परिष्कृत जीवन प्रत्यक्ष कल्प वूक्ष है। इस उपहार को मनुष्य के हवाले करने के उपरान्त सृष्ठा ने उस पर यह उत्तरदायित्व भी छोड़ा है कि वह उसकी गरिमा को समझें और बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहे।
साधना से सिद्धी का सिद्धान्त सर्वविदित है। पर साधना किसकी ? सह समझने में प्रायः भूल होती रहती है। जिस देवता की आराधना से अभीष्ट की उपलब्धि होती है वह जीवन के अतिरिक्त दूसरा और कोई नहीं हो सकता।
उपसाय निर्धारण में दृष्टि भेद हो सकता है, पर उपासना के तत्व ज्ञान को समझा जाय तो उसमें सार तत्व इतना ही है। आत्म परिष्कार का हर सम्भव उपाय अपनाया जाय। इस पुरुषार्थ में जो जितनी प्रगति करता है उस पर उपसाय का अनुग्रह उसी अनुपात से बरसता है। उपसाय का बाह्य कलेवर कुछ भी क्यों न हो उसकी आत्मा साधक की आत्मा में ही घुली रहती है।
साधना किस की ? उत्तर एक ही है-आत्म सत्त की। अपने को परिष्कृत करने पर ही कोई पदार्थों और परिस्थितियों का लाभ उठा सकता है। कुशल माली ही उद्यान को सुरभ्य बनाता और यशस्वी होता है। जीवन-परिष्कार के लिए की गई साधना उन समस्त सफलताओं समेत उपस्थित होती है, जिन्हें ऋद्धि-सिद्धियों के आकर्षक एवं अलंकारिक नामों से जाना जाता है ।
इस तथ्य को समझा ही जाना चाहिए कि सुसंस्कृत जीवन का ही दूसरा नाम कल्पवृक्ष है जिसने उसे प्राप्त कर लिया उसके लिए किसी भी अभीष्ट को प्राप्त कर सकना कठिन नहीं रहता ।