योगाभ्यास मानसिक प्रगति का बहुमूल्य माध्यम

February 1981

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आधुनिक विज्ञान इस जगत को पदार्थ सत्ता भर मानता है। चेतना को पदार्थ का ही एक गुण कहता है। इस मान्यता का आधार मानवी सत्ता का स्वरूप शरीर मात्र रह जाता है। वे मन का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानते। अतएव उसकी व्याधियों को भी शरीर के अंतर्गत ही गिनते हैं और ऐसी कठिनाइयों के लिए मस्तिष्क अवयव में किसी विकृति का अनुमान लगाकर उसी के स्थानीय उपचार का प्रयास करते हैं। इस प्रयास में कितनी सफलता मिली यह कहना कठिन है।

मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले रसायनों में प्रायः सुन्न या उत्तेजित करने की क्षमता पाई जाती है। इससे किसी मनोरोग से ग्रसित व्यक्ति को संज्ञा शून्य या अनुभूतियों से शिथिल बनाकर ऐसी स्थिति में ले जाया जाता है जिसमें उसे व्यथा की अनुभूति न हो। यह सामयिक उपाय हुआ। उपचार नहीं। उपचार तब होता जब रोग के मूल कारण को समझा जाता और उद्गम स्थान को उलट-पुलट करना सम्भव होता। यदि शरीर ही सब कुछ माना जाय और मनोरोगों के लिए मस्तिष्क अवयव के किसी स्थान पर कोई गड़बड़ी होना माना जाय तो फिर उसका एक ही उपाय है कि मस्तिष्कीय संरचना और उसकी क्रिया पद्धति का समग्र ज्ञान उपलब्ध किया जाय। साथ ही ऐसा उपाय भी खोजा जाय जिससे निशाना ठीक जगह पर लगे।

मस्तिष्क एक समुद्र है। उसकी विशालता और विचित्रता ऐसी है जिसे थोड़ी गहराई में उतर कर देखने से बुद्धि हतप्रभ रह जाती है। वहाँ के अत्यन्त सूक्ष्म घटक अपनी रहस्यमयी विशेषताओं को भी सीमित नहीं रखते वरन् एक दूसरे के साथ गुंथते, उलझते ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसका विश्लेषण अत्यधिक कठिन हो जाता है और यह खोज निकालना सम्भव नहीं रहता कि किस मनोरोग का उद्गम केन्द्र किन घटकों में निर्धारित किया जाय और उन्हें प्रभावित करने के लिए किस उपाय का अवलम्बन किया जाय।

औषधियों का प्रभाव पाचन तंत्र एवं रक्त संस्थान के माध्यम से होता है और वह प्रायः किसी स्थान विशेष तक सीमित न रहकर समस्त शरीर पर समान प्रभाव उत्पन्न करता है। यह बात दूसरी है कि कोई स्थान उससे अधिक प्रभावित हो, कोई कम। शरीर के रक्त, माँस प्रधान अवयवों में तो किसी प्रकार यह उपाय काम दे जाता है, पर मस्तिष्कीय विचित्र संरचना को देखते हुए यह निर्णय करना सम्भव नहीं होता कि मस्तिष्क के किन घटकों को किस मनोरोग के लिए दोषी ठहराया जाय और उसे सुधारने के लिए किस उपाय का अवलम्बन लिया जाय। ऐसी दशा में औषधि उपचार का जो थोड़ा बहुत प्रभाव शरीर के अन्य अवयवों पर होता है वह भी मस्तिष्कीय संरचना की जटिलता को देखते हुए सम्भव नहीं हो पाता। शल्य क्रिया इस क्षेत्र की और भी जटिल है। चमड़ी की परत चीरकर माँस पेशियों का कतर व्यौंत कर लेना एक बात है और मस्तिष्क के ऊपर चढ़े हुए अस्थि कवच को वेधकर भीतर अन्धकूप में निशाना लगाना दूसरी। अन्धकूप इसलिए कहा गया है कि वहाँ दाँत, जीभ, कण्ठ, होठ की तरह अपना-अपना स्थान एवं कार्य निर्धारित नहीं है वरन् सब कुछ नितान्त उलझा हुआ है। वहाँ घटकों के परस्पर गुंथे होने की जटिलता को देखते हुए यह निर्णय करना सम्भव नहीं रहता कि पेचेदगी की जिम्मेदारी किस केन्द्र को सौंपी जाय। ऐसी दशा में अंधेरे में ढेला फेंकना युक्ति संगत नहीं रह जाता। मस्तिष्कीय शल्य क्रिया में अभी तक अर्बुदों को काट निकालने जैसे प्रत्यक्ष प्रयोजनों में ही एक सीमा तक सफल होती रही है। व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले मनोविकारों, सनकों, मूढ़ताओं को प्रभावित करने वाले मानसिक रोग शरीर शास्त्रियों की पकड़ से बाहर ही बने हुए हैं। यहाँ तक कि अपस्मार जैसे प्रत्यक्ष लक्षणों वाली व्यथा तक की रोकथाम सम्भव नहीं हो पाती।

मस्तिष्कीय विद्या का यथासम्भव विस्तार हुआ है और क्षेत्र की खोजों में एक सीमा तक सफलता भी मिली है। पर समस्या को देखते हुए इस उपलब्धि को समुद्र तट पर बैठे हुए बालक द्वारा सीप घोंघे बीनने जैसा ही नगण्य है। उतने भर से मनोरोगों के निराकरण में सफलता मिलना तो दूर वैसी सम्भावना तक नहीं दिखती और आशा तक नहीं बंधती। लंका के निकट समुद्र पर पुल बाँधे जाने की कथा कम से कम पुराणों में तो मौजूद है। मस्तिष्कीय संरचना के रहस्य तिलस्म को देखते हुए उसका स्वरूप एवं क्रिया-कलाप तक समझना कठिन हो रहा है। ऐसी दशा में उपचार की बात कैसे सोची जाय। पागलखानों में अनियन्त्रित विक्षिप्तों को ही प्रवेश मिलता है। उनका उपचार भी होता है, पर सफलता का दावा इतना ही किया जा सकता है कि उपद्रव से बचने के लिए बंदीगृह जैसी स्थिति बन गई। उनमें से उपचार कितनों पर किस सीमा तक सफल हुआ इसका निष्कर्ष देखने पर निराशा ही हाथ लगती है।

इस निराशा की गम्भीरता को समझ जाना चाहिए। मस्तिष्कीय चीर-फाड़, सूची वेधन या औषधि उपचार से फैले हुए मनोविकारों के समाधान का प्रयास करने वाले अपनी सफलता के लिए स्वयं आश्वस्त नहीं हैं। विश्वास और उत्साह के अभाव में गम्भीर प्रयत्न भी तो नहीं बन पड़ते। अब तक की शोधें, भटकने जैसे ही परिणाम सामने लाई हैं। अन्य अवयवों की तरह मस्तिष्कीय संरचना एवं क्रिया पद्धति न तो प्रत्यक्ष है न सरल। जटिलता की गहराई में प्रवेश करने वालों को कुछ हाथ लगाना तो दूर अधिकाधिक पेचीदारियाँ ही दृष्टिगोचर होती हैं। बुद्धि और साधनों की ससीमता इस क्षेत्र में अधिक आगे बढ़ने के लिए उत्साह तक उत्पन्न नहीं होने देती। इतना बन पड़े तभी तो प्रयत्न आगे बढ़े।

शरीर रोग प्रत्यक्ष पकड़ में आते हैं और पीड़ित स्थान की उखाड़-पछाड़ भी किसी कदर सम्भव हो जाती है, अस्तु शरीर विज्ञानियों का चिकित्सा अन्वेषण एवं निर्धारण में उत्साह बना हुआ है और प्रयास चल रहा है किन्तु मानसिक रोगों के संबंध में वैसी स्थिति नहीं है। एक तो वे अप्रत्यक्ष होने के कारण ऐसे ही पकड़ में नहीं आते दूसरे उन्हें भाग्य दोष मान बैठने के अतिरिक्त कोई कारगर उपाय भी सामने नहीं है।

सच तो यह है कि शरीर रोगों की तुलना में मनोरोगों का क्षेत्र अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा है और उनके कारण हानि भी अपेक्षाकृत अधिक उठानी पड़ती है। गणना विक्षिप्तों की ही सम्भव है। उन्मादियों को ही मनोरोग ग्रसित माना जाता है और उन्हीं पर दृष्टि जाती है। यह संख्या भी चौंकाने वाली है। फैले हुए भयंकर रोगों में उन्माद को भी प्रमुख स्थान प्राप्त है। अन्य रोगों के रोगी प्रायः स्वयं ही कष्ट उठाते हैं। दूसरों पर तो परिचर्या एवं चिकित्सा का ही भार डालते हैं किन्तु उन्मादियों के संबंध में ऐसी बात नहीं है वे साथियों के सदा आशंका, भय, चिन्ता एवं विपत्ति के विषय बने रहते हैं। इस स्थिति में उनके रहते दूसरे लोग भी विशेषतया कुटुम्बी लोग अपना साधारण काम-काज भी निश्चिंततापूर्वक कर नहीं पाते। सभी जानते हैं कि उन्मादी अपने लिए और दूसरों के लिए एक समस्या बनकर रहते हैं।

उन्मादियों को बंदीगृह में डालने जैसा खर्चीला उपाय भी सोचा जा सकता है, पर उन अर्ध विक्षिप्तों के लिए क्या किया जाय जो प्रत्यक्षतः तो भले चंगे दिखते हैं, पर अपनी विचित्र सनकों एवं हरकतों से स्वयं हैरान रहते और दूसरों को हैरान करते रहते हैं। ऐसे लोगों को न चैन मिलता न उत्साह रहता है। खीजते और खिजाते रहने वाले व्यक्ति प्रगति पथ तनिक भी आगे बढ़ नहीं पाते। जिनके साथ वे जुड़ गये हैं वे किसी प्रकार उनका भार वहन तो करते हैं, पर साथी होने का न लाभ ले पाते हैं न आनन्द। ऐसे अनगढ़ व्यक्तित्वों को आर्थिक दृष्टि से दरिद्र और सामाजिक दृष्टि से पिछड़े लोगों से भी गया-गुजरा समझा जाता है। निर्धन लोग भी हंसते-हंसाते, चैन, संतोष की हल्की-फुल्की जिंदगी जी लेते हैं, पर इन अभागे सनकियों के भाग्य में तो इतना भी नहीं होता। शिक्षा और सम्पन्नता रहते हुए भी यह सनकी लोग उपलब्धियों के आनन्द से वंचित ही बने रहते हैं।

दरिद्रता, रुग्णता और अशिक्षा के अभिशापों को सभी समझते हैं और दूर करने के लिए यथासम्भव प्रयत्न भी चलते हैं। पर इन तीनों के संयुक्त दुष्परिणाम जितने हो सकते हैं उसमें भी अधिक उन मनोरोगों से होते हैं जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर न होते हुए भी भीतर ही भीतर घुन की तरह सब कुछ खोखला करते रहते हैं। वैयक्तिक प्रगति और सामाजिक समृद्धि की दृष्टि से यह मानसिक पिछड़ापन किसी भयंकर संकट से कम कष्टप्रद नहीं है। प्रत्यक्ष चर्म चक्षुओं से न दिख पड़ने के कारण मानसिक रुग्णता की उपेक्षा तो होती रहती है, पर उसकी हानियों से बच सकना सम्भव नहीं। मानसिक पिछड़ेपन के रहते सच्चे अर्थों में पिछड़ापन माना जाना चाहिए। इसी अंतर के कारण तो मनुष्य एवं अन्य प्राणियों के बीच स्तरीय विभाजन रेखा खिंची है। अन्यथा कितने ही प्राणी अपेक्षाकृत कहीं अधिक समर्थ पाये जाते हैं। मानसिक रुग्णता प्रकारान्तर से व्यक्तित्व की दुर्बलता ही मानी जायेगी और उसके रहते कोई व्यक्ति या समाज समुन्नत कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता। भले ही वह साधनों की दृष्टि से कितना ही समृद्ध क्यों न हो।

बढ़ते हुए मनोविकारों को प्रस्तुत संकटों में सबसे बड़ा माना जाना चाहिए। इस दृष्टि से पिछड़े लोगों का समुदाय गणना में कितना ही विस्तृत क्यों न हो, उसका वैभव कितना ही बड़ा क्यों न हो? वस्तुतः उसे दरिद्र, निर्बल एवं अभिशप्त ही माना जायेगा। जो लोग स्वयं अपने लिए भारभूत हो रहे हैं वे समाज को समुन्नत बनाने में क्या योगदान दे सकते हैं?

मानसिक दुर्बलता एवं रुग्णता का इस प्रगति युग में भी बढ़ते जाना वस्तुतः गम्भीर चिन्ता का विषय है। उससे भी अधिक दुर्भाग्य की बात यह है कि इसे समस्या के रूप में नहीं समझा गया और उसके समाधान के लिए गम्भीरतापूर्वक विचार तक नहीं किया गया। उपाय तो इसके बाद ही निकल सकता है।

प्रश्न यह है कि इसका समाधान कोई है भी या नहीं? इसके उत्तर में दोनों बातें कहीं जा सकती हैं। ‘हाँ भी और नहीं भी। ‘नहीं’ इस अर्थों में मन को शरीर का अंग मान लेने पर काम उपचार के अंतर्गत मानसिक पिछड़ेपन को दूर कर सकना सम्भव नहीं है। जैसा कि एक के बाद एक वैज्ञानिक निष्कर्षों से प्रकट होता चला जा रहा है। ‘हाँ’-इस अर्थ में कि मन को चेतना का प्रतिनिधि माना जाय। शरीर का अंग नहीं, वरन् उसका स्वतन्त्र सूत्र संचालक। इतनी पृष्ठभूमि बन जाने पर मनोविश्लेषण और उपचार विधान का मार्ग नितान्त सरल हो जाता है और उन उपाय अवलम्बनों का प्रयोग हो सकता है, जिनका चिरकाल तक परीक्षण होता रहा है।

‘योग विज्ञान’ वह विज्ञान है- जो मानवी काया में विद्यमान चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व है और उसे उसी स्तर के उपचारों से प्रभावित परिष्कृत करने के लिए साधना विधान की उपयोगिता स्वीकार करता है। योग शब्द इन दिनों डरावना इसलिए बन गया है कि उसके प्रयोक्ता असामान्य और असामाजिक जीवन-क्रम अपना कर चलते दिखते हैं। सामान्य बुद्धि सोचती है इस पद्धति को अपनाने पर तो लोकप्रवाह से कट कर अलग-थलग रहना पड़ेगा और सहज जीवनचर्या से विरत होना पड़ेगा। इस शर्त पर ‘योगी’ बनना किसी को स्वीकार नहीं। यही कारण है योग की चर्चा तो आकर्षक लगती है, पर उस मार्ग पर चलने की हिम्मत पड़ना तो दूर इच्छा तक नहीं होती। यही कारण है कि योगाभ्यास जन-जीवन से दूर हटता चला गया और इस महान विज्ञान के लाभ से जन-साधारण को वंचित रहना पड़ा। तथ्यों को समझा या समझाया जा सके तो शरीर पोषण एवं उपचार को जिस प्रकार आवश्यक समझा जाता है। उसी प्रकार मानसोपचार जैसी महान उपलब्धि के लिए योगाभ्यास के लिए जन-जीवन में उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है। वस्तुतः ‘योग’ ऐसा मानसोपचार भर है जो शरीर और अन्तःकरण की सिद्धियाँ भी मानसिक आरोग्य के साथ-साथ ही उत्पन्न करता चलता है।


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