ऐसा जीवन जियें, हमारा जीवन ही पूजा बन जाये।पूजन की पावनता जैसी, जीवन में पावनता आये॥
आत्म-जागरण की विधि द्वारा, हम अपना भगवान जगायें।धोकर निज-कषाय-कल्मष को, प्रभु को पावन स्नान करायें॥
हम अपने दैनिक-जीवन में, उदाचार की करें साधना।सदाचार की दिनचर्या ही, ईश्वर का परिधान हटायें॥
हम अपने शीतल स्वभाव से, शान्ति प्रदान करें जन-जन को।और सुगन्धित कर दें, अपने व्यवहारों से जन-जीवन को॥
शान्ति प्रदान करें जन-जन को, सौम्य, शान्त संसर्ग हमारा॥सबके प्रति शालीन-भावना ही, शीतल चन्दन हो जाये॥
जीवन में आलस्य नहीं हो, हो प्रमोद में नहीं श्क्ति क्षय।पर-हिताय जीवन भर साधें, हम पुरुषार्थ-साधना-अक्षय॥
टूट न पाये स्वेद बिन्दुओं का, ताँताअपने मस्तक से।भ्रम-मंत्रित हर स्वेद-विन्दु हो, अक्षत प्रभु के शीश चढ़ाये॥
अधरों पर मुस्कान सजाकर, जन-जन को मुस्कानें बाँटें।सुख-दुख कुछ भी हो जीवन, में हम हँसते-हँसते ही काटें॥
देखा नहीं फूल को हमने, काँटों में भी हँस लेता है।रोतों को हम अगर हँसा दें, यह ही पुष्पाँजलि हो जाये॥
वाणी में इतनी मिठास हो, शब्द-शब्द हो मधु सा मीठा।अपने शब्दों की मिठास से रस छलके, हो स्वाद अनूठा॥
जन-जन के विष की ज्वाला को, शान्त करे वाणी का अमृत।वाणी सुधा पिलायें सबको, वाणी प्रभु को भोग लगाये॥
सुनते रहें जिन्दगी भर हम, संवेदित हों करुण कथाएँ।अगर हृदय-सर्स्पश कर सकीं, व्यथित जनों की मर्म-कथाएँ॥
तो समझों वेदान्त सुन लिया और सुनी रामायण गीता।दर्द मिटाने गये किसी का, वह ही सच्चा तीर्थ कहाये॥
ऐसा जीवन पूजा ही है, नहीं किसी पूजा से कम है।भौतिक-पूजा स्वार्थ जन्य है मात्र कर्मकाण्ड का क्रम है॥
पूरा जीवन करे समर्पित जन हिताय, ववह ही सच्चा जन।जो कि भक्ति की, ज्ञान, कर्म की, त्रिविधि त्रिवेणी में अवगाहे॥
*समाप्त*