परिष्कृत अंतरंग चेतना की उपलब्धियाँ

February 1981

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दृश्यमान जगत की अदृश्य, रहस्यमयी परतों को यदि समझा जा सके और उनसे संपर्क स्थापित किया जा सके तो निश्चय ही वे विभूतियाँ अर्जित की जा सकती हैं जिनके आधार पर अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का जीवन जिया जा सकता है और इस जीवन को सफल बनाया जा सकता है। भौतिक विज्ञान स्थूल जगत में बिखरी हुई शक्ति को देखकर ही चकित है और यह नहीं समझ पा रहा है कि उसका उपयोग किस प्रकार किया जाए? सामान्य के भीतर जो असामान्य छिपा पड़ा है, उसमें से बहुत कुछ को अब भली-भाँति समझा जाने लगा है। उदाहरण के लिए सूर्य को ही लें। वह गर्मी और रोशनी देने वाला, रोज उगने और डूबने वाला अग्नि पिण्ड मात्र है, परन्तु गम्भीरता पूर्वक उसका विश्लेषण अध्ययन करने पर यही पता चलता है कि वह शक्ति का असीम भांडागार है।

सूर्य के मध्य भाग में जितनी गर्मी भरी पड़ी है उसके दो लाखवें हिस्से से ही प्रकृति के विकास और विनाश का संतुलन क्रम चलता है। शेष भांडागार किस प्रयोजन के लिए सुरक्षित है? इसका कोई पता नहीं है। यह भी समझा जा सकता है कि वह शक्ति किसी आपत्तिकाल के समय प्रयुक्त करने के लिए सुरक्षित हो या यों भी कहा जा सकता है कि परमात्मा ने वह शक्ति सूर्य के सुरक्षित कोष में इसलिए जमा करा रखी हो कि कोई उपयुक्त पात्र आए और किसी ईश्वरीय प्रयोजन की पूर्ति के लिए शक्ति की आवश्यकता अनुभव करे तो उसे इतनी शक्ति उपलब्ध हो सके कि ध्वंस और निर्माण का कार्य सुभीते के साथ चल सके।

प्रकृति में उपलब्ध शक्ति भंडार की तुलना में मानव उपार्जित समस्त साधन इतने स्वल्प हैं कि वे समुद्र की तुलना में एक-बूँद के बराबर भी नहीं ठहरते। मनुष्य का अपना शरीर भी कुछ कम विचित्र या विलक्षण नहीं है। पूरा शरीर जिन छोटी-छोटी कोशिकाओं से मिलकर बना है, यदि उन्हें खींचकर लम्बाई में बढ़ाया जाए और फैलाया जाए तो वह समूचे ब्रह्मांड के विस्तार जितना लम्बा होगा। इतने लंबे फीते में यदि अक्षरों को अंकित किया जाए तो वह स्मृति कोष इतना विपुल होगा कि उसे भरने के लिए उपलब्ध जानकारियाँ एक अंश भी नहीं भर सकेंगी। ऐसा मनुष्य सर्वज्ञ ही कहा जा सकता है। योग विद्या के जानकार यह जानते हैं कि योग सिद्ध व्यक्ति के लिये संसार में जो कुछ हो रहा है, जो कुछ होगा, और जो हो गया है वह सब कुछ जान लेना सम्भव है। इस तथ्य को स्थूल विवरणों के आधार पर साढ़े पाँच फीट लंबे और करीब सवा सौ पौंड वजनी शरीर में जो कुछ है उसे आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है।

शरीर शास्त्रियों का मत है कि शरीर में विद्यमान खरबों कोषों में से प्रत्येक में उस शरीर की शारीरिक तथा मानसिक विशेषताएं विद्यमान रहती हैं। ये विशेषताएं आगे चलकर मनुष्य शरीर में परिपक्व होने वाली होती हैं। बच्चे की आकृति-प्रकृति का सारा ढ़ाँचा इन नगण्य से घटकों में छिपा रहता है। शरीर के संबंध में सबसे निकटवर्ती विचित्रताओं में सबसे अधिक विलक्षण है मस्तिष्क की टोकरी में रखा हुआ, सूक्ष्म शक्तियों और दिव्य क्षमताओं का भण्डार। लेकिन कठिनाई यह है कि जिस प्रकार अपनी ही आँखों को स्वयं सीधे देख पाना कठिन है और अपने ही भीतर चल रही रक्त की हलचलों को जान पाना दुरूह है उसी प्रकार मस्तिष्क को समझना कठिन है। उससे भी ज्यादा कठिन मानसिक चेतना पर नियंत्रण कर पाना है। यदि वैसा सम्भव हो सके तो शक्ति का लगभग उतना ही बड़ा स्त्रोत हाथ लग सकता है जितना कि बाह्य जगत में दिखाई देने वाले सूर्य में निहित है। पुस्तकीय शिक्षा, विचार विनिमय, दृश्य चिन्तन आदि के सहारे जो ज्ञानवृद्धि होती है उससे मस्तिष्क का बहुत छोटा अंश ही विकसित हो पाता है। इसके सहारे उपार्जन, लोक व्यवहार तथा निर्वाह के सामान्य प्रयोजन ही पूरे होते हैं। शक्ति का स्त्रोत तो अचेतन है और उसे प्रभावित कर सकना ही कठिन है। यदि उसे प्रभावित किया जा सके, अचेतन तक पहुँच पाना संभव हो जाए और उसे अभिष्ट दिशा में बदला जा सके तो व्यक्तित्व का स्वरूप ही बदल सकता है। तब सामान्य को असामान्य के रूप में विकसित हुआ देखा जा सकता है।

अचेतन को प्रभावित करने की दिशा में भी कितने ही वैज्ञानिक प्रयोग चल रहे हैं और उनमें सफलताएं भी मिल रही हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध चिकित्सक और मनःशास्त्री डा. डेलगाडो ने इस संबंध में कई सफल प्रयोग किये हैं और उन प्रयोगों में से कुछ का प्रदर्शन भी किया है। एक प्रदर्शन में उन्होंने एक बन्दर को केला खाने के लिए दिया। जब वह केला खा रहा था, तब डा. डेलगाडो ने ‘इलेक्ट्रो ए.सी.फैलोग्राफ’ के द्वारा बंदर के मस्तिष्क को संदेश दिया कि केला खाने की अपेक्षा तो भूखे रहना ज्यादा अच्छा है। यह संदेश ग्रहण करने पर बंदर ने केला फेंक दिया। इलेक्ट्रो ए.सी.फैलोग्राफ एक ऐसा यंत्र है जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भाव-तंरगों को अंकित कर लिया जाता है। इस यंत्र द्वारा मस्तिष्क में अभीष्ट प्रकार की भाव-तरंगों को विद्युत यंत्र द्वारा तीव्र कर देते हैं तो मस्तिष्क के शेष सब भाग दब जाते हैं और वह एक ही भाव तीव्र हो उठने से मस्तिष्क केवल वही काम करने लगता है।

इस तथ्य को डा. डेलगाडो ने एक खतरनाक प्रयोग करके सिद्ध कर दिखाया। इस प्रयोग का उन्होंने सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया। प्रदर्शन को देखने के लिए हजारों लोग एकत्र हुए। सिर पर इलेक्ट्रॉड जड़े हुए दो खूँखार साँड लाये गये। यह एक प्रकार का एरियल था जो रेडियो ट्रान्समीटर द्वारा छोड़ी गई तरंगों को पकड़ लेता था। जब दोनों साँड मैदान में आये तब उनका खूँखारपन देखते ही बनता था, लगता था दोनों डेलगाडो का कचूमर ही निकाल देंगे। लेकिन दोनों साँड जैसे ही डेलगाडो के पास पहुँचे, उन्होंने अपने यंत्र द्वारा शाँति की भाव तरंगें प्रेषित कीं। इन तरंगों के प्रेषण के साथ ही साँड अपनी आक्रामक मुद्रा को फुसकारते हुए ऐसे शाँत भाव से खड़े हो गए, जैसे दो बकरियाँ खड़ी हों। उल्लेखनीय है कि जानवर मनुष्यों की भाषा भले ही न समझें किन्तु भावों की भाषा तो समझते ही हैं। यदि प्रयत्न किया जाए तो मनुष्य अपनी भावशक्ति को इस सीमा तक बढ़ा सकता है कि उसके द्वारा सिंह और गाय को एक साथ रखने की उक्ति चरितार्थ की जा सकती है।

यह मस्तिष्क की ही शक्ति है। टेक्सास विश्व विद्यालय के राबर्ट थाम्पसन और जोंस मैक कौनेल वैज्ञानिकों ने प्लेनोरिया नामक जीव पर परीक्षण करके यह सिद्ध किया है कि विद्युत उपकरणों की सहायता से मस्तिष्कीय क्षमता को घटाया और बढ़ाया जा सकता है। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डा. एलन जेकवसन ने प्रशिक्षित चूहों के मस्तिष्क में से आर.एन.ए. नामक रसायन निकाल कर अनाड़ी चूहों के मस्तिष्क में पहुँचाया तो वे भी प्रशिक्षित चूहों की तरह व्यवहार करने लगे। मस्तिष्क को प्रभावित करने और उसे इच्छित दिशा में मोड़ने के लिये किये जा रहे प्रयासों की प्रगति जिस चरण में पहुँच गई है, उसे देखते हुए मिशिगन विश्वविद्यालय अमेरिका के वैज्ञानिक डा. ओटो शिमल ने घोषणा की है कि अब हमारे हाथ में मानव मस्तिष्क को नियंत्रित करने की शक्ति आ गई है, पर आशा की जानी चाहिए कि उसका प्रयोग केवल अच्छाई के लिए ही होगा। लेकिन साथ ही इस खतरे को भी ध्यान में रखना होगा, इस शक्ति का प्रयोग कहीं निजी महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति एवं साम्राज्यवादी विस्तार के लिए भी किया जा सकता है। यदि ऐसा किया गया तो यह आविष्कार संसार का सबसे विघातक अस्त्र सिद्ध होगा। उल्लेखनीय है कि डा. ओरो स्वयं भी इस दिशा में प्रयोगरत हैं।

विद्युत शक्ति या अन्य उपकरणों का सहारा लेकर मस्तिष्कीय क्षमता को विकसित करने या उसे प्रभावित करने की अपेक्षा योग साधन का मार्ग निरापद है। योग का उद्देश्य बिना वैज्ञानिक उपकरणों के अन्तःचेतना को अभीष्ट स्तर पर परिवर्तित और विकसित करना है। यह इसलिए उपयुक्त है कि हर व्यक्ति अपनी चेतना का परिष्कार होने पर उसी दिशा में अपनी क्षमता को विकसित करना चाहेगा जिससे कि उपलब्ध क्षमता को अपने और दूसरों के कल्याण में लगाया जा सके। इसके विपरीत वैज्ञानिक साधनों द्वारा दूसरों के मस्तिष्कों को प्रभावित करने का आधार अपना लिया गया तो जन-साधारण को किसी महत्वाकाँक्षी सत्ताधारी की इच्छा के अनुरूप ढलना पड़ेगा और आत्मोत्कर्ष से वंचित रहकर किन्हीं औरों के हाथ की कठपुतली मात्र बनकर रह जाना पड़ेगा।

विलक्षणताओं की दृष्टि से देखा जाए तो छोटे-छोटे जीव-जन्तु भी असाधारण सूक्ष्म चेतना से सम्पन्न पाये जाते हैं। वैरियन कीड़े की घ्राण शक्ति सबसे तीव्र मानी जाती है। वह मीलों दूर के मुर्दा मांस का पता लगा लेता है और उड़ता फुदकता हुआ वहाँ तक पहुँच जाता है। समुद्र में हल्के ज्वार-भाटे पचास मिनट के अंतर से आते हैं। केकड़े भी इसी क्रम से अपना रंग बदलते रहते हैं। कीड़ों के कान नहीं होते, यह काम वे अगली टाँगों के जोड़ों में रहने वाली ध्वनि ग्रहण शक्ति द्वारा पूरा कर सकते हैं। तितलियों के पंखों में श्रवण शक्ति पाई जाती है। झींगुर आदि जो आवाज करते हैं वह उनके मुँह से नहीं बल्कि टाँगों की रगड़ से उत्पन्न होती है। कीड़ों की अपनी विशेषता है। उनके फेफड़े नहीं होते पर वे साँस लेते हैं। उनके कान नहीं होते पर वे सुन सकते हैं। नाक न होने पर भी वे सूँघने में समर्थ होते हैं। रगफर्ड जाति का कीड़ा सीधा माँ के द्वारा ही जन्मता है। बाप का कोई योगदान उसके जन्म लेने में नहीं होता। क्वाँरी एफिड अपने बलबूते पर बच्चे जनने लगती है। नेस, सलासौमिना, आईस्टर, स्नेल (घोंघा) फ्रेस वाटर मसल आदि कृमियों में भी यही विशेषता होती है।

इस प्रकार प्रकृति ने अपने परिवार के सभी सदस्यों को कोई न कोई विलक्षणता बाँट रखी है। मनुष्य में इन सभी विलक्षणताओं का समुच्चय बीज रूप में विद्यमान है जिन्हें आत्मचेतना के विकास द्वारा जागृत किया जा सकता है। इस विकास के लिए सर्वप्रथम आँतरिक उत्कृष्टता का विकास आवश्यक है। इस आवश्यकता को पूरा करने के बाद भले ही ये विलक्षणताएं विकसित न हों, परंतु हर घड़ी आनन्द की स्थिति बनी रहती है। इसके अतिरिक्त अचेतन की क्षमता इतनी प्रखर हो उठती है कि उसके सहारे देव जीवन जी पाना सम्भव हो पाता है और दूसरों को सुखी समुन्नत बनाकर असीम आत्म-संतोष देने वाला श्रेय प्राप्त किया जा सकता है।


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