दोष जाने और हटायें बिना स्वयं को शुद्ध न मान लें

September 1980

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मन को शुद्ध करने कामना सभी व्यक्त करते रहते हैं। किन्तु मन शुद्धि के लिए मन के दोषों को भी जानना आवश्यक है और फिर उन्हें समाप्त करने की साधना आवश्यक है। यह प्रक्रिया पुरुषार्थ-साध्य है। इसीलिए उसे साधना समर कहा गया है।

मन पाँच क्लेशों या पाँच दोषों से पीड़ित और लिप्त रहता है। वस्तुतः मन स्वयं में मात्र संकल्पक इन्द्रिय है। यह संकल्प उसमें स्वतः नहीं अद्भुत होता है। मन स्वयं तो छठी इन्द्रिय मात्र है, वह उपकरण है। दोष मूलतः चित्त-वृति की स्थिति विशेष है। सामान्यतः मन है। परन्तु जिसे प्रचलन में मन कहा जाता रहता है, वह वस्तुतः अन्तःकरण है।

अन्तःकरण त्रिविधि होते हैं। ये हैं बुद्धि, अंहकार एवं मन। वाचस्पति मिश्र ने “साँख्यतत्व कौमुदी” में 33 वीं कारिका की व्याख्या में लिखा है-

“अन्तःकरण त्रिविधि-’बुद्धिरहंकारो मनः इतिः शरीराभ्यन्तखर्तित्वादन्तःकरणम्। “दशधा बाह्यं” करणं, “त्रयस्य” अन्तःकरणस्य “विषयारव्यम्” विषयमारब्याति विषयसंकल्पाभिमानाध्यवसायेषु कर्त्तव्येषु द्वारी भवति । तत्र बुद्धिन्द्रियाग्यलोचनेन, कर्मेन्द्रियाणि तु यथास्वं व्यापारेण।”

अर्थात्- बुद्धि, अहंकार तथा मन के भेद से ‘अन्तःकरण’ तीन प्रकार के हैं। शरीर के अर्न्तगत होने से ये अन्तःकरण कहलाते हैं। बाह्करण दश होते हैं। ये तीनों अन्तःकरण के विषयों को प्रस्तुत करते हैं। विषयों के सम्बन्ध में होने वाले संकल्प, अभिमान और निश्चय में ये द्वार या साधन बनते हैं। इनमें ज्ञानेन्द्रियाँ विषय प्रकाशन द्वारा तथा कर्मेन्द्रियाँ यथायोग्य व्यापारों द्वारा सहायक बनती हैं। मन विषयों का ग्रहण कर उन्हें बुद्धि तक पहुँचाता एवं बुद्धि से प्राप्त निर्देश इन्द्रियों को देता रहता है। अहंकार ही संस्कार-जगत होता है। इसे ही चित्त भी कहते हैं। अहंभाव ही समस्त करण व्यापारों का मूल है। इसीलिए इसे अन्तःकरण कहा जात है। अंह के प्रत्यय यानी मैं ज्ञाता हूँ मैं कर्ता हूँ आदि अन्तर्भाव ही बुद्धि तत्व है। इसे ही ‘अस्मि’ का, स्वयं के होने का भाव या अस्मिता कहते हैं। अंहकार एवं बुद्धि- इन दोनों को अस्मिता मात्र कहा जाता है। इनमें उदित संस्कारों के अनुभव विषाय का ग्रहण, तद्नुसार चेष्टा एवं धारण ही संकल्पात्मक मन के कार्य हैं।

प्राण मन की ही प्रेरणा से ही चलता है। जब तक स्वयं कुमार्गगामी है, अन्तःकरण कुसंस्कार-युक्त है, तब तक प्राण का संयम सम्भव नहीं। प्राण-प्रवाह गतिशील अश्व के समान है, उसका नियंत्रण निर्देशन करने वाला अश्वारोही मन है। उन्मत घुड़सवार घोड़े पर लगाम नहीं रख सकता। इसीलिए मनःसंयम की प्राथमित आवश्यकता है।

मन के असंयम का कारण होती है-उसकी विषयों के प्रति लोलुपता का वृत्ति। यही मन की अशुद्धि का कारण है। चित्त-मन की इस अशुद्धि की अवस्था को ही योगशास्त्र की भाषा में क्लेश कहते हैं। मन को शुद्ध करने के लिए अशुद्धि का अर्थात् क्लेशों का स्वरुप जानना आवश्यक है। ये क्लेश पाँच हैं-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश। योगसूत्र में कहा है-

“अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पच्च क्लेशाः।” (योग सूत्र 213)

समस्त क्लेशों का सामान्य स्वरुप है’-विपर्यस्त ज्ञान, जो चंचलता, अशान्ति और कष्ट की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करता है। इसीलिए अविद्या या पिर्यस्त ज्ञान को समस्त क्लेशों का आधार कहा जाता है। असत्य को असत्य समझना भ्रान्ति को यथार्थ समझना, जड़ जगत को ही जीवन सार समझना अविद्या है। पाँतजलि ने कहा है-

“अनित्याशुचि दुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या।”

अर्थात्- अनित्य, अशुचि, दुःखमय तथा अनात्म विषय में नित्यता, शुचिता, सुख तथा आत्मस्वरुपता की अनुभूति एवं बोध ही अविद्या है।

वस्तुतः अविद्या ही मूल क्लेश है। अनात्म तत्व को ही आत्मतत्व माने रहने की अविद्या, अस्मिता का आधार है। मूलतः अपवित्र, असुन्दर वस्तुओं को पवित्र, सुन्दर मान बैठने की अविद्या ही राग है। दुःखद, पीड़क, उत्तापकारी मनःस्थिति उत्पन्न करने वाली क्रियाएँ ही द्वेषपूर्ण चित्त को सुखद, हर्षदायक, जी जुड़ाने वाली प्रतीत होती है। अनित्य, नश्वर शरीर को नित्य मान बैठने, उसके ही नाते, रिश्तों में बंधें रहने की अविद्यापरक स्थिति ही अभिनिवेश है। अयथार्थ ज्ञान ही अविद्या है और यथार्थ ज्ञान ही अविद्या है। जिसे अज्ञान कहा जाता है, वास्तविक अर्थों में में वह अयथार्थ ज्ञान है। यह भली भाँति समझ लेने योग्य तथ्य है कि अविद्या और विद्या के विषय पर परस्पर विपरित नहीं होते, अपितु मात्र उनकी बोध स्थिति ही परस्पर विपरित होती है। इसलिए किसी कार्य क्षेत्र या विषयक्षेत्र से विद्या-अविद्या का सम्बन्ध नहीं है। जो लोग समझते हैं कि अमुक कार्य-क्षेत्र मूलतः विद्या का है, शेष अविद्या के क्षेत्र हैं, वे स्वयं भ्रान्त हैं। उदाहरण के लिए यदि कोई यह समझ ले कि धार्मिक कही जाने वाली क्रियाओं में माला, जप, पंचोपचार, यज्ञ, हवन, बह्मभोज, दान आदि में प्रवृत रहना विद्या है और सामाजिक गतिविधियों, राजनैतिक हलचलों में भाग लेना अविद्या है, तो वह भ्रम में हैं। चाहे पहली कोटि की क्रियाएँ हों, चाहे दूसरी, यदि उनमें यथार्थ बोध के साथ, दार्शनिक समय के साथ कोई प्रवृत होता है, तभी वह विद्या प्रेरित सक्रियता है, यदि यह उनके यथार्थस्वरुप को समझे बिना लिप्त रहता है, तो उसकी सारी सक्रियता अविद्या मूलक है। भले ही वह उन क्रियाओं में लगा हो, जो ब्रह्मविद्या का क्षेत्र मानी जाती हैं यानी भले ही कोई व्यक्ति शास्त्रों के पठन-पाठन, योग आदि पर प्रवचन, देव-चर्चा आदि में प्रवृत रहा आये, किन्तु यदि वह लोकेषणा, वित्तेषणा आदि से प्रेरित होकर यह सब कर रहा है, तो वह अविद्या की उपासना कर रहा है, विद्या में रत दीख रहा होने पर वह अन्धकार में ही भटक रहा है। अनात्मतत्वों को आत्म-दर्शन का आधार मान बैठना अस्मिता मूलक अविद्या है, विद्या नहीं।

नाशवान शरीर आदि को ही अपनी आत्मसत्ता समझकर, फिर उनके नाश से मानो हमारी सम्पूर्ण सत्ता ही नष्ट हो जायगी, ऐसा भय अभिनिवेश चित्त-तन के सूक्ष्म दोष हैं, जो अविद्याजन्य हैं।

दैनन्दिन जीवन में ऊपर उभर कर आने वाले न के दो प्रधान दोष हैं- राग और द्वेष। महर्षि पाँतजलि ने इनकी यह व्याख्या की है-

“सुखानुश्यी रागः। दुःखानुशयी दोषः।”

(योगशास्त्र 217-8)

अर्थात्- सुखानुशयी क्लेश वृति राग है और दुःखानुशयी क्लेश वृत्ति द्वेष है।

दोनों ही स्म्वेदन-अनुभूतियों का यथार्थ स्वरुप न जानने के परिणाम हैं। इन्द्रियाँ स्वभावतः बहिर्मुखी हैं। जब इन्द्रियों के उनके वाँछित विषय उपलब्ध होते हैं, तो उन्हें स्वभवतः सुखानुभूति होती है। जैसे स्वादिष्ट भोजन रसना को, सुन्दर दृश्य आँखों को, सुहानी ध्वनियाँ, मीठी बातें, संगीत आदि कानों को, सुगन्ध नाक को, मृदुल र्स्पश त्वचा को सुखानुभूति देता है। अनुभूतियों के ये सन्देश मन ही नहीं बुद्धि में पूर्व संचित वासना-संस्कारों को उससे क्षणिक तृप्ति का अनुभव होता है। इससे सुखानुभूतियों के इन साधनों में स्पृहा, तृष्णा और लोभ का भाव जड़ जमा लेता है, यहीराग है। यह राग वृतिएक दुःखसह चक्र को जन्म देती है। विषयानुभूतियाँ तो क्षणिक होती हैं और मन अपनी चंचलता के कारण एक से दूसरे विषय की ओर दौड़ता रहता है। जिधर मनोयोग होता है, उधर ही इन्द्रियाँ भी सक्रिय होती हैं। मन की निरन्तर चपलता का कारण अन्तःकरण में संस्कार रुप में जड़जमाये बैठी है करोड़ों वासनाएँ हैं, जो कालक्रम तथा संयोग सुविधा से होने और प्रबल हो उठने की ताक में ही रहती हैं। उनसे प्रेरित मन जिस विषय में दौड़ता है, इन्द्रिय चेष्टाएँ उधर ही अभिमुख हो जाती हैं और विषयास्वादन की प्रक्रिया सम्पन्न होने लगती हैं। दूसरी ओर प्रत्येक विषयानुभूति मन पर एक आसक्तिजनक संस्कार छोड़ जती है। इस संस्कार से प्रेरित मन पूर्वानुभवजन्य आसक्ति भाव के आधार पर उन्हें पाने के ताने-बाने उस समय भी बुनता-रचता रहता है। राग मन को अवश और विवश बनाता है। जिसके प्रति राग होता है, उधर ही इच्छा और संकल्प दौड़ते रहते हैं। उसे पाने की ललक मन में उठती रहती है, यही स्पृहा है। उसके बिना अतृप्ति का अनुभव होता रहता है, जैसे पानी की प्यास लगने पर पानी के बिना होता है। यह प्यास या अतृप्ति ही तृष्णा है। तृष्ण, लोभ उत्पन्न करती है। विषय प्राप्ति की इच्छा ही लोभ है। वह इच्छा अपनी प्रबलता के कारण हित-अहित, उचित-अनुचित का विवेक-विचार, अस्त-व्यस्त, छिन्न-भिन्न करके रख देती है। राग की प्रबलता में उस क्षण बुरा भी बहुत भला लगने लगता है, अनुचित ही सर्वथा वाँछनीय और अधर्म ही आवश्यक धर्म लगने लगता है। असुखकर पदार्थ ही अतिशय सुखद प्रतीत होने लगते हैं।

राग की तृप्ति में, विषय सुख की प्राप्ति में जो बाधक प्रतीत होता है, उस पर प्रतिघात करने की, उसे विनिष्ट कर देने की इच्छा उत्पन्न होती है। उसके प्रति मानसिक रोष एवं क्षोभ उत्पन्न होता है। यही सब द्वेष के लक्षण हैं। इनमें यद्यपि चित्त, मन जलता-तपता रहता है और दुःख पाता रहता है, किन्तु द्वेष, दुर्भावना की तीव्रता व्यक्ति को उसी में सुख का भ्रम पैदा करती रहती है।

राग और द्वेष के ही प्रकट रुप काम एवं क्रोध हैं। अधिकाधिक संग्रह का लोभ, जिस पर अपना स्वत्व नहीं, उसे भी अधिपत्य में करने की चोरी, छीना-झपटी, अपहरण आदि की वृत्ति, राग का ही परिणाम है। राग द्वेष ही छल-कपट, ईर्ष्या-निन्दा, असत्य, अनुदारता, असहिष्णु, कुटिलता, कृतघ्नता, कटुता, कायरता एवं पशुता को जन्म देती है तथा मनुष्यत्व का हरण कर लेते हैं। इसी प्रकार अविद्या के तामसिक परिणाम प्रमाद, आलस्य, अपवित्रता आदि दुर्गुणों के रुप में सामने आते हैं। यही मन के दोष हैं जो निकृष्ट आचरण की प्रेरणा देते तथा कुसंस्कारों को स्थायी बनाते रहते हैं। साथ ही बुद्धि को कुतर्क-परकता, कुटिलता और कुविचार-प्रेरणा से भरता रहता है।

अतः आत्म-शुद्धि के आकाँक्षी प्रत्येक मनुष्य को अन्तःकरण के इन सभी दोषों को समझ कर इन्हें निकाल फेंकने के लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिए। इसी अभ्यास का नाम साधना है।

इन प्रवृतियों के मूल स्वरुप को तथा उनके आधारभूत आकर्षणों की क्षणिकता और हानि उत्पादकता को समझकर उनसे विरत होना ही वैराग्य है। इस तथ्य का पुनः पुनः स्मरण, दुष्प्रवृतियों को समाप्त करने की प्रक्रिया का पुनः अनुशीलन तथा साथ-साथ आत्मा की दिव्यता के भाव को बार बार चिन्तन, आत्म-ज्योति की निरन्तर धारणा के प्रयास का नाम अभ्यास है। अभ्यास वैराग्य की विविध साधनाप्रणाली ही आत्म-शुद्धि की सामर्थ्य प्रदान करती है। यह सामर्थ्य उपार्जित करना और दोषों, दुष्प्रवृतियों को समाप्त कर शुद्ध विवेक को जागृत रखना ही परम पुरुषार्थ है।


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