पुस्तकों की उपेक्षा मत कीजिए

February 1981

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पुस्तकों के संबंध में लोगों की धारणा प्रायः बहुत ही निराशाजनक और उपेक्षापूर्ण-सी होती है। वे समझते हैं कि इनकी जीवन में कोई उपयोगिता नहीं होती। इसीलिए साधारण जन पुस्तकों के प्रति कोई रुचि नहीं दर्शाते। थोड़े बहुत लोग जो पुस्तकें खरीदते और पढ़ते हैं वे भी मात्र मनोरंजन के लिए। इसीलिए बाजार में मनोरंजन करने वाली, समय-काटु पुस्तकें बहुतायत से उपलब्ध हैं। जबकि पुस्तकों का उद्देश्य मनुष्य के जीवन को दिशा देना तथा समाज के नव-निर्माण की, मनुष्यता के उत्थान की प्रेरणा देना है। साहित्य की कसौटी निर्धारित करते हुए मुंशी प्रेमचंद्र ने लिखा है, “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो तथा जो हममें गति संघर्ष और बेचैनी पैदा करे। हमें सुलाए नहीं बल्कि जगाए और जगाकर, उठने, उठकर आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करे।’’

संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनके निर्माण में उत्कृष्ट पुस्तकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। रूसी भाषा के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार मैक्सिस गोर्की ने अपने निबंध पुस्तक ‘मेरी मार्ग-दर्शिका’ में लिखा है, “जब मैं तरुण था तब मैं बालजक और डिकेंस की लिखी पुस्तकें बड़े चाव से पढ़ता था। इन पुस्तकों के द्वारा मेरा परिचय उन लोगों से हुआ जिनकी दुख-सुख की समस्याएं हमसे भिन्न है। मेरे चारों ओर जो लोग रहते थे, वे निम्न स्तर का जीवन बिताते थे। इन्हीं लोगों के बीच मेरा जीवन संघर्ष आरम्भ हुआ। बालजक और डिकेंस के ग्रन्थ पढ़ने के बाद मेरे भीतर आकाँक्षा जागृत हुई कि मैं उठ पड़ूं और संघर्ष करूं। मुझे एकदम चकित कर देने वाली कृति थी बालक की “लापोद शौग्रिना”। इसमें एक महाजन के घर का वर्णन है। लगभग दो दर्जन व्यक्ति एक साथ बोलते हैं और शोर मचाते हैं। पुस्तक में उन सबका इतना सजीव चित्रण है कि मैं उनकी बात को न केवल सुनता ही था, बल्कि वे सब मुझे दिखाई देते थे। उनकी आंखें, उनकी मुस्कुराहट, भंगिमाएं आदि सब कुछ, जबकि बालजक ने उनकी शक्लों का कोई वर्णन नहीं किया था। इस पुस्तक से मुझे बड़ी प्रेरणा मिली।

गोर्की ने इन पंक्तियों में पुस्तकों के माध्यम से सजीव प्रेरणाएं मिलने की बात तो लिखी है, यह भी बताया है कि पुस्तकें किस प्रकार पढ़ी जानी चाहिए? अर्थात् पुस्तकें पढ़ते समय उनमें इतना तन्मय डूब जाना चाहिए कि कथ्य अपने आप बोलने लगे। गोर्की ने स्वयं स्वीकार किया है कि उनके निर्माण में पुस्तकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पुस्तकों का महत्व दर्शाते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार ‘रामप्रताप त्रिपाठी’ ने लिखा है, “पुस्तकें जागृत देवता हैं। उनकी सेवा करके तत्काल वरदान प्राप्त किया जा सकता है। लोकमान्य तिलक कहा करते थे कि, “पुराने कपड़े पहन कर नई पुस्तकें खरीदा कीजिए।’ महात्मा गाँधी ने पुस्तकों का महत्व दर्शाते हुए लिखा है, ‘अच्छी पुस्तकों के पास होने से भले मित्रों के साथ रहने की कमी नहीं खटकती। जितना ही मैं पुस्तकों का अध्ययन करता गया मुझे उनकी खूबियाँ उतनी ही अधिक मालूम होती गई।”

गीता, रामायण, बाइबिल और कुरान का लाखों लोग नित्य पाठ करते हैं, उनसे जीवन के लिए उपयोगी प्रेरणाएं प्राप्त करते हैं। जान रस्किन बाइबिल के एक प्रसंग से इतने अधिक प्रभावित हुए थे कि उसके निहित सिद्धाँत विशेष के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिख डाली ‘अन टू द लास्ट’ महात्मा गाँधी ने इसी पुस्तक से सर्वोदय की प्रेरणा प्राप्त की थी। ‘अन टू द लास्ट’ पुस्तक ने अर्थशास्त्र के प्रचलित घिसे-पिटे नियमों को ऐसा झिंझोड़ दिया कि उनमें परिवर्तन करना ही पड़ा। इसके पहले आमतौर पर अर्थशास्त्री यह दलील देते थे कि अगर निरक्षर श्रमिकों को आवश्यकता से अधिक वेतन दिया जाये तो या वो शराब पी जायेंगे अथवा बुरे काम करेंगे क्योंकि उनका आचार, व्यवहार, सुसंस्कृत नहीं होता। रस्किन ने अपनी पुस्तक के माध्यम से सवाल उठाया था कि उन्हें असंस्कृत रखने के लिए जिम्मेदार कौन है? इस प्रश्न के साथ उन्होंने तथाकथित सुसंस्कृत लोगों की भ्रान्त धारणाओं को झखझोरा और उन्हें अनुभव कराया कि निरक्षर तथा निम्न वर्ग के लोगों के प्रति उनका व्यवहार न केवल अमानवीय है वरन् नृशंस और पाशविक भी है।

टालस्टाय की पुस्तक ‘किंगडम आफ गार्ड’ ने भी महात्मा गाँधी को प्रभावित किया और इन दोनों पुस्तकों से उन्हें ऐसी प्रेरणाएं मिली कि वे आजीवन शोषण और अन्याय के विरुद्ध लड़ते रहे। गाँधीजी से प्रेरणा लेकर ही अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जीवन भर रंगभेद नीति के विरुद्ध संघर्षरत रहे।

महात्मा गाँधी के संबंध में सर्वविदित है कि उन्होंने बचपन में सत्यवादी हरिश्चन्द्र नाटक पढ़ कर ही जीवन भर सत्य बोलने तथा सत्य का पक्ष लेने का संकल्प लिया था। गीता, रामायण पढ़कर उनके मन में अन्याय के विरुद्ध लड़ने की आकाँक्षा उमंग जागी थी और आजीवन वे अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। योगी अरविन्द कहा करते थे कि जब-जब भी मेरे सामने कोई मानसिक या आध्यात्मिक उलझन आती है तब-तब मैं भगवद्गीता की शरण लेता हूँ और उसका कोई न कोई श्लोक मेरी समस्याओं का समाधान सुझा देता है। लोकमान्य तिलक द्वारा लिखे गये गीता रहस्य ग्रन्थ से सैकड़ों व्यक्तियों ने प्रेरणा प्राप्त की थी और स्वतन्त्रता आँदोलन में कूद पड़े थे। इतना ही नहीं हंसते-हंसते फाँसी के फन्दे पर चढ़ गये थे।

डा. अर्नाल्ड की पुस्तक ‘लाइट ऑफ एशिया’ ने पं. नेहरू को इतना प्रभावित किया था कि वे उनके व्यक्तित्व पर जीवन भर बुद्ध धर्म के सिद्धान्तों का प्रभाव पड़ा। उल्लेखनीय है ‘लाइट आफ एशिया’ पुस्तक में भगवान बुद्ध का ही जीवन चरित्र लिखा गया है।

व्यक्तियों के निर्माण में ही नहीं समाज के निर्माण में भी पुस्तकों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। अब से 300 वर्ष पूर्व प्लेटो द्वारा लिखित पुस्तक ‘रिपब्लिक’ ने फ्राँसीसी राज्य क्रान्ति के बाद विश्व को एक ऐसी दिशा दी कि आज समूचा संसार प्रजाताँत्रिक शासन प्रणाली अपनाये हुये है। यद्यपि कई देशों में अधिनायकवादी, तानाशाही और एक तन्त्र पद्धति का शासन भी है, परन्तु वे भी अपने आपको प्रजातान्त्रिक कहलाना ही पसंद करते हैं।

प्रशिया में जन्मे मार्क्स ने लंदन में फटेहाल स्थिति में रहते हुए ‘कैपिटल’ पुस्तक लिखी। उसमें प्रतिपादित सिद्धान्तों को सर्वप्रथम कार्यान्वित किया लेनिन में और रूस में साम्यवाद आया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जब प्रथम बार समाजवाद में समता की बात सुनी तो उस पर खुशी प्रकट करते हुए उन्होंने इसे एक कल्पना और स्वप्न ही बताया। यह उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों की बात है। सन् 1930 के प्रारम्भ में जब वे रूस गये तो वहाँ की समाज व्यवस्था से वे इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने लिखा, इस देश की यात्रा किये बिना मेरी जीवन यात्रा ही अधूरी रह जाती। वहाँ की समाज व्यवस्था से प्रभावित होकर उन्होंने बंगला भाषा में एक रचना लिखी ‘द सेट चिट्ठी’। जैसे ही इसका अंग्रेजी अनुवाद हुआ तो अंग्रेजी सरकार ने इसे तुरन्त जब्त कर लिया।

इस प्रकार ढेरों पुस्तकें हैं जिन्होंने व्यक्ति और समाज को प्रभावित किया। व्यक्ति को प्रभावित कर जहाँ इन पुस्तकों ने साधारण मनुष्य से महामानव स्तर का बना दिया, वहाँ सामाजिक उत्थान की दिशा में भी आधार स्तम्भ सिद्ध हुई हैं।

संसार के सर्वश्रेष्ठ तत्व विचार शक्ति को जिसे ज्ञान भी कहा जा सकता है, प्राप्त करने और प्रगति की दिशा में अग्रसर होने का एक ही उपाय है स्वाध्याय। इसीलिए शास्त्रकारों ने ‘स्वाध्याय या प्रमदतिव्यय’ तथा ‘अहरह स्वाध्याय में ध्येतव्य’ अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद न करो और दिन रात स्वाध्याय में लगे रहो का निर्देश दिया।

स्वाध्याय से तात्पर्य विचारपूर्ण साहित्य के नित्य अध्ययन से है। हमें ऐसा साहित्य निरन्तर पढ़ते रहना चाहिए जिससे अपनी विचार और विवेक शक्ति जागृत हो। जिन लोगों को पढ़ने की बिल्कुल भी आदत नहीं है उन्हें भी पुस्तकों का महत्व समझकर उनके अध्ययन, मनन, चिन्तन का क्रम आरम्भ करना चाहिए।


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