, गोदाम के माल में इतना, तिजोरी में इतना, कुल मिलाकर इतना हुआ। गत वर्ष की अपेक्षा कुछ बढ़ गया है तो वह प्रसन्न होता है। घट गया है तो चिन्तातुर होता है। रात रात भर जाग कर नफा नुकसान पर विचार करता है। पूँजी को सुरक्षित रखने की सबसे अधिक चिन्ता है। मेरा पैसा कहीं डूब न जाय, इस मामले में वह बहुत सतर्क है। उसका व्यापार खूब चलता है, वह खूब प्रसन्न रहता है।

इन पंक्तियों के पाठक भी कुछ न कुछ व्यापार करते होंगे। वे भी मेरे पड़ोसी व्यापारी की भाँति अपने हिसाब का चिट्ठा बनाते होंगे और लाभ हानि पर गंभीरता पूर्वक विचार करते होंगे। समय समय पर अपने शरीर और घर की देखभाल करके उसके सुधार और मरम्मत का प्रयत्न करते होंगे। क्या नहीं करते होंगे?

चलिये, आपको आज आपके असली व्यापार घर ले चलता हूँ। इस क्षण बाहर का सारा बोझा उतार बाहर ही रख दीजिये। क्योंकि इतनी चिन्ताऐं इतनी ममताऐं इतनी तृष्णाऐं लादकर आप उस सँकरी गली होकर चल नहीं सकेंगे, जिसमें होकर अपने असली व्यापार गृह तक पहुँचना है। मेरा कहना मानिये। कुछ क्षण के लिए इस बोझ को उतार दीजिए। विश्वास रखिए इन्हें कोई चुराने का नहीं। यह चीजें आपकों ही आपका वाहन बनाना पसन्द करती हैं। कहीं नहीं जायेगी, आपकी प्रतीक्षा में यहाँ की यही बैठी रहेंगी।

अब आप जरा हलके हो गये, अच्छा किया। चलिये जरा जल्दी जल्दी चलिये। इस अंधेरी गली में होकर चलने में कुछ जी घबरावेगा, बुरा मालूम पड़ेगा, दुर्गन्ध आवेगी, चिन्ता की बात नहीं चले चलिए। वहाँ तक चलन पड़ेगा। यह आ गया आपका असली व्यापार गृह, बाहर जितने सामान थे उससे करोड़ों गुने ठाठ बाठ यहाँ मौजूद हैं। आनन्द के अक्षय भण्डार यहाँ भरे हुए हैं। पवित्रता का उद्यान लगा हुआ है। अमृत के तालाब भरे हुए हैं एक प्रकार का स्वर्गीय वैभव इस स्थल पर मौजूद है। सहस्त्रों कर्मचारी काम कर रहें हैं। ओहो- यही देव दुर्लभ आपका व्यापार गृह है। आप बड़े सौभाग्यशाली हैं। परन्तु हैं। इसमें इतनी अव्यवस्था क्यों हैं? इसमें जगह- जगह इतनी गन्दगी के ढेर कैसे लगे हुए हैं? महल में चमगादड़ कैसे बस गए? अमृत सरोवर में गंदा नाला किसने मिला दिया? प्रकाश स्तम्भों को तोड़- फोड़ किसने दिया? नन्दन वन में गधे कैसे लोट रहें हैं? अरे। यहाँ तो अव्यवस्था का पूरा साम्राज्य है। नौकर शाही की तूती बोर रही है। जिसके जी में जो आता है वही करता है। इन लोगों ने गन्दगी के ढेर लगाकर इस सारे स्वर्ग सरोवर को नरक बना दिया है।

शायद आपने इधर कभी ध्यान नहीं दिया। यहाँ रखे हुए गट्ठों के बोझ ने कदाचित आपको इस ओर ध्यान देने नहीं दिया है। अन्यथा कभी तो अपने इस घर की देखभाल की होती। मेरा पड़ोसी व्यापारी जिस प्रकार साल चिट्ठे बाँधता है, हर रोज रोकड़ खाते लिखता है आपने तो मुद्दतों से वैसा नहीं किया। यह देखिये हिसाब बहियाँ तो मुद्दतों से नहीं लिखी गई। चलिए उसकी ओर देखें वहाँ भी कुछ बचा है या नहीं? अरे यहाँ तो वर्षों से एक पाई भी जमा नहीं हुई, पुराना जो कुछ जमा था उसी में से खर्च हो रहा है, सिर्फ थोड़े से पैसे उस कोने में पड़े हैं। इनके चुकने के बाद क्या होगा?

आपने मुद्दतों से न तो चिट्ठा बाँधा और न हिसाब तैयार किया कि आपके व्यापार में कितना हानि लाभ हो रहा हैं? कितना कमा रहें हैं और कितना गँवा रहे हैं? पूँजी घटी है या बढ़ी है? आपने कभी यह भी विचार किया नहीं मालूम होता कि घाटा होते होते जब दिवालिया बन जावेंगे तो हमारा क्या होगा? पड़ोसी व्यापारी से क्या आप यह नहीं सीख सकते थे कि आपको भी अपने जीवन व्यापार में धर्म की कितनी पूँजी इकट्ठी की या पाप का कितना कर्ज सिर पर चढ़ गया?

ठीक है, जिन्होंने अपना सारा कारोबार नौकरों के सुपुर्द कर दिया है। और खुद उसकी सारी सुधबुध भूल गया हो एवं झूठी ममता के गट्ठों को छाती से चिपका कर इधर उधर भटक रहा हो, उसको इसी प्रकार हानि उठानी चाहिए।

ईश्वर का अमर पुत्र संसार का त्राण करने की शक्ति से परिपूर्ण, पवित्रता का पुञ्ज, देवत्व का भण्डार, मनुष्य अपने सरे व्यापार को भूल गया है। अमृतमयी मानसरोवर को नारकीय दुर्गन्धि भरा नाला बना रखा है। अपनी अखण्ड ज्योति को पद दलित करके चारों ओर अन्धकार पूर्ण बना दिया है। हाय रे। मनुष्य, तू इतना भूल गया। इतनी आत्म विस्मृति, इतना आत्म पीड़न।

क्षण भर बैठकर अपने अन्तर को खोजो तो सही। इसमें इतनी कुवासनाऐं, कुचालें, कुटिलताऐं घुस पड़ गई। वे इतनी सावधानी के साथ अपना स्थान बनाकर बैठ गई हैं कि अपना रूप प्रकट नहीं होने देती। मोटे तौर पर जब हम अपनी ओर देखते हैं तो हम स्वयं अपने को कैसा निर्दोष, सौम्य, सदाचारी और धार्मिक समझते हैं परन्तु जब गम्भीरता के साथ जब परीक्षा करने बैठते हैं तो कितनी कुवासनाऐं अपने अन्दर भरी पाते हैं। हृदय कितने अज्ञानान्धकार से भरा हुआ पातें हैं। अपना वर्चस्व बाह्य वस्तुओं को मान रहे हैं, सारी ममता नश्वर वस्तुओं में अटकाये हुए है। बंदरिया जिस प्रकार अपने बच्चे को छाती से लगाये फिरती है उसी नश्वर माया मोह को गले में पहने फिरते हैं।

हे विशुद्ध। अपने को पहचानो, अपने असली व्यापार को मत भूलो, तुम पूर्ण और विकसित बनने के लिए हो, पूर्णता प्राप्त करो, विकास की ओर बढ़ो, आत्मशक्ति को पहचानों, अब तक कितना खो चुके कितना नष्ट कर चुके इसका हिसाब लगाओ। भले प्रकार सोचो कि क्या तुम वही हो जो आज बने हुए हो। भले प्रकार विचार करो कि क्या तुम्हारा यही कर्तव्य है जिसमें आज जुटे हुए हो। भौतिक वस्तुओं को जुटाने में जितना परिश्रम कर रहे हो, क्या वह सार्थक होगा? धूप शीत का ध्यान न देकर बालू के जो पहाड़ इकट्ठे कर रहे हो क्या वह हवा के एक ही झोंके में उड़ नहीं जावेंगे?

हे अमर। अपने असली रूप और असली धर्म का चिन्तन करो, नकलों पर मत ललचाओं, असल को खोजो। अपने अन्तर में मुँह डालो, अंतर्मुखी होओ, देखो कि अब तक कितना खो चुके हो, बहुत घाटा हुआ, पाया कुछ नहीं। व्यापार में बड़ी हानि हुई, अब इस घाटे को पूरा करने में लगो। हिसाब लगाओं कि कितनी पूँजी शेष रह गई है। इसे किस प्रकार चोरों से बचावें।

नित्य प्रति अंतर में मुँह डालों अच्छी तरह विचार करो कि मेरे स्वर्ग सोपान को नरक बनाने वाले पिशाच किस कोने में छिपे बैठे हैं। उन्हें मशाल जलाकर ढ़ूँढ़ों और घर से निकाल बाहर करो। तभी तुम्हारा नन्दन वन फिर से हरा भरा हो सकेगा।


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