मानवी भविष्य के उज्ज्वल या अन्धकारमय होने की यह विषम बेला है। इसे आपत्ति कालीन स्थिति समझा जाना चाहिए। बाढ़, अग्निकाण्ड, भूकम्प, महामारी, युद्ध, दुर्घटना जैसी विषम परिस्थितियों में समीपवर्ती व्यक्ति किसी न किसी रूप में योगदान देता है। प्रसुप्तों की बात दूसरी है।
जिन्हें युग परिवर्तन का आभास हो, जिन्हें अपने भीतर नर-पशुओं से कुछ ऊँचे स्तर का आभास होता हो, उन्हें पेट और प्रजनन की क्षुद्र प्राणियों जैसी निर्वाह प्रक्रिया तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उन्हें कुछ समय की माँग, युग की पुकार, कर्तव्यों की चुनौती एवं महाप्रज्ञा की प्रचण्ड प्रेरणा को सुनने, समझने और तद्नुरूप ढलने, बदलने का प्रयत्न करना चाहिए। अन्तरात्मा पर गहन तमिस्रा और सघन प्रसुप्ति का साम्राज्य हो तो बात दूसरी है अन्यथा इस युग सन्धि की परिवर्तन बेला में युग धर्म से विमुख रह नहीं सकता। लोभ और मोह की सीमित आवश्यकता समझी जा सकती है। और उसकी पूर्ति भी चलते-फिरते हो सकती है, पर उन्हीं हथकड़ी, बेड़ियों में बँधकर अपंग बन जाना अशोभनीय है। विशेषतया ऐसी विषम बेला में जैसी कि महाभारत काल में अर्जुन जैसों के सम्मुख प्रस्तुत थी।
निर्वाह और परिवार की समस्याओं का समाधान करते हुए भी हर भावनाशील युग चेतना में किसी न किसी प्रकार निश्चित रूप से सहयोगी बन सकता है। गिलहरी और शबरी जैसे अंशदान तो विषम परिस्थिति वालों के लिए भी सम्भव हैं। यह जी चुराने और आँख बचाने का समय है नहीं। इन दिनों अपनाया गया ‘कार्दन्य’ चिरकाल तक पीड़ा और प्रताड़ना का कारण बना रहेगा, इस अहित को भी वे समझें तो हर घड़ी, हर बात में लाभ ही लाभ की बात सोचते रहते हैं।