समस्त जड़-चेतन पर उच्चस्तरीय सत्ता का अनुशासन

February 1981

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दार्शनिक स्पिनोज कहते थे- तथ्यों तक पहुँचने के लिए तर्क ही एकमात्र आधार नहीं है। उसके अतिरिक्त भी अन्य माध्यम हैं जिनके आधार पर मनुष्य की गरिमा टिकी हुई है। अन्तः प्रेरणाओं और आत्मानुभूतियों की सत्ता ऐसी ही है जो आमतौर से तर्कों का समर्थन नहीं करती अथवा जिनका समर्थन तर्क से नहीं किया जा सकता।

मनुष्य और मनुष्य के बीच पाई जाने वाली उदार आत्मीयता, मैत्री, सहानुभूति एवं सेवा सहकारिता को एक सीमा तक ही तर्क संगत ठहराया जा सकता है। उस सीमा तक जहाँ आदान-प्रदान में लाभदायक परिणाम की आशा अपेक्षा की जाती है। जहाँ इस कसौटी पर मैत्री खोटी सिद्ध होती है वहाँ तर्क तुरन्त पीछे हटने या उपेक्षा बरतने का सुझाव देता है। तर्क बुद्धि पर निर्धारित है और बुद्धि भौतिक स्वार्थों का प्रतिनिधित्व करती है। दीन-दुखियों की सेवा, सहायता करने में जो समय, श्रम एवं मनोयोग लगता है उसे तर्क संगत नहीं ठहराया जा सकता। भावनाएं तर्क से ऊपर हैं उन्हीं के दबाव से परमार्थ की बात सोची जा सकती है और उसे चरितार्थ करने की हिम्मत जुटाई जा सकती है।

जिस तर्क के आधार पर बूढ़े बैल को कसाई के हाथ बेचकर चारे की, जगह की बचत की जाती है उसी आधार पर घर के वयोवृद्धों को मौत के घाट उतारा जाना चाहिए। यदि वे जीवित हैं और अशक्त होते हुये भी सेवा, सम्मान का लाभ लेते हैं तो यह तर्क का अनुग्रह नहीं भावनाओं की अनुकम्पा है।

दार्शनिक किर्केगार्ड कहते थे- तर्क से न आत्मा सिद्ध होती है और न परमात्मा का अस्तित्व प्रमाणित किया जा सकता है इतने पर भी उन्हें अस्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि अन्तराल की गहराई में जमी हुई आस्थाएं उनकी सत्ता को सदा स्वीकार करती हैं। गलत काम करने पर भीतर से कोई प्रेरणा ऐसी उठती है कि लाभ दिखते हुये भी उसे नहीं किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में तर्क से कोई सहायता नहीं मिल सकती। स्वार्थ के लिए अन्य प्राणी बिना उचित-अनुचित के झंझट में पड़े, कुछ भी कहते रहते हैं तो मनुष्य ही उसका अपवाद क्यों होना चाहिए? उसी को गलत कामों के करते हुए अंतर्द्वंद्व क्यों उठाना चाहिए? इससे प्रतीत होता है कि भाव सम्वेदनाओं की अपनी सत्ता है और वे तर्क संगत न होते हुये भी अपना काम करती और प्रभाव दिखाती हैं।

बच्चों को पालने में कष्ट उठाने और उन्हें दुलार देने का तर्क संगत कोई आधार नहीं। जिनसे प्रतिदान न मिले उनकी क्यों सेवा, सहायता की जाय? प्रेम के बदले प्रेम की बात तो समझी जा सकती है, पर जिस नवजात शिशु में अभी भावना का विकास तक नहीं हुआ है, उससे प्रतिदान की आशा कैसे रखी जाय? बड़ी होने पर लड़कियां ससुराल चली जाती हैं और लड़कों में से भी अधिकाँश घाटे के सौदे सिद्ध होते हैं। यह सब कुछ जानते हुए अभिभावकों द्वारा विशेषतया माता द्वारा उन्हें जो उदार स्नेह सहयोग मिलता है, उसके पीछे कोई बुद्धि संगत तर्क प्रस्तुत कर सकना कठिन है।

विवाह के पक्ष में पुरुषों के पास तर्क हो सकते हैं। उन्हें पत्नी से कई प्रकार के लाभ सस्ते मोल में मिलते हैं। किन्तु पत्नी को तो हर दृष्टि से घाटा ही घाटा है। उसे देना अधिक पड़ता है और मिलता कम है। ऐसी दशा में वह क्यों विवाह बंधन स्वीकार करे? यही बात गर्भ धारण के सम्बन्ध में भी है। प्रजनन कर्म में नारी को हर दृष्टि से घाटा ही घाटा है। फिर वह उसे क्यों स्वीकार करे? यहाँ तर्क मौन हो जाता है और भावनाएं अपनी सामर्थ्य का परिचय देती हैं। दाम्पत्य जीवन अपनाने और गर्भधारण करने में नारी को उत्साह ही रहता है और संतोष भी। जबकि तर्क की दृष्टि से उसे इन दोनों ही जिम्मेदारियों से बचकर चैन में रहना चाहिए।

देशभक्ति, परमार्थ, धर्म, धारणा, तपश्चर्या, संयम, दान, सेवा जैसे उत्कृष्ट आदर्शों का समर्थन तर्क नहीं भावनाओं द्वारा ही होता है। त्याग, बलिदान की उमंगें तर्क संगत नहीं ठहरतीं। उन्हें उस मार्ग पर बुद्धिवादी नहीं भावनाशील ही बढ़ाते हैं। दूरदर्शिता अपनाने वाला विवेक तर्कों को तोड़ता है। उसे उदात्त आस्था और भाव श्रद्धा का ही समर्थन मिलता है। यह समर्थन कभी-कभी इतना प्रबल होता है कि सदुद्देश्यों के लिए कई बार लोग बड़े-से-बड़े यहाँ तक कि सर्वस्वदान, पूर्णाहुति तक देते पाये जाते हैं। इस प्रकार की साहसिकता में तर्क तो प्रायः असहमत ही रहते हैं।

अरस्तु अपने शिष्यों से कहा करते थे- “तुम देख सकते हो कि सज्जनों की तुलना में दुष्ट नफे में रहते और मौज उड़ाते हैं। इतने पर भी सज्जनता मरती नहीं। लोग घाटे में रहकर भी उसे अपनाये रहते हैं। ऐसा क्यों? इसका उत्तर एक ही है आत्मा के प्रतिपादन इतने प्रबल होते हैं कि तर्कों और प्रमाणों को अस्वीकृत करते हुए भी घाटा सहने पर आरूढ़ बने रहे। यह मनुष्य की उन आस्थाओं का प्रभाव है जिन्हें आत्मा का आधार भूत गुण कह सकते हैं।

कान्ट ने आत्मा की अमरता का एक प्रमाण यह प्रस्तुत किया है कि- ‘‘लोग मरते समय तक अपना प्रयास पुरुषार्थ नहीं छोड़ते। जबकि जीवन का अन्त समय देखकर उन्हें बचे हुए समय में मौज के दिन गुजारने तथा झंझटों से दूर रहने की बात सोचनी चाहिए थी। होता इसके ठीक विपरीत है, अन्तिम दिनों आवश्यक एवं महत्वपूर्ण कामों को अधिक तत्परता से करने और जल्दी निपटाने की बात ध्यान में बनी रहती है। इसका कारण अन्तःकरण की वह आस्था है जिसमें उसे जीवन-क्रम भविष्य में भी चलते रहने का अटूट विश्वास होता है। यदि मरण के साथ अन्त निश्चित होता तो लोग निराश पाये जाते और संग्रह के स्थान पर बर्बादी की बात सोचते।’’

“क्रिटिक आव प्रेक्टिकल रीजन” के अनुसार विश्व का प्रत्येक घटक सुनियोजित ढंग से बना है। उसके पीछे पूर्ण परसंगतियाँ हैं और अस्तित्व की रक्षा से लेकर प्रगति करने एवं अनुपयुक्त परिस्थितियाँ आने पर तद्नुरूप ढलने, बदलने की समस्त सम्भावनाएं विद्यमान हैं। हर चीज सुन्दर डिजाइन और उपयुक्त साधन सामग्री से बनी है। ऐसा न तो अपने आप हो सकता है और न अपने आप अनगढ़ रूप से संयोगवश वैसा हो सकता है। जड़ पदार्थ भावना या बुद्धियुक्त है या नहीं इस संबंध में असमंजस हो सकता है, पर इसमें सन्देह नहीं कि उन्हें बनाया विवेकवान, दूरदर्शी एवं अपने विषय की प्रवीण पारंगत सत्ता ने ही है। भले ही उसका नाम ईश्वर रखा जाय अथवा कुछ और।

कान्ट के ‘क्रिटिक आव जजमेन्ट’ ग्रन्थ में अपनाई गई दार्शनिकता ने सिद्ध किया है कि तर्क से जो बातें सिद्ध न हो सके उन्हें अप्रामाणिक मान बैठना भूल है। तर्क मनुष्य की बौद्धिक क्षमता के अनुसार बढ़ती और बदलती चली आई है। प्रगति पथ पर चलते हुए मनुष्य ने अपनी मान्यताओं और दलीलों में आश्चर्यजनक परिवर्तन किये हैं। जो बातें कभी नितान्त सत्य समझी जाती थीं उन्हीं को पीछे नये तथ्यों ने अमान्य ठहरा दिया। इसका कारण यह था कि जिन प्रमाणों को आधार मानकर तर्क ने अपनी दिशा अपनाई थी वे जब नये प्रतिपादनों ने अमान्य ठहरा दिये तो तार्किकों को भी मैदान छोड़कर भागना और नया रास्ता अपनाना पड़ा। ऐसी दशा में तर्कों और उसके समर्थक तथ्यों पर भी उतना ही संदेह करने की गुंजाइश है जितना कि ईश्वर और आत्मा के संबंध में किया जाता है।

ह्वाइट हेड ने लिखा है- यदि कल्पना के आधार पर चेतन को जड़ ठहराया जा रहा है तो ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि उसी आधार पर जड़ में चेतन को ओत-प्रोत माना जाय। जब हर पदार्थ के अन्तराल और बाह्य क्षेत्र से सुनियोजित हलचलें चल रही हैं और उनमें से प्रत्येक घटक को एक कठोर अनुशासन के अंतर्गत अपना निर्वाह करना पड़ रहा है तो इस चेतना की सत्ता मानने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए।

धर्म का आधार तर्क नहीं नैतिकता है। नैतिकता आत्मा की मूलभूत प्रकृति है। उसे सिद्ध करने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं। सच तो यह है कि तर्कों को इस आधार पर मान्यता मिलेगी कि वे नीति समर्थक हैं या नहीं। चोरी या छल करने में कितनी ही दलीलें क्यों न दी जाय। समर्थ लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कितने ही हतप्रभ करने वाले कारण क्यों न प्रस्तुत करते रहें, वे मान्यता प्राप्त न कर सकेंगे। अनाचारी लोग अपनी गतिविधियों का औचित्य बताने के लिए बहुत कुछ कहते रहते हैं। फिर भी उन्हें सुनने और कहने वाले उस प्रतिपादन को ‘तर्क के लिए तर्क’ मानते और अस्वीकृत करते रहते हैं।

माता और पुत्री से विवाह उन समाजों में भी प्रचलित नहीं है जिन्हें नितान्त अनगढ़ और आदिम सभ्यता के अनुचर कहा जाता है। नीति मर्यादाओं को काटने के लिए इतने तर्क दिये जा सकते हैं कि पूरे सामाजिक ढांचे और सभ्यता प्रचलन को अस्वीकृत किया जा सके। अनास्थावादियों का अपना सम्प्रदाय है। फिर भी उनमें कुछ न कुछ मर्यादाएं बनी ही रहती हैं। कोई चाहे तो यह पूछ सकता है कि जब पूर्व प्रचलन अस्वीकृत किये गये तो नये नियमों को क्यों अपनाया गया? बात फिर घूम फिर कर वहाँ आ जाती है जहाँ उपयोगिता और आवश्यकता से भी बढ़ कर नैतिकता के कुछ आदर्शवादी नियमों को मान्यता देनी पड़ती है। यही है कि तर्क की तुलना में नीति की वरिष्ठता। जिसे सहज ही झुठलाया नहीं जा सकता।

स्पिनोजा का वह प्रतिपादन सारगर्भित है जिसमें वे कहते हैं कि- जो कुछ भी दृष्टव्य और अनुभव गम्य है उसमें से प्रत्येक इकाई अपने आप में एक एवं समग्र है। इतना ही नहीं वह किसी समर्थ केन्द्र के साथ बंधी है। बंधी का तात्पर्य है कि सामर्थ्य पाना और अनुशासन मानना। वृहदाकार ग्रह पिण्डों से लेकर अणु-परमाणुओं तक में यही क्रम समान रूप से चलता है। प्राणियों की काया भी इसी नियम के अंतर्गत जीवन-यापन करती है। अपने इस प्रतिपादन के पक्ष में स्पिनोजा अनेकानेक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं इस पूर्णता, सूत्रबद्धता, सुव्यवस्था का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उससे कहीं कोई भी बचा हुआ नहीं है। इस अनुशासन को ईश्वर न सही कुछ और कहा जाय, पर वह है अवश्य।

वर्कले ने एक जगह कहा है- दर्शन और विज्ञान सिर्फ इतना कहते हैं कि ईश्वर और आत्मा को सिद्ध करने के लिए हमारे पास उपयुक्त प्रमाणों का अभाव है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे अमान्य ठहरा दिया गया या कोई तार्किक विरोध खड़ा किया गया है। विरोध करने जैसा किसी तार्किक या विज्ञानी के पास कुछ भी नहीं है। ऐसी दशा में यह भी कहा जा सकता है कि- ‘तार्किक दृष्टि से जो असम्भव नहीं है, उसकी सत्ता हो सकती है। यह केवल असमंजस का प्रकटीकरण है। अस्वीकरण या विरोध नहीं।

विकासवाद की मान्यता है कि- ‘भौतिकी में जो वस्तु ‘क्रिया-शक्ति है’ वही जीवित प्राणियों में भावनात्मक प्रबलता। वही अपने-अपने क्षेत्रों में क्रमिक विकास की लम्बी मंजिल पर चलते हुए आज की स्थिति तक पहुँची है।’

इसी प्रतिपादन की दूसरी तरह भी व्याख्या हो सकती है कि किसी विकासशील प्रेरणा ने पदार्थों और प्राणियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा और परिस्थितियाँ प्रदान की हैं। विकासवाद के वर्तमान प्रतिपादनों को प्रचलित नास्तिकतावादी व्याख्या ही मान्यता प्राप्त करे यह आवश्यक नहीं।

अब उस तथ्य को अधिक अच्छी तरह समझा और स्वीकारा जा रहा है जिसके अनुसार इस सृष्टि के समस्त परिकर परस्पर सघन बनकर रह रहे हैं और सुसम्बद्ध रूप से पूरक बने हुए हैं। ‘इकालॉजी’ अन्वेषण से सृष्टि के हर क्षेत्र में पारस्परिक तारतम्य और तालमेल पाया गया है। इस विश्व ब्रह्मांड के सभी घटक अपने सजातियों के साथ तो आदान-प्रदान रखते ही हैं। विजातियों के साथ भी लेने देने का क्रम चलाते और अस्तित्व रक्षा से लेकर विश्व व्यवस्था में योगदान करते हैं।

तर्क से आत्मा, परमात्मा, नीतिसत्ता और उत्कृष्टता का कहाँ तक समर्थन होता है इसमें अभी भी असमंजस है, पर अब यह प्रतिपादन असंदिग्ध बनता जा रहा है कि तर्क और तथ्यों से भी ऊपर एक उच्चस्तरीय विधान एवं अनुशासन की सत्ता है। उस सत्ता में ही हम सब सूत्र में पिरोई हुई माला की तरह एकीभूत हो रहे हैं।


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