जीवन साधना (kavita)

September 1980

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ऐसा जीवन जियें, हमारा जीवन ही पूजा बन जाये। पूजन की पावनता जैसी, जीवन में पावनता आये॥

आत्म-जागरण की विधि द्वारा, हम अपना भगवान जगायें। धोकर निज-कषाय-कल्मष को, प्रभु को पावन स्नान करायें॥

हम अपने दैनिक-जीवन में, उदाचार की करें साधना। सदाचार की दिनचर्या ही, ईश्वर का परिधान हटायें॥

हम अपने शीतल स्वभाव से, शान्ति प्रदान करें जन-जन को। और सुगन्धित कर दें, अपने व्यवहारों से जन-जीवन को॥

शान्ति प्रदान करें जन-जन को, सौम्य, शान्त संसर्ग हमारा॥ सबके प्रति शालीन-भावना ही, शीतल चन्दन हो जाये॥

जीवन में आलस्य नहीं हो, हो प्रमोद में नहीं श्क्ति क्षय। पर-हिताय जीवन भर साधें, हम पुरुषार्थ-साधना-अक्षय॥

टूट न पाये स्वेद बिन्दुओं का, ताँताअपने मस्तक से। भ्रम-मंत्रित हर स्वेद-विन्दु हो, अक्षत प्रभु के शीश चढ़ाये॥

अधरों पर मुस्कान सजाकर, जन-जन को मुस्कानें बाँटें। सुख-दुख कुछ भी हो जीवन, में हम हँसते-हँसते ही काटें॥

देखा नहीं फूल को हमने, काँटों में भी हँस लेता है। रोतों को हम अगर हँसा दें, यह ही पुष्पाँजलि हो जाये॥

वाणी में इतनी मिठास हो, शब्द-शब्द हो मधु सा मीठा। अपने शब्दों की मिठास से रस छलके, हो स्वाद अनूठा॥

जन-जन के विष की ज्वाला को, शान्त करे वाणी का अमृत। वाणी सुधा पिलायें सबको, वाणी प्रभु को भोग लगाये॥

सुनते रहें जिन्दगी भर हम, संवेदित हों करुण कथाएँ। अगर हृदय-सर्स्पश कर सकीं, व्यथित जनों की मर्म-कथाएँ॥

तो समझों वेदान्त सुन लिया और सुनी रामायण गीता। दर्द मिटाने गये किसी का, वह ही सच्चा तीर्थ कहाये॥

ऐसा जीवन पूजा ही है, नहीं किसी पूजा से कम है। भौतिक-पूजा स्वार्थ जन्य है मात्र कर्मकाण्ड का क्रम है॥

पूरा जीवन करे समर्पित जन हिताय, ववह ही सच्चा जन। जो कि भक्ति की, ज्ञान, कर्म की, त्रिविधि त्रिवेणी में अवगाहे॥

*समाप्त*


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