सीस दीयो जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान

September 1980

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गुरु शब्द का सामान्य अर्थ शिक्षक से लिया जाता है। शिक्षक अर्थात् साक्षरता का अभ्यास कराने वाला, शिल्प-उद्योग, कला-व्यायाम आदि क्रिया कौशलों की शिक्षा देने वाला। इसे अध्यापक वर्ग में रखा जा सकता है। वर्ग के अतिरिक्त भी गुरु की और कितनी ही श्रेणियाँ हैं। तीर्थ गुरु, ग्राम गुरु, कलगुरु आदि कितने ही गुरुओं के वर्ग बन गए हैं। असाधारण रुप् से चतुर और अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल व्यक्तियों को भी व्यंग से गुरु कहा जाता है। इसका अर्थ होता है तिगड़मबाज अथवा धूर्तराज। कितने ही लोग धर्म की ओट में चेली-चेला बनाने और उनकी जेब हल्की कराने का गुरुक्रम भी चलाते हैं, उन्हें भी गुरु कहते हैं। परम्परा से गुरु बनाने का भी प्रचलन है। हमारा पिता तुम्हारे पिता का गुरु थाख् इसलिए हम भी तुम्हारे गुरु बनेंगे, यह दावा करने वाले और इस तर्क से दूसरों को प्रभावित करने वालों का भी एक बड़ा वर्ग है। परम्परा वादी लागों के गले यह दलील आसानी से उतर भी जाती है और वे योग्य-अयोग्य का विचार किये बिना इन तथाकथित गुरुओं को नमन करते हुए उनकी भेंट-पूजा और नमन वन्दन करते रहते हैं।

ग्ले में कण्ठी बँधाए और कान फुकाए तो आजवन कुछ न कुछ दान-दक्षिणा देती ही रहनी पड़ती है। हालाँकि इससे कोई लाभ नहीं है, परन्तु शिष्य वर्ग इससे एक प्रकार का धर्म सन्तोष कर लेते हैं, भले ही वह निराधार हो। गुरु लोग इस बिडम्बना को को मुफ्त में मान और धन प्राप्त करते रहने का एक र्स्वण सुयोग समझ कर अपने सौभग्य पर गर्व करते रहते हैं। कोई भी क्षेत्र क्यों न हो उसमें यह मानसिक जड़ता आसानी से अपने पैर जमाये आसानी से देखी जा सकती है। ऐसे लोगों में शास्त्राो में वर्णित गुरु की महिमा के आधार पर अपनी जड़ें जमाने का अवसर मिल जाता है। पिनश्चित ही गुरु की महिमा गाते-गाते शास्त्राकार थकते नहीं। मनीषियों ने निरन्तर यही कहा है कि आत्मिक प्रगति के लिए गुरु की सहायता अनिवार्य रुप से आवश्यक है। इसके बिना आत्म-कल्याण का द्वार नहीं खुलता, साधना सफल नहीं होती। शास्त्राकारों ने सामान्य जीवनं क्रम में माता, पिता और गुरु को देव माना है तथा जीवन भर उनकी अर्भ्यथना करते रहने का निर्देश दिया है। परन्तु ऊपर जिस गुरुवाद की चर्चा की गई है वह भिन्न बात है और इसे गुरुवाद ही कहा जा सकता है।

इस गुरुवाद के चलते रहने और सद्गुरु प्राप्त करने के सौभग्य से वंचित रह जाने का कारण है। लागों की बुद्धि विलक्षण है। एक ओर यहाँ-वहाँ फूँक-फूँककर कदम रखने और गुण दोष परखने की क्षमता उनमें पाई जाती है वहीं दूसरी परम्परागत बातों में उनका मानस इतना रुढ़िवादी हो जाता है कि ढर्रे को ही सही मानने के अतिरिक्त उनकी बौद्धिक क्षमता एक इन्च भी आगे नहीं बढ़ती । विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिभाशाली और अपने विषय के अधिकारी व्यक्तियों को ऐसी रुढ़ियों एवं मान्यताओं से जकड़े देखा जा सकता है जिन्हें तात्विक दृष्टि से देखने पर उपहासास्पद और रिर्थक ही ठहराया जा सकता है। इतने पर भी ये लोग इन मान्यताओं को यथार्थता की कसौटी पर कस कर ही अधिकार किया हो।

यह कैसी विचित्र बिडम्बना है कि एक ही व्यक्ति एक ही दिशा में प्रखर बुद्धि और दूसरे क्षेत्र में सर्वथा मूढ़मति सिद्ध होता है। प्रचलित गुरुडम या गुरुवाद की परम्परा पर यह बात आर्श्चयजनक रुप से लागू होती है। कोई विरला व्यक्ति ही ऐसा होगा जो इस क्षेत्र में उपयोगिता, आवश्यकता एवं यथार्थता की कसौटी को लेकर आगे बढ़ता हो । अन्यथा अधिकाँश तो अनुकरण, अनिशयोक्ति, मूढ़ मान्यताओं एवं अन्ध परम्पराओं के वशीभूत होकर इस क्षेत्र में दिग्भ्राँत होकर भटकते हैं। गुरु शिष्य परम्परा का वर्तमान रुप जैसा बन गया है, उसे न तो वाँछनीय कहा जा सकता है और नहीं उचित। इस रुढ़िगत परम्परा के कारण आत्मिक प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही हुआ है। शास्त्राकारों ने जिस गुरुतत्व की महिमा का वर्णन किया है। उसका प्रचलित बिडम्बना के साथ कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। शब्द सम्मिश्रण उनमें है और इसी साम्य के कारण यह बिड़म्बना है अन्यथा वर्तमान स्थिति और वस्तुस्थिति में तो जमीन आसमान का अन्तर है।

शास्त्र सम्मत गुरुतत्व और बिडम्बनाग्रस्त गुरुवाद एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। जिस सद्गुरु का महात्मय शास्त्राकारों ने बताया हैं वह वस्तुतः मानवी अन्तःकरण ही है। निरन्तर सत् शिक्षण और ऊर्ध्वगमन का प्रकाश दे पाना इसी केन्द्र के लिए सम्भव है। बाहर के गुरु शिष्य की वास्तविक मनःस्थिति का स्वरुप परिचय ही प्राप्त कर सकते हैं और उनके अनुरुप आत्मिक प्रगति के लिए आँशिक सहयोग ही दे पाते हैं। अस्तु उनके परामर्श भी आधे-अधूरे ही हो सकते हैं। यह भी कटिनाई है कि बाहरी गुरु हर समय शिष्य के साथ नहीं रह सकता, जबकि उसके सामने पग-पग पर क्षण-क्षण में अगणित समस्याएँ और अनेकों कठिनाईयाँ आती रहती है। इनमें से किन कठिनाइयों और किन समस्याओं का किस प्रकार समाधान किया जाए ? इसके लिए व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, भले ही वह कितना ही सुयोग्य व्यक्ति उपलब्ध थे, वे अपने ज्ञान और अनुभव से हर किसी को उसकी स्थिति के अनुरुप मागर्ग्दशन दे सकते थे और उनका परामर्श भी ऐसा सरीक होता था कि वह जिसे दिया जाता था उसके लिए वास्तव में अन्धकार में प्रकाश की तरह सिद्ध होता था। लेकिन वह परामर्श सबके लिए एक समान नहीं होता था। व्यक्ति की स्थिति और मनःस्थिति के अनुरुप वह बदल जाता था। दूसरों की स्थिति में अन्तर रहने के कारण परामर्श का स्तर भी बदल जाता था। आज जबकि ऐसे योग्य गुरुओं का लगभग अभाव ही है, यह अन्तर कौन करे ? यह अन्तर कर सकने का सामर्थ्य ही कितनों में है ? आज तो असके लिए अपने अन्तःकरण में विराजमान परमात्मा की शरण में जाना और उसी से मार्गदर्शन ग्रहण करना एकमात्र समाधान है। क्योंकि आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों की वास्तविक जानकारी जितनी अपने आपको होती है उतनी और किसी के लिए सम्भव नहीं है।

अपनी परिस्थितियों के अनुरुप मार्ग खोज निकालना भी हर किसी के लिए संभव नहीं है। उसके लिए भी प्रखर मस्तिष्क, परिष्कृत अन्तःकरण और सुविकसित चेतना चाहिए। हर किसी में ये सब विशेषताएँ नहीं होती इसलिए ऐसे गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है जो व्यक्ति की आन्तरिक शक्ति को इतना सुविकसित करने में सहयोग हो सके। व्यक्ति विशेष को गुरु मानने, बनाने की आवश्यकता इसीलिए बताई गई है और ऐसे गुरु की उपलब्धि सीस दिये जाने पर भी सस्ती बताई गई है। इसका कुल कारण ही है कि इस स्तर का व्यक्ति गुरु भले ही थोडी सी सहायता करता हो, परन्तु वह साधक के लिए अमूल्य और प्राणदायी ही होता है। गुरु का कार्य केवल अपने अन्तःकरण में विराजमान सद्गुरु की पहचान करा देना, उसका भक्त और शिष्य बना देना भर से उसकी आवश्यकता पूरी हो जाती है। शास्त्रों ने जहाँ स्थान-स्थान पर गुरु की महिमा गाई है, उसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहकर उसका वन्दन किया है तथा उस पर बलिहारी जाने की बात कही गई है, वह इस उपकार की कृतज्ञता स्वरुप ही है कि गुरु भटकाव और भूलभुलैया में से निकाल कर साधक को सद्गुरु की शरण में जाने का मार्ग सुझाता है। वह न इस बात का आग्रह करता है कि उससे बंधा जाए और न ही प्रत्युपकार की-प्रतिदानकी-अपेक्षा रखता है। अस्तु किसी व्यक्ति का सद्गुरु कहना उसकी अहंकारिता का पोषण करना है। यात्रा पूरी करने के लिए काम तो अपने ही पैर आयेंगे, तैर कर नदी पार करने के लिए अपने ही हाथों से पानी काटना पड़ेगा उसके लिए रास्ता बताने वाले केवल मार्ग को इंगित ही कर सकते हैं। आत्मिक प्रगति भी सद्गुरु की शरण में जाने से ही संभव होती है। शरीरधारी गुरु उसकी शरण में पहुँचने के एि अपने ढ़ंग से आरम्भिक किन्तु महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न कर सकता है। इसलिए उनका पूजन वन्दन किया जाता है।

उस गुरु की शरण में जाने और गुरु दीक्षा ग्रहण करने का अर्थ यह व्रत धारण करना है कि हम अन्तरात्मा की प्रेरणा का अनुसरण करेंगें। यह व्रत धारण करने वाला व्यक्ति मानवोचित चिन्तन और कृर्तत्व से विरत नहीं हो सकता। जैसे ही अवाँछनीय चिन्तन मनःक्षेत्र में उभरता है। वैसे ही प्रतिरोधी देव तत्व उसके परिणाम के सम्बन्ध में सचेत करता है और भीतर ही भीतर अन्तर्द्वन्द्व उभरता है। यदि अन्तःचेतना को कुचल-कुचल कर मूर्छित न बनाया गया हो तो वह इतनी प्रखर होती है कि वह अचिन्त्य चिन्तन के प्रति विद्रोह खड़ा कर देती है और उन अवाँछनीयताओं के पैर उखाड़ कर ही दम लेती है। इसके विपरित यदि अपने अन्तःकरण को निरन्तर कुचलते रहा जाय, उसकी पुकार अनसुनी की जाती रहे तो स्वभाविक है उससे आत्मा की आवाज मन्द पड़ती है और पग-पग पर आवश्यक प्रकाया देने का उसका क्रम शिथिल हो जाता है। आत्मा की अवज्ञा करते रहने वालों को ही दुर्बुद्विग्रस्त और कुकर्मों में लिप्त पाया जाता है, अन्यथा जीवन्त आत्मा की प्रेरणा सामान्य स्थिति में इतनी प्रखर होती है कि उस स्थिति में मनुष्य के लिए कुमार्ग का अनुसरण कर पाना सम्भव ही नहीं होता। यह आत्मिक प्रखरता ही वस्तुतः सद्गुरु है। गुरु भक्ति इसी का नमन, पूजन और परिपोषण करने का नाम है।

सद्गुरु की शरण में जाने के बाद, अन्तरात्मा की प्ररणा का अनुसरण आरम्भ करने के बाद कदाचित किसी कुकर्म में लिप्त होने की स्थिति आती है तो उस दशा में अन्तरंग में विराजमान दिव्य चेतना का विद्रोह देखते ही बनता है। पैर काँपते हैं, दिल धड़कता है, गला सूखता है, सिर चकराने लगता है तथा और भी न जाने क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं। सरलतापूर्वक कुकर्मों को देखने के लिए कदम बढ़ जाने पर भीतरी स्थिति ठीक वैसी ही हो जाती है- जैसी कि किसी निरीह पशु को वध के लिए खड़ा करते समय कातर स्थिति में देखा जा रहा हो। कई सामान्य व्यक्तियों की आन्तरिक स्थिति भी ऐसी ही हो जाती है कि वे उस अवाँछनीय कार्य को पूरा नहीं कर पाते, उस काम का विचार अधूरा छोड़कर अथवा असफल होकर वाचस लौट आते हैं। यह असफलता या पराजय वस्तुतः उस अन्तर्द्वन्द्व का ही परिणाम होता है जो कुकृत्य करने और न करने के पक्ष में विवद की तरह भीतर ही भीतर उठता, उफनता और उमड़ता रहता है। सद्गुरु छूबते हुए को बारते हैं, यह उक्ति ऐसे अवसरों के लिए पूरी तरह लागू होती है।

इसीलिए जिन्हें हर कर्म करने होते हैं वे उसके लिए प्रायः गहरा नशा कर लेते हैं ताकि उस कुकृत्य को करने में अन्तःचेतना के प्रबल प्रतिरोध का सामना न करना पड़े। अन्तःचेतना की पुकार निरस्त करने, अनसुनी कर देने में नशा शैतान के प्रमुख अस्त्र का काम करता है। जो हो, अन्तरात्मा को कुचलते जाने अपने आपको सर्वतोमुखी पतन के गंत में धकेल कर आत्म-हत्या का ही उपक्रम किया जाता है। विष खाकर, आग लगाकर, रेल से कटकर, पानी में डूबकर तथा और तरीके अपनाकर तो केवल शरीर की ही हत्या की जाती है, अन्तरात्मा को कुचलना ही आत्महत्या का घोर अपराध करना है क्योंकि उसकी पुकार को अनसुनी करते रहने से ही उज्जवल भविष्य अन्धकारमय बनता है और आन्तरिक स्थिति क्षीणतम तथा दीन-दुर्बल बनती जाती है।

इसलिए जिन्हें आत्मिक प्रगित का लक्ष्य प्राप्त करना हो, अपनी अन्तःस्थिति को ऊंचा उठाना हो उनके लिए सद्गुरु की शरण में जाए बिना कोई उपाय नहीं है। व्यक्तिक गुरु इसी प्रयोजन की पूर्ति करते हैं, वे मन में सच्चे सद्गुरु की शरण में पहुँचाने का काम निर्लिप्त, निर्लोभ होकर करते हैं। ऐसे गुरु का प्राप्त होना भी असाधारण सौभाग्य कहना चाहिए। अन्यथा आज के स्वार्थी संकीर्णता प्रधानयुग में ऐसे निस्वार्थ और उदार व्यक्ति आसानी से कहाँ मिल पाते हैं ? लक्ष्य भले ही सद्गुरु हो, अन्तरात्मा की शरण में जाये बिना कल्याण नहीं, महत्व उस सत्ता या व्यक्तित्व का भी कम नहीं है जो वहाँ तक पहुँचता है।


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