श्विष्य में मनुष्य कैसा होगा।

September 1980

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यह दृष्टि कैसे उत्पन्न हुई, आविर्भाव कैसे हुआ, कैसे वह सभ्यता की अनेक मंजिलें तय करता हुआ वर्तमान उन्नत स्थिति तक पहु्रँचा, यह मंजिलें तय करने में उसे किन-किन उतार चढ़ावों का सामना करना पड़ा? आदि कई प्रश्न हैं जो मनुष्य को न जाने कब से मथते जा रहे हैं। इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए वह अपनी बुद्धि को दौड़ता है, कल्पनाएँ करता है, तथ्य और प्रमाणों के सर्न्दभ में उन कल्पनाओं में से उपयुक्त को छाँटता और अनुपयुक्त को छोड़ देता है। परन्तु अभी तक इसका कोई उत्तर नहीं मिल पाया है। एक मान्यता नहीं स्थापित होने पाती है कि दूसरी मान्यता उभर कर आती है और पहले वाली मान्यता को छिन्न-भिन्न कर स्वयं प्रतिस्थापित हो जाती है। नई मान्यता के प्रमाण में पूरे तथ्य जुटते भी नहीं है कि और नई-नई कल्पनाएं उठने लगती हैं । इस प्रकार मनुष्य अभी यही नहीं तय कर पाया है कि उसका अविर्भाव कैसे हुआ? वह कैसे अस्तित्व में आया? और कैसे सृष्टिक्रम में उठने वाले झंझावातों के बीच गिरते पड़ते वह अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सका है और उससे आगे बढ़ा सका है?

पौराणिक मान्यता है कि आदिमानव मनु थे और उनकी सन्तानें मनु कहलाई॥ अन्य धर्म सम्प्रदाय के लोग मानते हैं कि वर्जित फल चखने के कारण आदम और हब्बा र्स्वग से धकेल दिये गये। भारतीय धर्म ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पन्न की और उसी समय सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रुप में मनुष्य को सृजा। इन पौराणिक आख्यानों और प्रतिपादनों से अभिवृद्धि का समाधान नहीं होता इसलिए समाधान के उद्देश्य से विज्ञान की ओर निहारा गया और वैज्ञानिकों ने कई पुष्ट प्रमाणों के आधार पर इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर देने के प्रयास किये हैं। परन्तु इन उत्तरों से भी पूरी तरह समाधान नहीं होता है।

मनुष्य सर्वप्रथम पृथ्वी के किस भूखण्ड में अवतरित हुआ? आदिमानव सबसे पहले कहाँ जन्मा ? इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के बीच मत-मतान्तर मिलते हैं। परन्तु इस विषय में विकास शास्त्री प्रायः एकमत हैं कि अब से 35 करोड़ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वज अमीवा और मछली जैसे छोटे-छोटे जल-जन्तुओं के रुप में थे। 27 करोड़ वर्ष पहले वे धरती और पानी दोनों स्थानों पर रहने लायक बने अर्थात् उनका शारीरिक विकास इस प्रकार कि वे जल और थल दोनों पर सुविधापूर्वक विचरण कर सकें। 20 करोड़ वर्ष पूर्व सरिसृप जीवों का अस्तित्व रहा, यह बताया जात है और कहा जाता है सात करोड़ वर्ष पहले ही वे स्तनपायी बन पाये हैं। मनुष्य जैसी आकृति और प्रकृति से सर्वथा भिन्न थे। उन्हें वनमानुष जाति के बन्दरों में रखा जाता है। इस रुप में अस्तित्व धारण करने वाले आदि मानव को पेकिन कहा जाता है, वह बिल्कुल ही विचित्र ढ़ंग का था। कनपटियाँ बहुत चौड़ी थीं, भवों के नीचे की हड्डियाँ बेड़ौल उभरी हुई और ठोड़ी नदारत। यदि वैज्ञानिकों की परिकल्पना के आधार पर उसका चित्र बनाया जाये तो वह बहुत ही डरावना और घिनौना प्रतीत होगा।

मनुष्य के समान ही अन्यान्य जीव-जन्तुओं में भी विकास हुआ बताया जाता है। पुराने जमाने के ‘कायोट’ जिनसे भेड़िया अस्तित्व में आया, आज के जमाने के भेड़िये से असाधारण अन्तर रखता था। यह अन्तर कई दृष्टियों से बड़ा और घटा है।

पुराने महागज और सरीसृप आज के हाथी और गिरगिटों की तुलना में कई गुना बड़े थे। आदि मानव भी आज के मनुष्य की तुलना में कई गुना बड़ा और बहुत अधिक शक्तिशाली था। किन्तु मनुष्य शरीर और शारीरिक शक्ति की दृष्टि से अपने पूर्वजों की अपेक्षा कमजोर ही होता गया है, यही वह पुराने ज्ञान-कौशल, उपकरण और साधनों के क्षेत्र में उसने बहुत ज्यादा विकास किया है। इस प्रकार एक और घटोतरी तथा दूसरी ओर बढ़ोतरी का क्रम चलता रहा है। इन दोनों ही पहियों पर टिका हुआ प्रगति-रथ इधर-उधर हिचकोरे खाता हुआ अब यहाँ तक पहुँच गया है।

मनुष्य के अब तक के विकास क्रम और अब तक प्राप्त की गई उन्नति को देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि भविष्य में मनुष्य कैसा होगा? इस प्रश्न के उत्तर के कतिपय वैज्ञानिकों का कथन है कि प्रागैतिहासिक काल के ‘युमा’ और आज के बिलाव में जितना अन्तर है सम्भवतः अब से पाँच हजार वर्ष बाद आज के मनुष्य में और तब के मनुष्य में भी इतना ही अन्तर होगा। यह तथ्य तो सर्वविदित है कि इन दिनों मनुष्य की बुद्धि और उसके साधनों में असाधारण वृद्धि हो रही है। इस असाधारण अभिवृद्धि के परिणाम स्वरुप उसका विकास भी असाधारण गति से हो रहा है। विकास और प्रगति की दर अब पहले की अपेक्षा कई गुना बढ़ गई है और दिनोंदिन वह बढ़ती ही जा रही है। पिछले पाँच लाख वर्षों में मनुष्य ने जितना विकास किया है उतना ही, बल्कि कहीं उससे भी ज्यादा प्रगति उसने पिछले पाँच हजार वर्षों में मनुष्य ने जितनी प्रगति की है लगभग प्रगति विगत पाँच सौ सालों में हुई है और पिछले पचास वर्षों की प्रगति का लेखा-जोखा लिया जाय तो प्रतीत होगा कि मनुष्य ने इस अवधि में अपना ज्ञान-विज्ञान इतना अधिक कर लिया है जितना वह गत पाँच सौ वर्षों में नहीं कर पाया है।

प्रगति का यह क्रम बढ़ने ही वाला है, घटेगा नहीं। यदि ऐसा कोई युद्ध न छिड़ जाय, ऐसी कोई प्राकृतिक आपदा न आ जाय जिसमें अब तक विकसित समूचि मनुष्य जाति ही नष्ट हो जाए तो यह सभ्यता आगे ही बढ़ेगी। छोटे-मोटे युद्ध तो हमशा ही चलते रहे हैं, कुछ सौ व्यक्ति ने लेकर हजारों लाखों लोगों को मार ड़ालने वाली युद्ध विभीष्काएँ हमेशा ही मँड़राती रहती हैं। जब तक पूरी मनुष्य सभ्यता को नष्ट करने वाला कोई युद्ध न छिड़े तब तक प्रगति की सम्भावनाओं को नष्ट हुआ नहीं कहा जा समता और ऐसे किसी युद्ध की सम्भावनाएँ फिलहाल क्षीगतर ही मानी जा रही हैं, अस्तु मनुष्य और आगे बढ़ेगा या विकसित होगा इसमें सन्देह की गुँजाइश लगभग नहीं है।

अगली कुछ ही पीढ़ियों में मनुष्य द्वारा इतना विकास कर लिये जाने के सम्बन्ध में वैज्ञानिक पूरी तरह आश्वस्त है कि उसकी तुलना में पिछले पाँच हजार वर्षों की प्रगति को तुच्छ ठहराया जा सके। इसलिए सभी क्षेत्रों में यह प्रश्न उछाला जा रहा है कि भविष्य में विकसित होने वाली मनुष्य सभ्यता का स्वरुप कैसा होगा? इसका उत्तर उसकी इच्छा और आवश्यकता को देखते हुए ही दिया जा सकता है। यदि चिन्तन का प्रवाह वर्तमान स्तर का ही बना रहा और पहल जीवनशास्त्रियों के हाथ में रही तो वे नये सिरे से जीव कोषों को ढ़ालना आरम्भ कर देंगे और ऐसा मनुष्य पैदा करेंगे जो अन्ग्रही परिस्थितियों में भी अपना निर्वाह कर सकें। इस आधार पर वर्तमान मनुष्यों की शारीरिक और मानसिक स्थितियों को ऐसे मोड़ सकते हैं जो भावी परिस्थितियों के साथ सुविधापूर्वक तालमल बिठाये रह सकते हैं उनका शरीर ही नहीं मन भी बदला जा सके। विज्ञान के हाथों में इन दिनों जितनी शक्ति केन्द्रित हो गई है, उसे देखते हुए यह असम्भव नहीं कहा जा सकता। यह भी हो सकता है कि विज्ञान की इस शक्ति का उपयोग सत्ताधीशों की सहायता से, उनकी मनमर्जी के अनुकूल मनुष्य को टालने के लिए किया जाय और वर्तमान स्तर के मनुष्यों को हटाकर उसकी स्थानापन्न नई मनुष्य जाति बनायी जाये।

कृत्रिम जीवकोषों के आधार पर मनुष्य जाति में क्या कुछ परिवर्तन किये जा सकते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में ब्रिटेन के जीवशास्त्री जेम्स डेनियल ने कहा है कि, ‘कृत्रिम जीवकोष बनाने में सफलता प्राप्त करने के बाद निकट भविष्य में ही सम्भव हो जायगा कि मनुष्य के डिजायन किये हुए प्राणी उत्पन्न किये जा सके, उनकी आकृति और प्रकृति लगभग वैसी ही होगी वैसी कि उनके निर्माणकर्ता चाहेंगे। ऐसे मनुष्यों को ड़ालना भी सम्भव हो जायगा जो अन्य ग्रहों में जीवन यापन कर सकें।

नैसर्गिक रुप से शरीर निर्माण की प्रक्रिया में, नई पीढ़ी तैयार होने अथवा सन्तानोत्पादन के क्रम में वंश परम्परा के अर्न्तगत केवल के शरीरगत कोशिकाएँ ही अपनी भौतिक विशेषताओं के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी खिसकती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि स्वभाव साथ-साथ चलता है। पिछले दिनों अमेरिका के वेलर विश्वविद्यालय में डाँ. ज्योजर्स अन्गर द्वारा किये गये प्रयोगों से यह तथ्य प्रकाश में आया । डाँ. अन्गर ने इस तरह के प्रयोगों के लिए अपनी प्रयोगशाला में कुछ चूहे पाले। उन्हें अन्धेरे में बिजली के तारों के झटके का खतरा पैदा करके डराया गया और प्रकाश में रहने की आदत ड़ाली गई। धीरे-धीरे चूहों में झटके ड़र से प्रकाश में रहने की आदत पड़ गई। पहले तो वे झटका सुनते ही अन्धेरे से भागते और प्रकाश में पहुँच जाते। पीछे बिना कोई झटका हुए भी वे अन्धेरे से भागकर रोशनी में पहुँचने लगे और प्रकाश में ही रहते, यह आदत चूहों की तीन पीढ़ियों तक हुबहू पाई गई।

प्रयोगों के अगले क्रम में इन चूहों के मस्तिष्क से स्मृति रसायन निकाला गया और उसे अन्य साधारण चूहों के शरीर में पहुँचाया गया। देखा गया कि जिन चूहों के शरीर में यह रसायन पहुँचाया गया था वे अन्धेरे में जाने से डरने लगे और प्रकाश में ही रहना पसन्द करने लगे। चूहों के मस्तिष्क सक निकाले गये इस रसायन का नाम ‘स्कोटोफोविन’ रखा गया। चूहों के बाद यह प्रयोग अन्य छोटे-छोटे जीवों पर भी किया गया तो पाया गया कि इस तरह के रासायनिक फेर-बदल से स्वभाव की विशेषताएँ भी बदली जा सकती हैं। एक प्राणी के मस्तिष्कीय तत्व दूसरे के शरीर में प्रवेश कराये जा सकते हैं और उसकी आकृति में भी अभीष्ट परिवर्तन लाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि वंश परम्परा में भी यही सिद्धान्त बहुत हद तक काम करता है। अन्य प्राणियों के समान, चूहों के तरह के यह प्रयोग मनुष्यों पर भी हो सकते हैं उसकी इच्छायें, आदतें और चेष्टायें इस प्रकार की बनाई औरढ़ाली जा सकती हैं जैसी कि सत्ताधीश और वैज्ञानिक पसन्द करें। कहना नहीं होगा कि अब राजशक्ति और विज्ञान दोनों मिलकर संयुक्त रुप से इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि मनुष्य उनका कदाचित ही सामना कर सकें, इसे मनुष्य जाति के सिर पर निरन्तर लटकती रहने वाली तलवार ही कहा जा सकता है।

न केवल स्वभावगत विशेषताओं में वरन् शारीरिक विशेषताओं में परिवर्तन करने की सफलता भी विज्ञान ने प्राप्त कर ली है। ‘अमेरिकन रिपोर्टर’ पत्र में पिछले दिनों विज्ञान स्तम्भ के अर्न्तगत यह समाचार प्रकाशित हुआ था कि व्रिसवेन के कुछ जीव वैज्ञानिकों ने कुत्ते की एक ऐसी जाति तैयार की है जो अपनी नस्ल में सबसे छोटी है। इन कुत्तों की ऊँचाई सात सेन्टीमीटर, लम्बाई पच्चीस सेन्टीमीटर तथा वनज सवा किलो के करीब है। ओवरकोट की जेब में रखकर इस कुत्ते को कहीं भी ले जाया जा सकता है। पत्र के अनुसार लोगों ने इस संशोधित नस्ल के कुत्तों को बहुत पसन्द किया है। क्योंकि एक तो अमेरिका में कुत्ते पालने को बहुत शौक है और दूसरे यहाँ के महानगरों में बढ़ती हुई आबादी के कारण स्थानों की कमी भी होती जा रही है। इस तरह के लघुकाय कुत्ते शौकीनों की कई कब्नाइयों को हल कर सकते हैं कुत्तों के खाने आदि का कम खर्च, काम पर जाते समय उन्हें सूने मकान में रखने की परेशानी, हरदम साथ रखने का शौक जो बड़े कुत्तों को पालने में कठिन ही होता है अब यह कठिनाईयाँ हल हो गईं है और लोग बड़े शौक से अपने साथ कुत्तों को कहीं भी ले जा सकते हैं तथा उसे कम जगह में, कम खर्च में पाला जा सकता है और कहीं भी ले जाया जा सकता है।

यह तो समय ही बतायेगा कि भविष्य में मनुष्य का क्या स्वरुप होगा ? मनुष्य जाति का भग्य निर्धारण किन तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है ? किन्तु इतना निश्चित है कि रस्सा-कसी भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में ही चलने वाली है। यदि भैतिकवाद की प्रधानता रही तो निश्चित ही मनुष्य जाति का भविष्य अन्धकारमय है और वर्तमान परिस्थितियाँ भौतिकवाद की ही प्रधानता दर्शा रही हैं। किन्तु प्रबुद्ध अध्यात्म भी चुप नहीं बैठा है। वह भी मनुष्य जाति को विनाश और कतरब्योंत की सर्वभक्षी विभीषिका से निकालने के लिए अपना कर्त्तव्य पालन करने को कटिबद्ध हो रहा है। इस समय जब मानवी भाग्य एवं भविष्य का भला-बुरा निपटारा होने की घड़ी सामने है तो देव पक्ष की सत्ता भी निष्क्रिय नहीं बनी रह सकती। मनुष्य के ईश्वरीकृत सनातन रुप को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अध्यात्म शक्तियाँ भी दृश्य और अदृश्य रुपों में काम कर रही हैं। यदि अध्यात्म शक्ति विजयी हुई तो मनुष्य महान् ही बनेगा। तीव्र परिवर्तनों की वर्तमान जाति उसे महामानव और अतिमानव भी बना सकती है। सूक्ष्मदर्शी निकट भविष्यों में ऐसे अवतरणों की सम्भावना देख रहे हैं। जो मनुष्य को दिव्य शक्ति सम्पन्न बनायेंगे। इन अवतरणों का प्रभाव मनुष्य की चेतना को देव स्तर बनायेगा, जिससे धरती पर स्नेह और सौजन्य की अमृतधारा बहने तथा इसी संसार में र्स्वग का वातावरण बनने की सम्भावनाएँ साकार होंगी।


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