उद्देश्य ऊँचा रखो।

April 1940

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(ले. श्री व्यंकटलाल पुरोहित, खिलचीपुर)

ऐसे मनुष्यों की कमी नहीं जो सांसारिक थपेड़ों से थक गये हैं। जिन्हें निराशा ने घेर लिया है। उदासीनता जिनके पीछे पड़ गई हैं। शान्ति चाहते हैं पर वह कहीं नहीं मिलती। बल और वैभव की कामना करते हैं पर प्राप्त नहीं कर सकते। गुजरी हुई आशा और अभिलाषाओं को वापिस बुलाना चाहते हैं पर वे उन्हें पहले से ही छोड़ चुकी हैं। दुर्भाग्य की जंजीरों से जकड़ा हुआ आदमी चिन्तातुर चेहरा, कुरेदती हुई आँखों को अतृप्त आकांक्षाऐं लिए हुए मृत्यु पथ की ओर घिसटता जाता है।

क्या आपने सोचा कि ऐसा क्यों होता है? उसकी नीच इच्छाओं ने उसे ऐसा बना दिया है। प्रकृति के भण्डार में भले और बुरे तत्व प्रचुर परिमाण में भरे हुए हैं। उन दोनों खजानों का दरवाजा हर किसी के लिए खुला हुआ है। जो जितना चाहे उतना ग्रहण कर ले। इसके लिए सबको छूट दी गई है। ईश्वर की लीला विचित्र है। पाप और पतन के तत्वों का निर्माण कुछ ऐसे ढंग से हुआ है कि वह तड़क- भड़क लिए होते हैं चमक उनमें विशेष रूप में होती है। पास जाते ही झुलसा देने वाली अग्नि का रंग खूब चमकीला और सुनहरी होता है। भले तत्वों में यह बात नहीं। उनमें सादगी है। रूप भी साधारण है। बाहर से देखने में कोई खास आकर्षण नहीं मालूम होता। इसलिए अज्ञानी मनुष्य छोटे बच्चों की तरह खिलौने के लिए ललचा पड़ता है। परिणाम में सिवाय हानि के और हो ही क्या सकता है?

पाप पूर्णतत्वों की आकर्षकता और मनुष्य के उस ओर झुकाव से हमारा निर्माता अपरिचित नहीं था। उसने देखा कि यदि लोग पाप को ही समेटेंगे तो दुनियाँ ऐसे हिंसक पशुओं का अखाड़ा बन जायेगी जो अपने शरीर को छोड़कर शेष चीजों को खा जाना चाहेंगे। संसार में अव्यवस्था की हद हो जायेगी। सब लोग अपने लिये इतने भोग चाहेंगे जितने खजाने में भी नहीं है। इसलिए उसने पाप तत्वों के साथ मारक शक्ति और पुण्य तत्वों के साथ योग तत्वों का समावेश भी कर दिया है। उस परमपिता को हमें धन्यवाद देना चाहिये कि इस दुनियाँ को उसने वासना का अग्रिकुण्ड बनाने से बचा लिया।

मिट्टी के खिलौने जितनी आसानी से मिल जाते हैं उतनी आसानी से सोना नहीं मिलता। पापों की ओर आसानी से मन चल जाता है किन्तु पुण्य कर्मों की ओर प्रवृत्त करने में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पानी की धारा नीच पथ पर कितनी तेजी से अग्रसर होती है, किन्तु अगर ऊँचे स्थान पर चढ़ाना हो तो पम्प आदि लगाने का प्रयत्न किया जाता है। बुरे विचार तामसी संकल्प ऐसे पदार्थ है जो बड़ा मनोरंजन करते हुए मन में धँस आते हैं और साथ ही अपनी मारक शक्ति को भी ले जाते हैं। स्वार्थमयी नीच भावनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करके जाना गया है कि काले रंग की छुरियों के सामान तीक्ष्ण तेजाब की तरह दाहक होती है। उन्हें जहाँ थोड़ा सा भी स्थान मिला कि अपने सदृश्य और भी बहुत सी सामग्री खींच लेती हैं। विचारों में भी पृथ्वी आदि तत्वों की भाँति खिंचने की शक्ति होती है। तदनुसार अपनी भावना को पुष्ट करने वाले उसी जाति के विचार उड़ उड़कर वहीं एकत्रित होने लगते हैं। यही बात भले विचारों के सम्बन्ध में हैं। वे भी अपने सजातीयों की अपने साथ इकट्ठे करके बहु कुटुम्बी बनने में पीछे नहीं रहते।

जिन्होंने बहुत समय तक बुरे विचारों को अपने मन में स्थान दिया है। उन्हें चिन्ता भय और निराशा का शिकार होना ही चाहिए। उससे बदला लूँगा, इसका सर्वनाश करके छोड़ूंगा, उसे किसी जाल में फँसाऊँगा, अमुक व्यक्ति को नीचा दिखाना चाहिए, इसे ठगना चाहिए ऐसी भावनायें ही मारक शक्ति रखती है। क्योंकि प्रत्येक विचार में बल होता है और उसी के द्वारा कोई मारक शक्ति अपनी सजातीय शक्ति को बाहर से खींचकर इतने अधिक परिमाण में इकट्ठी कर लेती है कि उनके धारण करने वाला स्वयं भयभीत हो जाता है। यह तेजाब जब तक दूसरे पर गिर कर नष्ट करेगा उससे पहले जिस टीन के डिब्बें में रखा हुआ है उसे ही गला डालेगा।

मुझे मोटर चाहिए, कोठी चाहिए, जेवर चाहिए, बहुत सा धन चाहिए, उच्च पद चाहिए, कीर्ति चाहिये, स्त्रियाँ चाहिए, सुन्दर व्यञ्जन चाहिए, नौकर चाहिए, अमुक चीज चाहिए। यह चाहिए की रट भी आकाश मण्डल में मँडराती हुई प्राणियों की "चाहिए" वाली प्यास को अपने में मिलाकर बड़ी उग्र हो जाती है। चातक की तरह तृषा ही उसके चारों ओर डोलती है। यह अभागा पक्षी हर क्षण प्यासा ही बना रहता है, जबकि दूसरे जीव जन्तु अपनी तृषा निवृत्त करके आनन्द के साथ सोए होते हैं। जिस भूमि पर आग जलती रही है उसके भीतर भी बहुत गहराई तक उष्णता प्रवेश कर जाती है और अग्नि के हटा लेने पर भी भूमि बहुत समय तक गरम बनी रहती है। जिसने अपना सारा समय प्यास- प्यास रटने में लगाया है, उसे प्यास न होने पर भी प्यास ही मालूम होती हैं। चिल्लाते- चिल्लाते कंठ सूख जाता है, होटों पर पपड़ी पड़ जाती है। यही भान होता है मुझे पानी चाहिए चाहे उसका उदर जल से परिपूर्ण ही क्यों न हो।

जो लोग थके हुए होते हैं, अशान्त और निराशा से घिरे रहते हैं, दुर्भाग्य और चिन्ताओं से जकड़े होते हैं समझना चाहिए कि इन्होंने कुविचारों को अपना साथी बनाया है। स्वार्थ पूर्ण नीच भावनाओं से प्रेम किया है। दूसरों को हानि पहुँचाने और किसी भी प्रकार अपना स्वार्थ साधन करने के ही संकल्प इनके मन में उठते रहे हैं। वे या तो अब भी मौजूद हैं या अशक्तता के कारण निर्बल होते हुए भी बीज रूप में मौजूद हैं। यदि वे हट गये हैं तो भी उनकी उष्णता मिटी नहीं है। नीच उद्देश्यों का निश्चित परिणाम क्लेश है। भय और आशंका इसके दोनों बाजू हैं। बुरे इरादे सफल नहीं हो पाते, इसका यही एक कारण है कि जहाँ वे रहते हैं उस स्थान को पहले ही खुरच खाते हैं। कसाई के कोसने से ‘पड़ा’ इसीलिए नहीं मरता कि उसका मन ऐसी आशंकाओं से परिप्लुत रहता है कि निर्दोष ‘पड़ा’ अकारण मेरे कहने से कैसे मर सकता है। गरम लोहे की गेंद को हाथ में लेकर आप किसके ऊपर और कितने जोर से फेंक सकते हैं? बुरे विचार दूसरों को जितनी हानि पहुँचाते हैं उससे कई गुणा अधिक उसके धारण करने वाले को पहुँचा देते हैं। जो अनेक मानसिक कष्टों से दुखी हो रहा है, समझना चाहिए कि अपने घर में जो बबूल बो रखे थे उन्हें के कांटे इसके पैरों में चुभ रहे हैं।

इसके विपरीत, परोपकार और प्रेम की भावनाऐं बड़ी शीतल एवं बल दायक होती है। प्रसन्नता और शक्ति उनका वरदान होता है। जिसका उद्देश्य ऊँचा है, जो भलाई के विचार को सामने रखकर किसी कार्य में प्रवृत्त होता है उसका साहस बढ़ता जाता है। कठिनाइयों में वह घबराता नहीं। असफलताऐं उसे ऐसी लगती हैं मानों ईश्वर उसके साहस की परीक्षा ले रहा है। ऐसे अवसरों पर वह भी बड़ी श्रद्धा एवं निष्ठा प्रकट करता है। सदुद्देश्यों में एक दैवी गुंजन होता है जिसमें से एक ईश्वरीय सन्देश मिलता रहता है। अनिश्चितता का अंधकार जब चारों ओर छाया होता है तब भी उसे भीतर से एक प्रकाश मिलता हैं जिसके द्वारा अपने पथ पर निश्चल भाव से चला जाता है। जिसका उद्देश्य ऊँचा है उन्हें पग पग पर सफलता है। हार भी उनके लिए जीत है। प्रभु ईसा को कांटों का ताज पहनाया गया और क्रूस पर टांग कर उसकी जान ले ली गई, फिर भी वह हारा नहीं। पराजित ईशा आज हँस रहा है और विजयी सिकन्दर अर्थी से बाहर हाथ निकाल कर कुछ न मिलने पर पश्चाताप के आंसू बहा रहा है। क्यों? इसलिए कि दोनों के उद्देश्यों में अन्तर था।


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