दूसरों के काम में दिलचस्पी लेना

September 1980

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अपने मतलब से मतलब रखें, या दूसरों से संबंधित कामों में भी हाथ ड़ालें ? इस प्रश्न के उत्तर में आमतौर से समझदारी यह कहती है कि जिन कामों से अपना कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध न हो-कोई लाभ उपलब्ध होता न दीखे उससे दूर रहना ही अच्छा है।

यह दृष्टिकोण अपनाने वाले प्रायः झंझटों से बचे रहते हैं और अपने धन्धे में लगे रहने के लिए अवसर भी पूरा पाते हैं। दूसरों के काम में हाथ बंटाने से अपना समय तो जाता ही है, कईबार आर्थिक में भी कमी आती है। इस आशंका से अधिकाँश लोग अपने को दूसरे के झंझट में न फँसाने की नीति ही अपनाते हैं। लगता है कदाचित यही नीति लाभदायक भी है।

पर बात ऐसी है नहीं। अपने को अपने तक ही सीमित रखने की नीति से मनुष्य एक बहुत बडे लाभ से वंचित हो जाता है। वह है- दूसरों की सहानुभूति खो बैठना स्वार्थी व्यक्तियों किसी का प्रत्यक्ष बिगाड़ नहीं करता किन्तु अपने लिए सम्वद्ध व्यक्तियों की सद्भावना खो बैठना ऐसा घाटा है जिसके कारण उन सभी लाभों से वंचित होना पडता है जो सामाजिक जीवन में परस्परिक स्नेह सहयोग पर टिके हुए हैं। स्वार्थी से दूसरों को आदान-प्रदान की आशा नहीं होती इसलिए वे भी अपनी मुट्ठी सिकोड़ लेते है। तिरस्कृत न सही उपेक्षित तो ऐसे व्यक्ति निश्चित रुप से रहते हैं। ऐसी स्थिति मिलजुल कर उपार्जित की जाने, पर प्रसन्नता का आनन्द हाथ से चला ही जाता है। आर्थिक न सही भावनात्मक हानि तो यह है ही। आगे चलकर एकसक व्यक्तियों को अपनी प्रगति के लिए अपने पर ही निर्भर करना पड़ता है। दुःख, शोक में साथी भी ढूँढ़े नहीं मिलते। आर्थिक न सही मनुष्य को नैतिक, सामाजिक तथा भावनात्मक सहायता की कभी न कभी किसी न किसी रुप में आवश्यकता पड़ती ही है। जो अपने मतलब से मतलब रखने की चतुरता बरतते हैं उन्हें एकसक अवसरों पर निराश रहना पड़ता है। स्वयं किसी के काम न आया जाय तो दूसरा क्यों कोई पने काम आये। जब अपनी दिलचस्पी किसी में नहीं तो कोई अपने कामों में हाथ क्यों बटाये? क्यों दिलचस्पी दिखाये? एकाकीपन कितना नीरस होता है इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। स्वार्थ सीमित दृष्टिकोंण पर एकाकीपन की नीरसता छाई रहती है।

किसी दुर्घटना या अपराध को देखते हुए भी अनेक लोग साक्षी देने के झंझट से बचना चाहते हैं। सबूत के अभाव में अपराधी छूट जाते हैं। यह संकट अपने ऊपर भी आ सकता है। और अपराधी तत्व यह समझकर कि हमारे विरुद्ध कोई गवाह तक न मिलेगा निर्भयतापूर्वक अपनी दुष्टता चलाते हैं रहते हैं। इसकी चपेट में वे भी आ सकते हैं। जिनने अपराध को रोकने या सच्ची गवाही देने में भी उत्साह नहीं दिखाया। यह अनुत्साह भी समाज में बढ़ते हुए अपराधों का एक बहुत बड़ा कारण हैं।

सार्वजनिक संस्थाओं में भाग लेने वालों को उनके स्वजन, सम्बन्धी आमतौर से बुरा मानते हैं और इसे बेवकूफी कहते हैं। किन्तु यह भुला दिया जाता है कि जन-सर्म्पक से उपलब्धि होने वाली योग्यता वृद्धि का कितना मूल्य है। कितने ही व्यक्ति सार्वजनिक जीवन में विशुद्ध सेवा भावना से ही आये किन्तु इस आधार पर उन्हें मिलने वाले श्रेय, अनुभव तथा कौशल ने कहीं से कहीं पहुँचा दिया। महामानवों को प्रगति के उच्च शिखर तक चहुचने का अवसर दसी आधार पर मिला है। स्वार्थियों के लिए यह द्वार सदा बन्द ही रहते हैं।

किसी अपरिचित के संकट में सहायता करना, अन्याय के विरुद्ध लड़ना, लोकहित के कामों में हिस्सा बटाना, संयमी जीवन बिताना, यों तत्काल तो घाटे का सौदा प्रतीत होता है, पर बदले में अनेकों की श्रद्धा, मित्रता एवं सहायता के जो हाथ बढ़ते हैं उससे देखते हुए लगता है वस्तुतः यह रास्ता नफे का है। जो गँवाया जाता है उससे अनेक गुना वापिस होकर लौटता है।

निस्वार्थ सेवा में जो आत्म-सन्तोष मिलता है उससे आन्तरिक प्रसन्नता तो बनी ही रहती है। साथ ही स्वभाव में उच्चस्तरीय तत्व मिल जाने से जीवनचर्या हंसते-हंसाते, खिलते-खिलाते बीतती है। इतना ही नहीं सर्म्पक क्षेत्र में शालीनता के सर्म्वधन का एक नया दौर चलता है। ऐसे वातावरण में रहने वाले सम्पन्न न होते हुए भी वैभववानों से भी बढ़ा-चढ़ा आनन्द लाभ करते हैं।

मानव एक धागे के समान है। अकेलेपन में उसका कोई महत्व नहीं, पर जब उस धागे को समाज रुपी अनेक धागों वाले वस्त्र में जोड़ देते हैं तो इस एकाकी का भाग्य चमकता है। तब उसके टूटने का भी खतरा नहीं रहता। शोभा और उपयोगिता तो बढ़ती ही है।

अमेरिका में एक रिवाज है दूसरे देशों के विद्यार्थियों को अपने देश में बुलाना तथा अपने देश के विद्यार्थियों को दूसरे देशों में भेजना इसे ‘स्टूडेन्ट एक्सचेंज’ कहते हैं। ऐसे ही एक एक्सचेंज की आर्थिक व्यवस्था करने वाली एक कम्पनी के मैनेजर को एक विदेशी विद्यार्थी को अपने घर में रखने की इच्छा हुई लेकिन उसके मन में कई शंका कुशंकाएँ उत्पन्न हुआ करती थीं, लेकिन उसने साहस करके एक ‘जापानी’ विद्यार्थी को एक साल तक अपने घर में रखने का निर्णय लिया। एक वर्ष के अनुभव के बाद लड़का कहने लगा, “मेरे भी माँ-बाप के दो सैट हैं- “एक अमेरिका और एक जापान में।” मेरे घर वाले भी कहने लगे कि हमें दूसरा लड़का मिल गया जो अमेरिकी परम्पराओं एवं संस्कृति से अवगत है।”

‘जार्ज ब्राकमैन’ ने अपनी पुस्तक ‘ह्यू मैनिटी एंड हैपीनेस’ में लिखा है कि जब नार्वे पर हिटलर ने कब्जा जमाया था तो वह एक देशभक्त के नाते कई अन्य देशभक्तों के साथ कई बर्षों तक भूमिगत रहे। उस समय की स्मृति का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि देश हित के लिए सही गयीं यातनाएँ और सतत् भयावह वातावरण में अपने साथियों के साथ जो घनिष्ठता पायी गई वह चिरस्मरणीय है। इस प्रकार के कामों में यदा-कदा हानि भी उठानी पड़ सकती है।

‘सी॰ एस॰ लुइस’ अपनी पुस्तक (दी फोर लव्स) में लिखते हैं कि आप कोई हानि न उठाना चाहते हो तो आप अपने आपको स्वार्थपरता के सन्दूक में बन्द कर लीजिये और अवाँछित, गमिहीन, अनन्त शान्ति की अनुभूति लीजिए। सामान्यतः हर किसी के अनुभव की यह बात है कि जहाँ कहीं भी अन्याय हो रहा हो या प्रत्येक नागरिक की असुविधा हो ऐसे कार्यो की लोग टीका-टिप्पणी तो करते रहते हैं लेकिन समाधान हेतु उचित कार्यवाही करने के लिए कोई आगे कदम नहीं बढ़ाता।

बर्ट्रोन्ड रसल ने अपनी 92 वर्ष की अवस्था में कहा है-”वही मनुष्य सुखी है जिसका प्रेम अपने पडोसी, मित्र आदि के प्रति असीम है।”

इंगलैंड के प्रसिद्ध प्रधानमन्त्राी ‘विन्सनचर्चिल’ अन्त तक प्राणवान बने रहे इसका कारण यही था कि “दुनियाँ भर की प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना में दिलचस्पी से अपने आपको ‘इन्वाल्ड’ रखता था। उसका कहना था कि प्राणवान बने रहने की यही मुख्य चाबी है।”


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