इच्छित नींद अपने निजी प्रयत्न से

February 1981

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‘साइकोलॉजी टूडे’ में एम॰ मिटलेर ने एक निद्रा के रोगी की घटना प्रकाशित की थी। उस व्यक्ति ने ऐसी धारणा बना रखी थी कि लेटने के 1 घण्टे बाद उसको नींद आती है और वह 5 घंटे से भी कम सो पाता है। इसके कारण वह दिन भर थकान अनुभव करता था। जब ई.ई.जी. द्वारा उसकी जाँच की गई तो यह पाया गया कि बिस्तर पर लेटने के 10 मिनट बाद ही सो जाता और सात घण्टे से कुछ अधिक ही सोया रहता। उसके तनाव और चिन्ता एवं भ्रम दूर कर देने भर से उसका मिथ्या रोग दूर हो गया। वह वास्तव में कम नींद का रोगी न था। उसने स्वयं ही ऐसा सोच रखा था कि उसे कम नींद आती है।

सर्वेक्षण से पता चला है कि लगभग 75 प्रतिशत से अधिक लोग नींद संबंधी शिकायतों को लेकर डाक्टरों के पास पहुँचते हैं। लोग स्वाभाविक निद्रा को भूलते जा रहे हैं, नशीली दवाइयों गोलियों के सहारे सोने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार की दवाइयां संसार में प्रति वर्ष लाखों टन बनती हैं। मनुष्य जब नींद की दवा का आदी हो जाता है तो दवा का प्रभाव भी कम हो जाता है। वह तनावों से ग्रस्त हो जाता है। विश्राम न मिल पाने से तनाव की स्थिति में विषाक्त पदार्थ एवं हारमोन्स उत्पन्न हो जाते हैं। फलतः मनुष्य को अनिद्रा रोग का सामना करना पड़ता है।

निद्रा संबंधी रोग प्रायः तीन प्रकार के होते हैं-

(1) इन्सोमेनिया- इस प्रकार के रोग में व्यक्ति को कुछ नींद तो आती है, परन्तु उसे अल्पकालीन निद्रा का पता नहीं रहता।

(2) डायसोमेनिया- नींद की अवस्था में दाँत किट-किटाना, बड़बड़ाना, चल पड़ना, चीखना, पेशाब कर देना आदि इस रोग के लक्षण हैं इसका कारण ‘रैपिड आई मूवमेन्ट’ की अनुपस्थिति बताया जाता है।

(3) नार्कोलेप्सी- इसमें अत्यधिक नींद आती है अथवा नींद का दौरा पड़ता है।

नींद संबंधी अधिकतर रोग मनोशारीरिक होते हैं। निरन्तर मानसिक तनाव एवं अशाँति के परिणाम स्वरूप अनिद्रा रोग की उत्पत्ति होती है। अधिकाँश रोगियों का मात्र भ्रम होता है कि उन्हें नींद नहीं आती और थका-थका अनुभव करते हैं। इसे ही अनिद्रा भ्रम कहा जाता है।

शरीर विज्ञानियों का कथन है कि स्वस्थ रहने के लिए विश्राम का एक महत्वपूर्ण माध्यम है निद्रा। प्रत्येक व्यक्ति को नींद की आवश्यकता अलग-अलग होती है। कई व्यक्ति तीन-चार घण्टे की नींद में ही पूर्ण विश्राम ले लेते हैं। बहुत से लोग आठ-दस घण्टे सोने पर भी पर्याप्त विश्राम नहीं ले पाते। निद्रा का समय व्यक्ति विशेष को अपनी आवश्यकतानुसार दिनचर्या में समाविष्ट करना चाहिए। प्रातःकाल सूर्योदय से दो-तीन घण्टे पूर्व तक निद्रा पूरी हो जाय, समय का निर्धारण इस प्रकार किया जाय। प्रातः जल्दी उठना और रात्रि को जल्दी सो जाना उत्तम स्वास्थ्य एवं स्वस्थ मस्तिष्क के लिए सर्वोत्तम माना गया है। महापुरुष, विचारक, लेखक मनीषी और योगी प्रातः तीन-चार बजे उठ जाते हैं और पूरे दिन स्फूर्तिवान, प्रसन्नचित्त एवं सक्रिय रहते हैं। सूर्योदय से दो-तीन घण्टे पूर्व का समय ब्रह्ममुहूर्त कहा गया है। यह समय आध्यात्मिक साधना हेतु सर्वश्रेष्ठ होता है। अन्तरिक्षीय ब्रह्मांड की आध्यात्मिक एवं वैचारिक शक्तियाँ पृथ्वी के निवासियों को इस समय विशिष्ट अनुदान देती हैं। हिमालय के योगी अपनी श्रेष्ठ एवं सशक्त विचार और प्राणशक्ति को जन-कल्याण के लिये सम्प्रेषित करते हैं। ब्रह्ममुहूर्त के समय को सात्विक भाव विचार एवं कर्मों में एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। यदि आलस्य प्रमाद वश प्रातः जल्दी न उठा गया तो फिर बाद में तो और भी सुस्ती-उदासी आती है। दिव्य प्राणशक्ति प्रवाह के तुरन्त पश्चात् तमस् आता है। यह एक आध्यात्मिक तथ्य है।

निद्रा की एक विशेष अवस्था में शरीर को सबसे अधिक विश्राम मिलता है। वह पूर्णतः निष्क्रिय सा रहता है। माँसपेशियाँ पूरी शिथिल हो जाती हैं। इस अवस्था को वैज्ञानिक भाषा में ‘रैपिड आई मूवमेन्ट’ कहते हैं। इस स्थिति में ई. ई. जी. द्वारा मस्तिष्कीय तरंगों का अंकन जाग्रत अवस्था की तरह होता है। योगनिद्रा के अभ्यास से ऐसी अवस्था से प्राप्त कर पूर्ण विश्राम का लाभ हर व्यक्ति उठा सकता है। योगनिद्रा के अभ्यास से तनाव से उत्पन्न प्राण संबंधी असंतुलन दूर होता है। अंतःस्रावी ग्रन्थियों में संतुलन होता है परिणामस्वरूप मानसिक विश्राम मिलता है।

सूर्योदय के समय के आसपास पीनियल ग्लैन्ड से सेरॉटानिन नामक हारमोन का स्राव सर्वाधिक मात्रा में होता है। दिवास्वप्न का कारण इस स्राव को ही माना जाता है। सेरॉटानिन से संबंधित एक अन्य मेलॉटानिन नामक हारमोन भी पीनियल ग्रन्थि से स्रवित होता है। यह हारमोन काम प्रवृत्तियों के नियंत्रण का काम करता है। यह देखा गया है कि मेलॉटानिन हारमोन सुबह लगभग चार बजे तक तो काम शक्ति का नियंत्रण रखता है बाद में दैनिक कार्यों को करने के लिए प्राणशक्ति को प्रवाहित होने देता है। रात में पीनियल ग्रन्थि की विशेष सक्रियता से पिट्यूटरी ग्रन्थि से ‘एड्रिनो कॉर्टिको ट्राफिक’ हारमोन संदेशवाहक की तरह एड्रीनल ग्रन्थि को उत्तेजित करता है। उस समय एड्रीनल से ‘कार्टिकोस्टेरॉइड’ हारमोन स्रवित होकर पूरे शरीर को शक्ति से भर देता है। उद्वेगों का प्रभाव शांत हो जाता है। एड्रीनल से ‘कार्टिकोस्टेरॉइड’ का स्राव प्रातः चार बजे के लगभग सबसे अधिक तीव्रता से होता है। अध्यात्मवेत्ता ऋषियों ने, सूक्ष्मदर्शियों ने इसी कारण प्रातः ब्रह्ममुहूर्त से पूर्ण स्फूर्ति के साथ दिनचर्या प्रारम्भ करने का नियम बनाया। जीवनचर्या को सन्तुलित बनाने के लिए, मानसिक, आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रातः ब्रह्ममुहूर्त की उपासना साधना सर्वोत्तम मानी गयी है।

औषधि विज्ञान शारीरिक व मानसिक तनाव से मुक्ति पाने हेतु जहाँ औषधियों का उपयोग बताता है यहीं पर मनोविज्ञान के चिकित्सक एक प्रकार के शिथिलीकरण के रूप में ‘आटोजेनिक न्यूट्रलाइजेशन’ अथवा ‘सिस्टेमेटिक डिजेन्सीटीजेशन’ पद्धति इनमें मरीज को विश्राम की दशा में धीरे-धीरे अपनी गलतियाँ व अपराध मानसिक रूप से स्वीकार करने को कहा जाता है। भयभीत वातावरण का भी दृश्यावलोकन मानसिक चिन्तन के रूप में कराया जाता है। यह सभी एक प्रकार की शिथिलीकरण प्रक्रिया ही है। योगाभ्यासों में जो शिथिलीकरण का अभ्यास कराया जाता है उसका मूल उद्देश्य शारीरिक व मानसिक तथा भावनात्मक तनावों से मुक्ति पाना ही है। शिथिलीकरण द्वारा रक्तचाप व हाइयोथेल्मस जैसी नर्वस सिस्टम की क्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया जाता है। इसी प्रकार हृदय रोगी का एक बार इलाज करने के उपरांत पुनः दौरा न पड़े इससे बचने के लिए शिथिलीकरण बहुत ही लाभकारी सिद्ध हुआ है। डाक्टरों द्वारा आटोजेनिक प्रशिक्षण भी इसी लाभ के लिए दिया जाता है यह भी एक प्रकार का योगाभ्यास ही है। हृदय रोग का मुख्य कारण मानसिक तनाव व चिन्ताएं हैं जबकि इन तनावों की मुक्ति का मार्ग शिथिलीकरण है।

शारीरिक शिथिलीकरण से माँसपेशियों का तनाव दूर होता है। जिससे उसकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति सुबह से शाम तक बिना विश्राम किए लगातार काम करता रहे तो प्रतीत तो ऐसा होगा कि वह कार्य पूरा कर रहा है, किन्तु यदि उसकी कार्य क्षमता को आँका जाय तो वह घटती ही प्रतीत होगी। इसके विपरीत यदि वही व्यक्ति मध्याह्न काल में विश्राम लेकर कार्य करना पुनः शुरू करे तो नई ताजगी के साथ वह पहले की अपेक्षा ज्यादा कार्य कर सकेगा। योग शास्त्रानुसार शिथिलीकरण अथवा योगनिद्रा के द्वारा प्राणशक्ति का संचय होता है। शिथिलीकरण द्वारा एडिनोसिन ट्राइफास्फेट (ए.टी.पी.) को शक्ति प्राप्त होती है। इसी ए.टी.पी. को हम प्राण शक्ति कह सकते हैं। शिथिलीकरण का ए.टी.पी पर प्रभाव जैव रसायन विज्ञानी भी मानते हैं।

ई.ई.जी. द्वारा परीक्षण करने पर पाया गया कि शिथिलीकरण की दशा में अल्फा तरंगों का प्रभाव बढ़ जाता है जब कि तनावपूर्ण स्थिति में वीटा तरंगों की बहुतायत होती है। अस्तु इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि योग निद्रा अथवा शिथिलीकरण की सरल एवं प्रभावशाली प्रक्रिया के द्वारा आजकल बढ़ रहे बरसाती मेंढकों के समान रोगों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

ऋषियों, मुनियों के अलावा अनेकों महापुरुष ऐसे हुए हैं जो या तो सोते नहीं थे या बहुत ही कम सोकर काम चला लेते थे। लक्ष्मण जी के संबंध में कहा जाता है कि वह 12 वर्ष तक सोये ही नहीं थे। गाँधीजी भी कई-कई दिनों तक लगातार जगते रहते थे। निःसन्देह शरीर को विश्राम की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु योग निद्रा के द्वारा चन्द मिनटों में यह आवश्यकता पूरी की जा सकती है और तरोताजा हुआ जा सकता है।

जर्मन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जोहान वालगेंग वान योयथे ने योग निद्रा का उपयोग अपनी प्रतिभा को विकसित करने में किया था। फ्रान्ज एन्टोन मेस्मेर ने (1734 से 1815) तक योगनिद्रा के माध्यम से अनेकों रोगियों को ठीक किया था, 1815 ई. में जोसेफ फिलिप्स ने लिखा था कि “योग निद्रा में रोगी उन्मुनी मुद्रा में चला जाता है और उस समय दिए गए निर्देशों को ग्रहण करता है, तथा बिना जगे ही सही उत्तर देता है और एक निश्चित समय पर तरोताजा होकर उठ जाता है। 1831 ई. में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में मेस्मेर ने लिखा था कि “इस प्रयोग से अंतर्दृष्टि प्राप्त हो जाती है, स्नायविक दुर्बलता दूर होती है। स्मरण शक्ति तीक्ष्ण होती है, आशावादी दृष्टिकोण बढ़ता है। कल्पना शक्ति बढ़ती है तथा अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण होता है।”

फ्राँस का तानाशाह नैपोलियन घोड़े पर बैठे-बैठे ही 15-20 मिनट में अपनी नींद पूरी कर लेता था, और चौबीसों घंटे लगातार युद्ध संचालन करता रहता था।

सल्वाडोर डेली नामक प्रसिद्ध चित्रकार ने योग निद्रा में इतनी प्रवीणता प्राप्त कर ली थी कि कुछ सेकेंडों के अन्दर ही अपनी नींद पूरी कर लेता था। उसके संबंध में कहा जाता है कि वह हाथ में किसी धातु का टुकड़ा ले लेता था और उस धातु के हाथ से जमीन पर गिरने तक के समय में उसकी नींद पूरी हो जाती थी।

औद्योगिक नगरों एवं कालोनियों में बसे व्यक्ति अत्यन्त व्यस्त जीवन-क्रम बिताते देखे जाते हैं। उनके चारों और के वातावरण में कोलाहल भरा रहता है। शोर के कारण तनाव से ग्रसित रहते हैं। काम के समय के अतिरिक्त समय विभिन्न चिन्ताओं, उद्विग्नताओं, घर परिवार की देखभाल में बीतता है। मानसिक स्थायित्व न हो पाने से नींद भी ठीक से नहीं आती। विश्राम की आवश्यकता पूरी न हो पाने से व्यक्ति अनेकों शारीरिक मनोशारीरिक व्याधियों से घिर जाता है। दवाइयों का अत्यधिक प्रयोग लाभकारी न होकर हानिकर सिद्ध होता है। सुख साधन, सुविधाओं की दृष्टि से भौतिक प्रगति बड़ी तीव्र गति से बढ़ी है। आत्मिक प्रगति की न्यूनता से अनेकानेक समस्यायें और उलझनें भी बढ़ी हैं। मनोरंजन के साधनों से तनाव में वृद्धि हो जाती है। न तो पर्याप्त शारीरिक व मानसिक श्रम कर पाते और न नींद के समय उचित एवं पर्याप्त विश्राम मिल पाता है।

यौगिक विश्राम एवं योगाभ्यास से शरीर व मन में शक्ति व स्फूर्ति का संचार होता है। योगाभ्यास की नियमितता से शरीर के अंदर सूक्ष्म परिवर्तन होने लगते हैं। आदतों में परिष्कार हो जाता है। तनाव, चिन्ता व्यग्रता आदि मानसिक विकारों से छुटकारा मिलता चला जाता है। विश्राम एवं सजगता से मन व शरीर पर नियंत्रण बढ़ता है और व्यक्ति का जीवन उत्कृष्ट एवं परिष्कृत होता जाता है। योग की विश्राम की सरल विधियों का अभ्यास अत्यधिक कार्य व्यस्तता में भी किया जा सकता है। यहाँ तक कि कार्य के मध्य में भी विश्राम की प्राप्ति कर नव-स्फूर्ति और शक्ति अनुभव की जा सकती है।

कार्य को भार न समझकर उसे सहज, सरल एवं रसानुभूति के भाव से किया जाय तो तनाव, चिन्ता, व्यग्रता से बिना प्रयास के ही मुक्त रहा जा सकता है। कार्य को ही साधना मानकर किया जाय, प्रतिफल की आशा किये बिना मनोयोगपूर्वक कर्म करने से कार्य-क्षमता, कुशलता आदि में अभिवृद्धि होती है। कार्य करते समय अंतर्मौन, श्वास के प्रति जागरूकता द्वारा ध्यान की अवस्था का विकास हो जाने पर अपने अनुभवों के प्रति सचेत रखकर स्फूर्ति को निरन्तर रखा जा सकता है।

कार्य करते समय थकान अनुभव होने पर विश्राम प्राप्ति एवं शक्ति-ग्रहण करने के लिए कुछ क्षण कार्य बंद कर निम्न सरल प्रक्रियायें अपनायी जा सकती हैं-

खूब गहरी साँस लेते हुए उदर भाग तक को पूरा भरते हुए दोनों हाथों को ऊपर की और तान दें। कन्धों एवं भुजाओं की पेशियों पर खिंचाव पड़े। साँस लेते समय प्राण-शक्ति प्रवाह को भीतर प्रविष्ट हो ऐसी संचय होने की भावना करें तथा श्वास छोड़ने के समय यह चिन्तन करें कि तनाव, निराशाएं रोग चिन्ताएं एवं समस्याएं दूर हो रही हैं। भरपूर उदर श्वसन और श्वास-प्रश्वास के प्रति सजग रहने से शाँति एवं शिथिलता की अनुभूति होती है। शरीर व मन को पर्याप्त विश्राम मिलता है। इसका अभ्यास कोई भी व्यक्ति कहीं भी कर सकता है। अभ्यास के बाद शक्ति, स्वास्थ्य की अनुभूति होने लगती है।

‘सोना, विश्राम करना एक कला है।’ साधारणतः स्वस्थ मनुष्य को छः घण्टे की नींद पर्याप्त होती है। योगनिद्रा शरीर व मन को पूर्ण विश्राम की स्थिति में पहुँचाती है। इसके अभ्यास से शरीर, मन व भावनाओं के तनाव मिट जाते हैं। विश्राम एवं नींद के लिए तनाव रहित होना चाहिए। योगनिद्रा के द्वारा व्यक्ति चेतना की गहराई में प्रवेश कर नवीन शक्ति एवं आनन्द पाता है। यह सोने और जागने की मध्यावस्था कही जा सकती है। शरीर पूर्ण विश्राम पाता है, मन जागरूक रहता है। उस स्थिति में मन का संबंध अचेतन एवं अर्ध-चेतन सा हो जाता है एवं तनावों से मुक्ति, विश्राम की अनुभूति होती है।

योग निद्रा की विधि अति सरल है। इसे हर स्थिति का व्यक्ति सुविधानुसार किसी भी समय कर सकता है। फिर भी प्रातःकाल का समय नियमित अभ्यास के लिए उपयुक्त माना गया है। खुली हवा रोशनी वाले स्थान, हर योग साधना के लिए आवश्यक माने गये हैं। घुटन, सीलन, सड़न जहाँ रहती है वहाँ के अनुपयुक्त वातावरण में साधना का वह लाभ नहीं मिल पाता जो अभीष्ट है। खाली पेट यह साधना अधिक सफल होती है। यदि भोजन कर लिया हो तो एक दो घण्टे ठहर कर ही यह प्रयोग करना चाहिए।

अभ्यास इस प्रकार है- समतल भूमि पर कम्बल बिछा कर चित्त लेट जाइये। हाथ और पैरों को सीधा रखे। आंखें बंद कर ली जाय।

ध्यान किया जाय कि शरीर का प्रत्येक अंग शिथिल एवं निर्जीव हो रहा है। मन ही मन यह धारणा की जाय कि एक-एक करके सब अवयव निःचेष्ट होते चले जा रहे हैं। निद्रावस्था में शरीर में जो शिथिलता छाई रहती है, प्रायः वैसी ही स्थिति अंग-प्रत्यंगों की हो चली।

शरीर के साथ-साथ मन के शिथिल होने की भी धारणा करनी चाहिए। निद्रा में मन की भाग दौड़ बंद हो जाती है। वह थक कर अपने को सब ओर से समेट लेता है और निद्रा की गोद में अचेत होकर गिर पड़ता है। न कोई चिन्ता रहती है और न इच्छा न किसी से राग रहता है न द्वेष। इसी स्थिति में स्वाभाविक नींद आती है। योग निद्रा के अवसर पर भी शरीर और मन को उसी स्थिति में पहुँचाने का संकल्पपूर्वक प्रयत्न करना पड़ता है।

योग निद्रा को श्वसन या शिथिलीकरण मुद्रा भी कहते हैं। श्वसन का तात्पर्य है मुर्दे जैसी स्थिति। शिथिलीकरण अर्थात् निःचेष्ट एवं निर्जीव जैसी शिथिलता उत्पन्न करना। अभ्यासपूर्वक यह स्थिति उत्पन्न की जा सकती है और जब चाहे तब नींद का आनन्द लिया जा सकता है। स्वाभाविक नींद का तो अपना महत्व है, पर इस योग निद्रा में संकल्प का समावेश रहने से उसकी ऐसी प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है जो शरीर को नींद का और मन को शाँति संतुलन का दुहरा लाभ उत्पन्न कर सकने में समर्थ है।


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