तृतीय विश्वयुद्ध के गहराते बादल

September 1980

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सामान्य क्षमताओं का व्यक्ति दुष्प्रवृतिग्रस्त हो जाये तो उसके दुष्प्रभाव से थोड़े व्यक्ति पीड़ित हो सकते हैं। इन अवसरों पर यदि भलाई की सीमित शक्तियाँ भी प्रतिरोध में खड़ी हो जाये तो वह उस अवाँछनीयता को तत्काल दबोच कर ठिकाने लगा सकती है, किन्तु यदि अवाँछनीयता संगठित हो जाये तो प्रतिरोध की शक्तियाँ भी उतनी ही संगठित और शक्ति सज्जित लगानी पड़ती हैं। चोर, डकैत और बागी बटालियनों को पुलिस पी.ए.सी. और सेना के जवान ही नियंत्रित कर पाते हैं, उन्हें काबू में करना सामान्य व्यक्तियों के बलबूते ही बात नहीं होती।

औद्धत यदि शासन सत्ता में आ जाये तब परिस्थितियों का निराकरण व्यक्ति के वश में नहीं रह जाता। एक समय था जब शासनतंत्र, धर्मतंत्र के अनुशासन में रहता था तब ऐसी विकृतियों की सम्भावना कम रहती थी किन्तु अब राजसत्ता सर्वोपरि हो गई है, उस पर किसी का नियंत्रण नहीं रहा। सेना और अर्थतंत्र की समस्त शक्तियाँ उसी के हाथ में चली गई हैं ऐसी स्थिति में यदि सत्तासीन व्यक्ति ही पूर्वाग्रहग्रस्त और अंहकारी हो जाये तो उस स्थिति के दुष्परिणाम भी भयंकर हो सकते हैं। रावण, कंस और दुर्योधन पुराणकाल के कहे जा सकते हैं। अभी पिछली कुछ शताब्दियों में ही नादिरशाह, सिकन्दर, मुसोलिनी, नैपोलियन के कृत्यों को और उनके दुष्परिणामों को संसार अच्छी तरह देख, सुन और भुगत चुका है और यह भली प्रकार अनुभव कर चुका है कि राजसत्ता का पथभ्रष्ट होना कितना वीभत्स हो सकता है।

आज की परिस्थितियाँ तो और भी भयावह हो चुकी हैं अब एटमबम, हाइड्रोजन बम, प्रेक्षेपास्त्र, लेजर बम, और रसायन विस्फोट वाले ऐसे अस्त्र-शस्त्र भारी मात्रा में बनकर शासनसत्ता के हाथ में आ गये हैं। विश्व के किसी भाग की उथल-पुथल सम्पूर्ण विश्व को ले डूबने की स्थिति बन गई है। इन परिस्थितियों में ग्रह-गणित, मूर्धन्य भविष्य वक्ताओं की बात छोड़ भी दे तो भी कहा नहीं जा सकता, राजसत्ता औद्धत कब कहाँ फूट पड़े और सम्पूर्ण संसार को सर्वनाश की कगार पर पहुँचा दे।

परिस्थितियों के आधार पर भीविष्य की सम्भावनाओं का पता लगाने की एक नई वैज्ञानिक पद्धति विकसित हुई है जिसे ‘फ्यूचरालाजी’ या भविष्य विज्ञान कहा जाता है। कम्प्यूटर प्रणाली द्वारा वर्तमान तथ्यों के आधार पर भावी घटनाओं का पता लगाने में यह पद्धति इन दिनों अधिक प्रामाणिक सिद्ध हुई है। भविष्यवाणियों का आधार होते हैं- अन्तर्राष्ट्राीय, राजनैतिक, आर्थिक, भैगोलिक एवं साँस्कृतिक घटनाक्रमों के तथ्य। कम्प्यूटर उन्हीं आधारों पर भविष्य के घटनाक्रमों का पता लगाता है। अमेरिका स्थित ‘वर्ल्डफ्यूचर सोसायटी के अध्यक्ष ‘एडवर्ड सी. कार्निश’ का कहना है कि ‘अन्तर्राष्ट्रीय प्रवृतियों का बारीकी से अध्ययन करके उनके सम्भावित प्रवाह का तर्क सम्मत् आँकलन करना भविष्य विज्ञान है। इस प्रकार के अध्ययन असाधारण मेधा सम्पन्न व्यक्ति ही कर पाते हैं तथा समय भी पर्याप्त लगता है। क्योंकि उपरोक्त आधारों पर तथ्यों का संकलन कठिन है और समय साध्य भी।’

इस विज्ञान के समर्थक उत्तर अटलाँटिक सन्धि संगठन (नारो) के ब्रिटिश सेना के भूतपूर्व कमाण्डर इनचीफ जनरल ‘सर जान हैकेट’ ने राजनैतिक पर्यवेक्षण के उपरान्त घोषणा की है कि “अगले दिनों विश्व-व्यापी तनाव और भी अधिक जोर पकड़ेगी सोवियत साम्यवाद की छत्रछाया में पलने वाले समाजवादी देशों की स्थिति और भी बिगड़ेगी। अगले तीन वर्षों में अमेरिका और रुस के बीच शीतयुद्ध छिड़ने की सम्भावना है। जिसके कारण पश्चिमी शक्तायाँ अपने-अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर संगठित होंगी। युद्ध युगोस्लाविया से आरम्भ होकर पश्चिमी और अन्य साम्यवादी देशों में फैल जायेगा।”

प्रसिद्ध राजनैतिक भविष्य वक्ता ‘विलियन पफ्फ’ का कहना है कि “तृतीय विश्वयुद्ध का कारण अरब राष्ट्र होंगे। धार्मिक कट्टरता से ग्रस्त मुस्लिम तेल निर्यातक देश पश्चिम का वायकाट करेंगे। रुस अपने स्वार्थों से अभिप्रेरित होकर अरब राष्ट्रों को पश्चिमी पूँजीवाद देशों को भड़कायेगा। पर कुछ अरब राष्ट्र सोवियत रणनीति के खतरे से अवगत होकर अमेरिका के साथ हो जायेंगे। उनके अन्य सहयोगी देश बहिष्कार करेंगे। भारतीय उपमहाद्वीप में सोवियत प्रभाव को कम करने की दृष्टि से अमेरिका विभिन्न देशों में शास्त्रागार भेजेगा। युद्ध की चिन्गारी सर्वप्रथम पश्चिम एशिया में भड़केगी। फलस्वरुप सोवियत संघ के मित्र देश संगठित होकर अमेरिका के विरुद्ध युद्ध छेड़ देंगे। भारत भी प्रभावित होगा। युद्ध से पश्चिमी देशों, सोवियत सुघ एवं अरब तेल निर्यातक राष्ट्रों को भीषण क्षति जन एवं धन के रुप में होगी। विश्व आणुविक युद्ध के कगार पर पहुँचेगा। किन्तु अचानक युद्ध विराम हो जाएगा। इस बीच इसी संकट का हल भी ढूँढ़ लिया जायेगा। उससे तेल का वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। फलस्वरुप विश्व राजनीति में एक असामान्य मोड़ आयेगा। क्षमता, शुचिता, एकता, सौहार्द्र से भरी-पूरी एक नयी स्वस्थ राजनीति का पादुर्भाव होगा।

‘पीटरश्वीट्ज’ के भविष्य कथन का आधार राजनैतिक न होकर धार्मिक एवं साँस्कृतिक है। उनका कहना है “साम्प्रदायिता ही अतिवादी मान्यता के कारण धर्म के शाश्वत मूल्यों का पतन होगा। धर्मान्धता से विश्व में तृतीय विश्वयृद्ध की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। सोवियत संघ सहित सभी साम्यवादी राष्ट्रों में उथल-पुथल होगी। पश्चिमी देशों में धार्मिक कट्टरता से जो स्थिति बन रही है वह हिसंक एवं अधिक भयावह है। फलस्वरुप पश्चिमी देशों, सोवियत संघ समर्थक एवं तृतीय विश्व युद्ध के देशों के बीच एक भयंकर संघर्ष छिड़ जायेगा। उस युद्ध के बाद एक विश्व संस्कृति का उदय होगा जिसमें भारत की प्रमुख भूमिका होगी। 21 वीं सदी के पूर्व भारत का अभ्युदय एक सशक्त आध्यात्मिक राष्ट्र के रुप में होग तथा समस्त विश्व पर छा जायेगा। शक्ति एवं सामर्थ्य की दृष्टि से वह विश्व में मूर्धन्य होगा।”

राजनैतिक, आर्थिक, साँस्कृतिक परिस्थितियों के आधार पर इन भविष्यवक्ताओं के उद्घोष को वर्तमान घटनाक्रमों के परिवेश में स्पष्टतया देखा जा सकता है। विश्व की महा शक्तियों का विभिन्न राष्ट्रों के साथ जो गठबन्धन हो रहा है वह संसार को युद्ध की कगार पर घसीट रहा है। यह पंक्तियाँ लिखे जाने से उनके प्रकाशित होकर पाठकों के सम्मुख आने तक परिस्थितियाँ कितने मोड़ ले चुकेंगी, आज की स्थिति में यह तक कहना कठिन है।

हिन्द महासागर में विभिन्न राष्ट्रों की बढ़ती हुई सैनिक गतिविधियाँ तृतीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि बना रही हैं। ईरान की घटनाओं, अफगानिस्तान में सोवियत रुस का हस्तक्षेप, मुस्लिम राष्ट्रों की आन्तरिक अव्यवस्था तथा पश्चिम की महा शक्तियों द्वारा अपने तेल हितो के लिए चलाये जा रहे राजनैतिक दाँव-पेंचों के कारण यह क्षेत्र अशान्ति का केन्द्र बना हुआ है। इस क्षेत्र में अमेरिका और रुस दोनों की ही महा शक्तियाँ अपनी-अपनी नौ सेना को दृढ़ बनाने में लगी हैं। प्राप्त जानकारियों के अनुसार हिन्द महासागर में अमेरिका के 25 तथा रुस के 24सैनिक पोत विद्यमान हैं। दोनों देशों की जंगी पोत अपने झण्डे लगायें जागरुक हैं। अमेरिकी नौ सेना के तीन विमानशाही जलपोत एवं फ्रिगेट विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। ये फारस की खाड़ी के पास अरब सागर में अपना अड्डा जमाये हुए हैं। सभी जलपोत अणु शक्ति से चालित है। अन्य पाँच विशाल अमेरिकी लड़ाकू जहाज लाल सागर एवं फारस की खाड़ी में हैं। डीगोगार्सिय में नौ सेना के बड़े सैनिक अड्डे का निर्माण खतरे का संकेत देता है। प्राप्त जानकारियों के अनुसार उस सैनिक अड्डे में आधुनिकतम विध्वंशक आणुविक प्रक्षेपास्त्र लगाये गये हैं। ‘डीगोगार्सिया’ का सैनिक अड्डा हिन्द महासागर के मध्य में स्थित है। निर्माण के समय अमेरिका ने यह घोषित किया था कि इस अड्डे का जहाजों एवं विमानों को ठहराने एवं तेल आदि की सुविधा प्रदान की दृष्टि से विकसित किया जा रहा है, पर वास्विकता यह है कि इस क्षेत्र में अमेरिका अपनी सैनिक शक्ति केन्द्रिभूत करना चाहता है। यहाँ से अमेरिका अपने हवाई जहाजों को कुछ ही मिनटों में पश्चिमी एवं दक्षिणी एशिया के किसी भी देश में भेज सकता है।

रुस भी पीछे नहीं हैं। उसने सैनिक अड्डे का निर्माण तो नहीं किया , पर हिन्द महासागर के अदन, मसावा, मोजाम्विक स्थानों पर अपने पाँव मजबूत कर रहा है। अमेरिकी सैनिक गतिविधियों के विरुद्ध में उसने ‘काकेशस’ के पार तथा ‘काकेशस’ के जिलो में 23 डिवीजन रुसी सेना 800 लडाकू विमान तैनात कर रखे हैं। अफगानिस्तान एवं दक्षिणी यमन में भी उसके सैनिक तैनात हैं। ईरान और अफगानिस्तान की वर्तमान घटनाओं से स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1971 में इस क्षेत्र में विसैन्यीकरण का जो शान्ति प्रस्ताव पास किया था वह निरर्थक हो गया।

हिन्द महासागर अब महा शक्तियों की संघर्ष स्थली बन गया है। इसका प्रधान कारण है-फारस की खाड़ी की तेल सम्पदा। साथ ही पश्चिमी एशिया के भ-भाग की सामरिक स्थिति।

सोमालिया के ‘वरवरा’ एवं ‘केन्या’ के ‘मौम्वासा’ स्थित अड्डों पर 1200 अमेरिकी विशेषज्ञ नियुक्त हैं जो सउदी अरब की पैदल हवाई एवं समुद्री सेनाओं को प्रशिक्षण दे रहे हैं। सउदी अरब जो कभी अमेरिका का विरोधी इजरायल के समर्थन करने के कारण था, अब अमेरिका का समर्थक बना हुआ है। सउदी अरब को अमेरिका की तुलना में रुस से खतरा अधिक बढ़ गया है। सउदी अरब की सरकार अमेरिकी सेनाओं को अपने यहाँ ठहरने की सहर्ष अनुमति दे रही है।

रुसी युद्ध पोत ‘अदन’ की खाड़ी के पश्चिमी क्षेत्र में सक्रिय रुप से गश्त कर रहे हैं। ‘डियेगोगार्शिया’ के सैनिक अड्डे पर अमेरिका का 20 करोड़ डालर खर्च कर चुका है। आधुनिक मिशाइलों से युक्त विमानों के उतरने के लिए ऐसे हवाई अड्डे का निर्माण हुआ है जिसकेी पटरी 4 किलोमीटर लम्बी है। 720 करोड़ वर्ग किलोमीटर के हिन्द महासागर क्षेत्र पर पूण्तया आधिपत्य स्थापित करने के लिए अमेरिका प्रयत्नशील है। इस समय सैनिक अड्डों पर 21 अमेरिकी जंगी जहाज हैं जिसमें ‘किटीहार’ तथा ‘मिडये” जैसे विशाल विमान एवं 160 से अधिक युद्धक विमान मौजूद है।

अभी हाल में हुई ईरान एवं अफगानिस्तान की क्रान्ति ने परिस्थितियों में खतरनाक मोड़ दिया है। ईरानी शाह को अमेरिकी सरकार द्वारा शरण दिये जाने की प्रतिक्रिया स्वरुप ईरान से अमेरिकी नागरिकों को बन्धक बना लिया । शाह की वापसी पर अमेरिकी बन्धकों को छोड़े जाने की शर्त असफल सिद्ध हो चुकी है। ईरान ने भी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। वह बन्धकों की हत्या करने की धमकी दे रहा है। अमेरिका की चेतावनी है कि ईरान यदि ऐसा करता है तो अमेरिका सैनिक कार्यवाही करने में पीछे नहीं हटेगा। राष्ट्रपति कार्टर का कहना है कि ‘ईरान यदि शीघ्र उसके नागरिकों को नहीं छोड़ता है तो अमेरिका ईरान के आयात एवं निर्यात को रोकने के लिए नौ सेना घेराबन्दी का आश्रय लेगा।

इधर अफगानिस्तान में रुसी घुसपैठ ने तनाव को और भी अधिक बढ़या है। 27 दिसम्बर 1979 को अफगानिस्तान में सैनिक क्रान्ति हुई जिसमें रुस की प्रमुख भूमिका थी। क्रान्ति में राष्ट्रपति हफीजुल्लाह की हत्या क्रान्तिकारी परिषद ने कर दी। रुसी सैनिकों की मदद से वरवक करपाल ने सत्ता सम्भाली तथा राष्ट्रपति पद पर आरुढ़ हुए। सत्ता परिवर्तन में अफगान की युनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रमुख का हाथ है। सत्ता को सुरक्षित बनाये रखने के लिए रुस ने अपनी सैनिक शनि का भरपूर प्रयोग किया है। रुस द्वारा अभीष्ट मात्रा में सैनिक हथियार भी भेजे जा रहे हैं। इन दिनों काबुल की सड़कों पर रुसी सैनिको को गश्त करते देखा जा सकता है। रुस ने नीति 1956 में हेगरी में तथा 1968में चेकोस्लोविया में भी अपनायी थी। मध्य एशिया में अफगानिस्तान एक बफर स्टेट के रुप में घोषित था। पर इन दिनों रुसी सैनिकों की घुसपैठ में अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तनाव बढ़ेगा।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक कुचक्रों के फलस्वरुप कम्बुजिया समूल विनाश की कगार पर जा पहुँचा है। सन् 1975 में इसकी जनसंख्या 70 लाख थी। चार वर्षों बाद वहाँ की जनसंख्या मात्र 40 बची है। 30 व्यक्ति निरंकुश ‘पोलपोत’ सरकार की शिकार बन गये। पोलपोत सरकार को चीन, अमेरिका का समर्थन प्राप्त था। राजधानी सोयपेन्ट के सभी बुद्धिजीवी असलिए मौत के घाट उतार दिये गये कि उस सरकार की अमानवीय नीतियों का उन्होने विरोध किया। पोलपोत सरकार ने शीर्षक वर्ग की समाप्ति के लिए दमन का ऐसा मार्ग अपनाया जिसमें 20 से 30 लाख व्यक्तियों की हत्या कर दी गई। दूसरे देशों को इसकी जानकारी न मिले इसके लिए दूतावासों पर ताले ड़ाल दिये गये। विदेश पत्रकारों के प्रवेश पर रोक लगा दिया गया। विद्रोही जनता ने सोवियत संघ की मदद ने जनवरी 1979 में पोलपोत की सरकार का तख्ता उलट दिया। इन दिनों ‘हेग समरिन’ सरकार पदासिन हैं। जिसे सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त है।

दूसरी ओर अमेरिकी तथा थाइलैंड एवं चीनी सरकार पोलपोत की पुनः सत्ता में लाने के लिए प्रयत्नशील है। अपना प्रभुत्व जमाने की अर्न्राष्ट्रीय कुचक्रों की प्रतिक्रिया स्वरुप कुम्बुजिया विनाश के कगार पर जा पहुँचा है। महाशक्तियों के बीच तनाव भी दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।

कुचक्रों के फलस्वरुप दो महाशक्तियों के इर्द-गिर्द विभिन्न राष्ट्रों का ध्रुवीकरण होता जा रहा है। सोवियत रुस के साथ वल्गेरिया, पोलैन्ड, रुमानिया, अफगानिस्तान, ईरान, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लाविया, वियतनाम का गठबन्धन एवं अमेरिका के साथ चीन, फ्राँस, इंगलैण्ड, पश्चिमी जर्मनी, जापान की मोर्चाबन्दी तृतीय विश्वयुद्ध की आशंका को और भी पुष्ट करती है। विश्व की वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियाँ इस तथ्य का समर्थन करती हैं। प्रस्तुत लेख के लिखे जाने की उपरोक्त परिस्थितियाँ हैं। इनके आधार पर भावी संकटों के जो परोक्ष संकेत मिल रहे हैं उनसे हृदय दहल उठता है।

ऐसे अवसरों पर जबकि सारे अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास परिस्थितियों के अनुकूलन में असमर्थ सिद्ध हो रहे हैं, आध्यात्मिक उपचारों की महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है। मँडराते हुए महासंकटों के बादलों को हटाने के लिए सर्वसमर्थ आध्यात्मिक उपचारों-साधनाओं का अवलम्बन आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। प्रस्तुत संकट को निरस्त करने के लिए इस सशक्त उपचार का आयअध्यापक स्तर कर लिया जाना चाहिए।


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