बुद्धि की प्रखरता ही नहीं, भावनाओं की उदात्तता भी

February 1981

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आप्त वचन एवं धर्म ग्रन्थ मनुष्य को श्रेष्ठ अथवा धार्मिक नहीं बना सकते। वे मात्र श्रेष्ठ विचार करने का आधार प्रस्तुत कर सकते हैं। विचारों को दिशा देने में उनके महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। बुद्धि की प्रखरता प्रतिभा के विकास एवं भौतिक प्रगति में योगदान देती है। वह तर्क कर सकती है। भौतिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकती है, किन्तु वह आधार नहीं दे सकती है, जिसको अपनाकर मनुष्य मानवोचित्त गुणों से संपन्न होगा। श्रेष्ठता को अपना सकना तथा महानता के पथ पर बढ़ चलना जिसके द्वारा संभव हो पाता है वह है- भावभरा उदात्त चिन्तन। जो अन्तरंग के आस्था क्षेत्र में उत्पन्न होता है। महानता की और बढ़ने का साहस जुटा सकना तो उदात्त भावनाओं द्वारा संभव है।

बुद्धि की अपनी उपयोगिता है। मनुष्य की योग्यता, प्रतिभा विकसित होती है। भौतिक प्रगति के आधार प्रस्तुत होता है। अब तक के विकासक्रम में भौतिक समृद्धि ने असाधारण भूमिका निभाई है। इस तथ्य के साथ एक सत्य यह भी जुड़ा है कि बुद्धि ने यदि विकास का मार्ग प्रशस्त किया है तो भावनाओं ने उस विकास के अस्तित्व को कायम रखा है। यदि मनुष्य सम्वेदन शून्य रहता तो आज की विकसित सभ्यता कभी की लुप्त हो गई होती। आन्तरिक भाव-सम्वेदनाओं ने ही मानव जाति को एकता के सूत्र में बाँधा है। परस्पर सहयोग करना सिखाया। एक-दूसरे के दुख दर्द में हिस्सा बंटाने एवं सहयोग के लिए प्रेरणा दी, मानव-मानव के बीच, प्राणिमात्र के बीच जो एकता एवं सहयोग की प्रवृत्ति दिखायी पड़ती है उसका कारण उदात्त भाव सम्वेदना का अस्तित्व ही है।

यही वह अवलम्बन है जिसके द्वारा सम्पूर्ण संसार को एकता के सूत्र में बाँधा जा सकता है। मनुष्य को शालीनता अपनाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। इसके अभाव में तो बुद्धि संकीर्ण, स्वार्थी बनकर अनेकानेक समस्याओं को जन्म देती तथा सामाजिक जीवन के विग्रहों का कारण बनती है। हृदय की विशालता के साथ जुड़कर ही बुद्धि की प्रखरता व्यक्तिगत उत्थान एवं सामाजिक विकास का कारण बन सकती है। एकाँगी बुद्धि कितनी भी प्रखर क्यों न हो भावनाओं के अभाव में अन्ततः समस्याओं को ही जन्म देगी। अन्तःकरण की महानता के मर्म को जानते हुए ही संसार के सभी धर्म सम्प्रदाय, धर्मशास्त्र हृदय की पवित्रता पर जोर देते हैं। उपासना साधना का विशाल कलेवर अन्तरंग को ही परिष्कृत करने तथा सम्वेदनाओं को विकसित करने के लिए खड़ा किया गया है।

महानता के पथ पर अग्रसर होकर समाज के लिए मानव जाति के लिए कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकना अन्तःकरण की विशालता द्वारा ही सम्भव बन पाता है। महापुरुष, सन्त-महात्मा अन्तरंग की इस महानता के कारण ही समाज के लिए कुछ कर सकने में समर्थ हो सके हैं। उनकी भावनाएं मानव मात्र के हृदय के साथ जुड़कर ही उनके साथ एकाकार बन सकीं। वे ही दुख क्लेशों को अनुभव कर सकीं। उनकी यह अनुभूति ही ठोस रचनात्मक कार्य करने की आधारशिला बनी। मनुष्य के अन्तरंग में प्रवेश कर उनकी आस्थाओं को छू सकना तथा गतिविधियों में अभीष्ट परिवर्तन करने के लिए बाध्य कर सकना विशाल अन्तःकरण द्वारा ही सम्भव है। बुद्धि की पहुँच विचारों तक है। क्षणिक प्रभाव उत्पन्न करने तथा वैचारिक स्तर पर गुत्थियों का समाधान प्रस्तुत करने का आधार तो विचार ही हो सकते हैं किन्तु जिनसे मनुष्य श्रेष्ठता अपनाता तथा अपनी गतिविधियों को महानता की ओर मोड़ सकने में समर्थ होता है, वह बुद्धि से नहीं बन पड़ता है। यह तो उदात्त भावनाओं द्वारा ही सम्भव हो पाता है।

देखा यह गया है कि उपयोगी विचार तथा अन्यान्य उपचार भी मनुष्य को बदल सकने में समर्थ नहीं हो सके हैं, जबकि भाव-सम्पन्न व्यक्तियों ने अपने अन्तरंग की महानता के कारण अत्याचारी, दुर्गुणी पातकी व्यक्तियों को न केवल प्रभावित किया वरन् उनके क्रिया कलाप में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। अंगुलिमाल, रत्नाकर का हृदय परिवर्तन सर्वविदित है। उनमें विचारों का नहीं भावनाओं की शक्ति ही प्रधान थी। ढूंढ़ा जाय तो इतिहास में ऐसे असंख्यों उदाहरण मिल जायेंगे, जिनमें अनेकों व्यक्तियों ने महामानवों के सान्निध्य में आकर अपने में परिवर्तन किया। यह उनके परिष्कृत अन्तःकरण का ही प्रभाव था। जिसके प्रभाव क्षेत्र में आकर अत्याचारी, दुराचारी भी संत महात्मा बनते गये। मनुष्य को मानवोचित्त गुणों से सुसज्जित करने तथा परस्पर एक-दूसरे के प्रति स्नेह-सौहार्द बनाये रखने में कोई भी विचार पद्धति इतनी उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती। सम्वेदनाओं द्वारा ही मनुष्य को उभारा जा सकता है जिससे वह श्रेष्ठता अपनाकर सही अर्थों में मानव बन सके।

संसार भर में प्रचलित सभी आध्यात्मिक साधनाओं का एक मात्र लक्ष्य है- हृदय को पवित्र बनाना। धर्म-ग्रन्थों का एकमात्र उद्बोधन है- जीवन को उत्कृष्ट करना। यह महानता हृदय की विशालता द्वारा ही सम्भव है। “बाइबिल’ में वर्णन है धन्य हैं वे लोग जिनके हृदय पवित्र हैं क्योंकि परमात्मा को पाने के सच्चे अधिकारी वही हैं।’’

बुद्धि की प्रखरता के साथ एक दुर्बलता यह जुड़ी है कि वह तात्कालिक लाभ देखती तथा महानता, श्रेष्ठता के कष्टमय जीवन को अपनाने से रोकती है। तर्क से परे होकर महानता की और बढ़ सकना तो अन्तःकरण की महानता द्वारा ही सम्भव है। पवित्र अन्तःकरण ईश्वरीय सत्ता को प्रतिबिम्बित करने का सर्वश्रेष्ठ दर्पण है। परमात्मा का प्रकाश उसी में अवतरित होता है। उस प्रकाश के कारण ही संसार के सत्यासत्य को देख सकना तथा अनुभव कर सकना सम्भव हो सकता है।

बुद्धि जीवनयापन के लिए साधन एकत्रित कर सकती है, गुत्थियों को सुलझा सकती है, किन्तु जीवन की उच्चतम भूमिका में नहीं पहुंचा सकती। चेतना की उच्चस्तरीय परतों तक पहुँच सकना तो हृदय की महानता द्वारा ही सम्भव है। बुद्धि प्रधान किन्तु हृदय शून्य व्यक्ति भौतिक जीवन में कितना भी सफल क्यों न हो किंतु भाव सागर की चेतन परतों तक पहुँच सकने में वह असमर्थ होता है। जबकि बुद्धि में अल्प किन्तु भाव-प्रधान व्यक्ति अपनी इस विशेषता के कारण ईश्वरीय सान्निध्य एवं उससे मिलने वाले दिव्य-लाभों का अधिकारी बन जाता है। संत महामानवों के जीवन चरित्र इस बात के साक्षी हैं। अपनी भाव-सम्पदा को पत्थरों में आरोपित करके उनमें भगवान को अवतरित करने के लिए बाध्य किया। उत्कृष्ट भाव श्रद्धा ही भगवान को भी भक्त के पास आने के लिए बाध्य करती है। भगवान भक्त के आधीन होते हैं- इस उक्ति में भावनाओं की शक्ति का रहस्य ही छिपा है, भगवान के स्वभाव का नहीं।

जो शक्ति भगवान को प्रभावित कर सहयोग करने के लिए बाध्य कर सकती है। वह मानव मात्र को भी प्रभावित कर सकती है। मानवता को एक सूत्र में बाँध सकती है। पिछले दिनों भूल यह हुई कि हृदय की महानता को उभारने के स्थान पर बुद्धि को प्रखर बनाने में अधिक जोर दिया गया। बुद्धि की प्रखरता की उपयोगिता सही दिशा में तभी सम्भव हो सकती है जबकि उसके साथ हृदय की विशालता जुड़ी हो। किन्तु ऐसा नहीं हो सका। प्रयत्न बुद्धि को प्रखर बनाने के लिए ही हुआ। उसमें सफलता भी मिली। फलस्वरूप भौतिक उपलब्धियाँ भी प्राप्त हुई।

बुद्धि के एकाँगी विकास से बौद्धिक परिकल्पनाओं की प्राप्ति भले ही हो जाय, मनुष्य को महान् बना सकना सम्भव नहीं है। बुद्धि की प्रखरता के साथ हृदय की महानता को विकसित करने के लिए भी प्रयत्न करना होगा। तभी मनुष्य मानवोचित्त गुणों से सम्पन्न बनकर व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के लिए सही अर्थों में उपयोगी बन सकता है। अन्तरंग की महानता ही मनुष्य की गरिमा को चिरस्थायी बनाये रखने रख सकती है।


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