सामयिक पाँच पुण्य प्रयोजन जो प्रज्ञा पुत्रों को इन्हीं दिनों पूरे करने हैं

September 1980

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नव सृजन के पुण्य प्रयोजन के लिए प्रयासरत युगनिर्माण मिशन में जिनकी श्रद्धा सहकारिता है वही युग साहित्य पढ़ते और पत्रिकाँएँ मँगाते हैं। उनमें से पठन व्यसनी कम और सूत्र श्रृँखला बँधे हुए अधिक हैं। यह अकारण नहीं, इसके पीछे जन्म-जन्मान्तरों से चल रही आत्मीयता एवं सहगामिता का बहुत बड़ा हाथ है। उसे महाकाल द्वारा प्रस्तुत किया गया सुयोग ही कहना चाहिए कि उच्चस्मरीय जागृत आत्माँएँ युग-निर्माण मिशन के तत्वाधान में एक परिवार के रुप में एकात्मभाव से एकत्रित हो गई हैं। यही वे तथ्य हैं जिन्हें ध्यान रखते हुए इस स्तर के सज्जनों को “परिजन” कहा जा रहा है। प्रकारान्तर से यह देव परिवार जागृत आत्माओं का ऐसा समुदाय है जिसकी बाहरी गतिविधियाँ सामान्य जनों जैसी दिखती भले ही हों, पर उनकी आन्तरिक विशिष्ठता सुनिश्चित है और भी अधिक स्पष्ट समझा जाय तो प्रज्ञावतार के इस पावन पर्व में भाव भरा सहयोग देने के निमित्त ही उन्हें विशेष भूमिका निभाने के लिए ही सत्ता ने भेजा है।

इसे आत्मबोध या सामयिक उद्बोधन समझा जाना चाहिए कि समय की पुकार, आत्म प्रेरणा, युग निमन्त्रण आपत्ति धर्म ने उन्हें संयुक्त रुप से झकझोरा है और कहा है कि युग सन्धि की अवधि में उन्हें नर पामरों की यह पेट प्रजनन की परिधि में व्यामोहग्रस्त नहीं रहना चाहिए, वरन् उन उत्तरदायित्वों को निभाना चाहिए जो इन आत्माओं के लिए ही नियति ने सुरक्षित रखे हैं। युग संधि का यह बीजारोपण पर्व है। नव-युग की पृष्ठभूमि बनकर खड़ी होनी है और तदुपरान्त प्रत्येक प्रगति का पथ-प्रशस्त होना है। इस अवसर पर परिजनों के सन्मुख कुछ विशेष कर्त्तव्यों की श्रृँखला है। इन पृष्ठों पर उन्हीं का उल्लेख हो रहा है।

इस सन्देश पवक को सभी प्रज्ञा पुत्र अपने लिए युग चेतना का विशिष्ट आमंत्रण समझें और गम्भीरतापूर्वक विचार मंथन के उपरान्त इस निर्ष्कष पर पहुँचे कि उनके लिए समय की माँग को पूराकर सकने के लिए क्या कुछ योगदान देना सम्भव हैं?

यह सन्देश लेख प्रज्ञा पुत्र न्यूनतम दो बार पढ़े। एकबार लेख के रुप में दूसरी बार सन्देश एवं निमंत्रण के रुप में । इस लेख में पाँच प्रयोजनों और साथ ही सत्र आयोजनों का उल्लेख है। उनमें से कौन, किसे, किस प्रकार कब, किस सीमा तक अपना सकेगा। इस सम्भावना की जानकारी प्राप्त करने के लिए युग मिशन के सूत्र संचालक विशेष रुप से उत्सुक हैं। साथ ही विज्ञ परिजनों का यह परामर्श भी अपेक्षित है कि प्रस्तुत पंच सूत्री क्रिया-प्रक्रिया को इन्हीं दिनों सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए किन उपायों का अवलम्बन लिया जाय। इन पंक्तियों द्वारा सभी प्रज्ञा परिजनों से उनकी प्रक्रिया आयोजित की जा रही है।

(1) प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण-

नवयुग की अधिष्ठात्री महाप्रज्ञा है। महाप्रज्ञा आर्थात दूरदर्शी विवेकशीलता, न्यायनिष्ठा एवं उदार सेवा साधना का समन्वय। इसी को गायत्राी भी कहते हैं। अंतरंग को ढ़ालने के लिए इसकी उपासना और बहिरंग को तद्नुरुप प्रखर बनाने के लिए उसकी साधना की जाती है। 25 अक्षरों के इस शब्द गुच्छक को उत्कृष्ठता आदर्शवादिता के तत्वज्ञान एवं सत्प्रवृति सर्म्बधन के निमित्त प्रयुक्त होने वाले पराक्रम का उद्गम केन्द्र भी माना जा सकता है। आज की अगणित समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं का एकमात्र कारण चरित्रनिष्ठा के प्रति बरती जाने वाली अनास्था ही है। उसे निरस्त करने एवं सृजन सम्वेदना को प्रखर बनाने के लिए जिस संकल्प ध्वजा को लेकर उज्जवल भविष्य की संरचना में युग चेतना को जुटाया जा रहा है। उसी को महाप्रज्ञा, ऋतम्भरा, वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता गायत्री कहते हैं। नवयुग की अधिष्ठात्री वही है। लोकमानस को उसी का अवलम्बन लेकर चलना है तथा प्रचलनों, निधरिणों और रुझानों में उसी का समावेश होना है। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर र्स्वग के अवतरण का लक्ष्य लेकर किया गया नव-सृजन का -युग परिवर्तन का-संकल्प इसी पुण्य प्रक्रिया की छत्र-छाया में सम्पन्न होगा। युग सन्धि की भूमिका निभाने वाली दिव्यसत्ता एवं भाव प्ररणा को अवतार कहा जाता है। युगान्तरीय चेतना एवं नव-सृजन की तत्परता को लेकर इन दिनों जो दिव्य प्रवाह बह रहा है उसे प्रज्ञावतार कहा गया है। प्रेरणा स्त्रोत एवं सामर्थ्य का केन्द्र वही रहेगा। अभीष्ठ प्रयास में जागृत आत्माएँ रीछ, बानरों द्वारा समुद्र पुल बाँधने जैसी तत्परता और देव संस्कृति की युग सीता को वापस लाने की भाव सम्वेदना अपनाकर उस पुण्य प्रयोजन को पूरा करेगी।

युग चेतना को जन-जन के मन-मन तक पहुँचाने और तद्नुरुप क्रिया-प्रक्रिया को लो प्रचलन में सम्मिलित करने के लिए ऐसे प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण की आवश्यकता अनुभव की गई है। जो अभीष्ट प्रयोजनों को पूरा करने के लिए वातावरण बनाने एवं साधन जुटाने के दोनों कार्य कर सके। इन दिनों प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण में सभी प्रतिभावों को जुटाया गया है और कहा है कि वे इस निमित्त साधन जुटायें। धर्मतंत्र की श्क्ति को नुनर्जीवित करने और उसे व्यक्ति तथा समाज के उर्त्कष में जुटाने वाले इन प्रज्ञा संस्थानों की आवश्यकता एवं परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए छोटे या बडे आकार-प्रकार का निर्माण क्रम चल रहा है।

(1) एक लाख के लगभग लागात से बन सकने वाले गायत्री शक्तिपीठ (2) बीस हजार में बनने वाली बडी प्रज्ञा पीठ (3) सात हजार लागात वाली छोटी प्रज्ञापीठ (4) मात्र श्रमदान और दस-बीस रुपयों से बन सकने वाली चरणपीठ (5) किराये के या माँगे के कमरे में चलते रहने वाले मन्दिर के कतिपय रुपों में इनका निर्माण इन दिनों चल रहा है। भावनाशील और प्रतिभाशली निजी अनुदानों एवं सार्वजनिक संचय से इनके निर्माण में जुटे हुए हैं। निर्माताओं को इस सृजन में श्रेय, सम्मन और सन्तोष का त्रिविध लाभ मिल रहा है। जहाँ इस प्रकार के प्रयास नहीं हुए वहाँ भी यह प्रयत्न इन दिनों आरम्भ हो जाने चाहिए। एक दो सम्पन्न व्यक्ति अकेले ही छोटी प्रज्ञापीठ बना सकते हैं कोई प्राण्वान व्यक्ति खड़े हो जाये तो वे सामूहिक सहयोग से भी यह कार्य कर सकते हैं।

इन सभी छोटे-बडे प्रज्ञा-संस्थानों का कार्यक्रम एक जैसा है। हर संस्थान में न्यनतम दो कार्यकर्ता नियुक्त रहेंगे। एक स्थानीय गतिविधियों के संचालन में, दूसरा सम्बद्ध कार्य क्षेत्र के सात गाँव में साप्ताहिक क्रम बनाकर पहुँचा करेगा और जनसर्म्पक साधने एवं सृजन की नव चेतना जगाने का कार्य करेगा। स्थानीय कार्यक्रम में प्रायः साँय सामूहिक पूजा, प्रार्थना, आरती, सहगान, रात्रि को कथा, कीर्तन के माध्यम से लोकशिक्षण- दिन में दो-दो घण्टे तीन शिक्षा वर्ग चलाकर प्रौढ़ शिक्षा एवं नितिनिष्ठा की समन्वित व्यवस्था की जाय साँयकाल स्वास्थ्य सर्म्वधन के लिए आसन प्राणायाम ध्यान, खुलकूद एवं स्वच्छता से लेकर आहर-विहार उपक्रम समझाने वाली कक्षा चलेगी। इस प्रकार हर प्रज्ञा संस्थान में नियुक्त कार्यकर्ता सद्भाव सम्पन्नों का सेवा सहकार उपलब्ध करके स्थानीय प्रवृतियों को क्रियान्वित करता रहेगा। दूसरा परिव्राजक कार्यकर्ता घर-घर जन-जन को युग साहित्य पढ़ाने एवं सुनाने की व्यवस्था में निरत रहेगा। युग मिशन की आवश्यकता पूर्ण कर सकने में समर्थ सस्तेपन और प्रखरता की दृष्टि से कीर्तिमान स्थापित करने वाला साहित्य विनिर्मित करने में संलग्न है। प्रज्ञापीठों को परिव्राजक एसी को अपने कार्य क्षेत्र के हर शिक्षित बाल वृद्ध तक पहुँचाने और वापिस लाने के लिए घर-घर पहुँचेंगे। इसके अतिरिक्त इस विचार से परिवार में रस लेने वाले सभी प्रज्ञा पुत्रों का जन्मदिनसोत्सव मनाने के निमित ऐसी विचार गोष्ठियाँ में घर-घर नियोजित करेंगे जिनका स्वरुप तो धार्मिक रहेंगा किन्तु प्रशिक्षण एवं वातावरण ऐसा रहेगा जिसमें व्यक्ति, परिवार एवं समाज के नव-निर्माण की दिशा धारा उपस्थित सभी लोगों को मिलती रहे। समय ही बतावेगा कि यह विचार गोष्ठियाँ नव-निर्माण की कितनी महत्वपूर्ण, कितनी व्यापक भूमिका बनाने में समर्थ हुई।

सभी प्रज्ञा संस्थानों में वर्ष में दो बार नौ-नौ दिन के बडे प्रेरण सत्रों की समारोह व्यवस्था बनाया करेंगे। अश्विनी और चैत्र की नवरात्रियाँ नौ दिन की होती हैं। उनमें प्रातः, उपासना, उपचार और रात्रि को गति प्रवचनों का ज्ञान-यज्ञ चलेगा। इन्हें एक प्रकार से छमाही महोत्सव का रुप मिला करेगा। सहकारी प्रयासों से सत्प्रवृति सर्म्वधन के योजनावद्ध प्रयासों की श्रृँखला इन्हीं सत्रों में बनेगी। पंच वर्षीय योजनाओं की तरह छमाही कार्यक्रम बनने का संकल्प निर्धारण इन्हीं नवरात्रि सम्मतों में होगा और उसे अगली नवरात्रि आने तकपूर्ण कर लेने का सुनिश्चित प्रयास चलेगा।

प्रज्ञा संस्थानों की रचनात्मक प्रवृतियों में प्रौढ़ शिक्षा, वृक्षारोपण, शाक वाटिका, स्वच्छता, श्रमदान, सहकारी संस्थान, कुटीर उद्योग, नारी जागरण, शिशु मंडल जैसे कार्यक्रमें को सम्मिलित किया गया है। और सुधारात्मक प्रवृतियों में नशा निवारण, शादियों में दहेज एवं अपव्यय की रोकथाम, छुआ-छूत, पर्दा प्रथा, अंधविश्वास अनाचार आदि का प्रतिरोध जैसे कार्यों को अनिवार्य रुप से समाविष्ट किया गया है। अभीष्ट लोक शिक्षण के लिए घर-घर युग साहित्य पहुँचाने वाले चल-पुस्तकालय, परिवार गोष्ठियों के एवं छमाही समारोह के अतिरिक्त लोकरंजन और लोकमंडल की समन्वित प्रक्रिया पूर्ण करने वाले अत्यंत सस्ते स्लाइंड प्रोजक्टरों का उपयोग किया जाता है, जहाँ सम्भव है वहाँ टैप रिकार्डरों के माध्यम से भावपूर्ण गायनों एवं सन्देशों का लाभी भी जन-जन तक पहुँचाने का प्रबन्ध होता है। दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखकर उन्हें बोलती पुस्तक का रुप देने का प्रयत्न चलता रहता है। हर प्रज्ञापीठ में नियुक्त परिव्राजक स्थानीय गतिविधियों एवं सर्म्पक क्षेत्र के गाँवों में अपने प्रयास निरन्तर जारी रखेंगे।

इन दोनों परिव्राजकों को न्यनतम निर्वाह अपनाकर सेवारत रहने के लिए व्रतशील बनाया जाता है। इस वर्ग में प्रायः सादगी अपनाने वाले सन्तोषी एवं हलकी गृहस्थियों वाले लोग ही रहते हैं। इनका निर्वाह उन ज्ञान घटों से चलता है जो युग सृजन के हर सहयोगी के यहाँ रखे जाते हैं और जिन में दस पैसा अथवा एक मुट्ठी अन्न नियमित रुप से डाला जाता है। इन दो कार्यकर्ताओं की जीवनचर्या प्राचीन काल के साधु, ब्राह्मणों जैसी होने के कारण उनके निमित्त ज्ञानघटों में मुट्ठी फण्ड सहज ही संचित हो जात है और प्रज्ञा संस्थानों के संचालन में किसी बडी आर्थिक कठिनाई का सामना नहीं करना पडा।

प्रयास यह चल रहा है कि देश के सात लाख गाँवों में से सात के पीछे एक छोटा-सा प्रज्ञा संस्थान बन सके और उनके माध्यम से उस धर्मतन्त्र को पुनर्जीवित कर सकना सम्भव हो सके, जिसमें विचारणा और भावना को प्रभावित करके जन-जन को सत्प्रवृतियाँ अपनाने के लिए बाध्य करने की परिपूर्ण क्षमता विद्यमान है। अंक शास्त्री जानते हैं कि इन दिनों सडे गले धर्मतंत्र के निमित्त भी लोकश्रद्धा द्वारा प्रचुर जनशक्ति एवं धनशक्ति का प्रयोग होता है। उसे यदि सृजनात्मक प्रयोजनों में मोड़ा जा सके तो जिस प्रकार राजतंत्र भौतिक समस्याओं को सुलझाता है। उसी प्रकार धर्मतन्त्र, चिन्तन एवं चरित्र को उच्चस्तरीय बनाने में प्राचीनकाल की तरह ही फिर समर्थ हो सकता है। राजतंत्र द्वारा आत्मिक प्रगति का उत्तरदायित्व सम्भाला जा सके तो दोनों के समन्वित प्रयास नव-सृजन की युग परिवर्तन की उज्जवल भविष्य की सम्भावनाओं को पूर्ण कर सकने में भली प्रकार समर्थ तथा सफल हो सकते हैं।

प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण की योजना इन दिनों जिस तूफानी गति से क्रियान्वित हो रही है, उस अप्रत्याशित सफलता को देखते हुए आर्श्चय या अविश्वास अजनबी लोगों को ही हो सकता है। जो सर्म्पक में हैं वे जानते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के दूसरे दिन से ही नैतिक बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति, व्यक्ति परिवार एवं समाज के नव-निर्माण में जो तंत्र प्राण-पण से जुटा है उसने धर्म श्रद्धा का संर्स्पश करके लोक जीवन में अपनी जडें कितनी गहरी जमा ली हैं। और लाखों सृजन शिल्पियों के सहयोग से सृजन प्रयोजनों में कितनी चकित करने जितनी सफलता उपलब्ध की है। समय की माँग को पूरा करने में निरत प्रामाणिक व्यक्ति समय समय पर ऐसी ही सफलताएँ प्राप्त करते रहे हैं। जैसी कि युग सृजन अभियान के संचालक तंत्र को इन दिनों मिल रही है।

युग सृजन में प्रज्ञा संस्थानों का योगदान सर्वोपरि रहना सुनिश्चित है। जो इस तथ्य से अवगत हो सके उनसे अनुरोध है कि उनके लिए आवश्यक साधन जुटाने में अपनी उदारता, प्रतिभा एवं संयोग संपादन की तत्परता का अधिकाधिक उपयोग करें। इस पुण्य प्रयास में गिलहरी और शवरी जैसे असमर्थ भी कुछ न कुछ यहयोग तो निश्चय ही कर सकते हैं। प्रश्न यहयोग के आकार विस्तार का नहीं उसके प्रति श्रद्धान्जली अर्पित करने वाली भावना का है, उसे युग धर्म की माँग और समय की आवश्यकता समझा जाना चाहिए। प्रज्ञा पुत्रों में से किसी को भी इस स्थिति में नहीं रहना चाहिए कि इस महत्ती आवश्यकता को पूर्ण करने से उनने उपेक्षा बरती और कृपणता अपनाई। कौन, कहाँ, किस प्रकार इस प्रयोजन के निमित क्या कर सकता है। इसके लिए तंत्र के संचालकों से विचार विमर्श करने के बाद सहयोग का कुछ न कुछ स्वरुप प्रस्तुत कर सकना हर स्तर और हर व्यक्ति के लिए सम्भव हो सकता है।

¼2½ l`tu f'kfYi;ksa dh vko';drk प्रज्ञा संस्थानों को को कलेवर और उनमें काम करने वाले युग शिल्पियों को प्राण कहा जाता है। जीवन का स्वरुप काया और प्राण दोनों के समन्वय से ही बनता है। युग सृजन की एक धारा प्रज्ञा संस्थानों के माध्यम से पडी है, पर अगले दिनों ऐसी-ऐसी असंख्य धाराएँ 450करोड़ मनुष्यों की की अगणित प्रवृतियों को गलाने-ढ़ालने के निमित खड़ी करनी पड़ेगी। अभी तो मिशन के संचालक ने अपने अनुभव और प्रभाव के सर्म्पक क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए धर्मतंत्र से लोक निर्माण का प्रयत्न हिन्दु क्षेत्र से आरम्भ किया है। ठीक इसी शैली पर अन्यान्य सम्प्रदायों को भी एक ही लक्ष्य पर अग्रसर किया जाना है भले ही वे अपनी प्रत्यक्ष विधिव्यवस्था और परम्परा अलग-अलग ढं़ग से अपनायें। अब धर्मों के समन्वय की आवश्यकता नहीं रही। सौहाद्र सहयोग और सहगमन भर से काम चल सकता है। नया तो विश्व धर्म ही बनेगा। जिसमें बसुधैव कुटुम्बकम् की दार्शनिक मान्यता वाले विश्व परिवार के रुप में नया गठन प्रत्यक्ष बनकर प्रकट होगा। एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति के निमित नये निर्धारण होंगे और एकता, समता, सुचिता , ममता के तथ्यों को अपनाने वाले व्यक्ति और समाज की ढलाई होगी। वह स्थिति जादू चमत्कार की तरह आकाश से नहीं बरसेगी वरन् सृजन शिल्पियों का समुदाय-देव परिवार ही उसे लाने के लिए भागीरथ जैसा तप, दधीचि जैसा त्याग और परशुराम जैसा पराक्रम प्रस्तुत करेगा। युग सृजन की प्रखर सम्भावना पूर्णतया सूजन शिल्पियों के आदर्शवादिता और पुरुषार्थ पर निर्भर रहेगी। अतएव उस आवश्यकता की की पूर्ति के लिए हम सभी को समग्र अभिरुचि और तत्परता के साथ प्रयत्न करना चाहिए।

साधु और ब्राह्मण की प्राचीन परम्परा ने ही सतयुग का सूजन करने में सफलता ने ही सतयुग का सृजन करने में सफलता प्राप्त की थी। लोक सेवियों की वैसी ही नई पीढ़ी फिर से विनिर्मित की जानी है। ढलती आयु में पारिवरिक उत्तरदायित्वों से हलके होते ही भावनाशील लोग वानप्रस्थ ग्रहण करते और आत्मकल्याण एवं लोक मंगल की दुहरी साधना में निरत होते थे। अब उस प्रचलन को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। हममें से जिनकी निर्वाह समस्या का समाधान और परिवार का आर्थिक स्वाबलम्बन बन पडे उनमें से प्रत्येक को वानप्रस्थ का गौरवास्पद उत्तरदायित्व सम्भालना चाहिए और नव-सृजन की बहुमुखी प्रवृतियों का ही अपना भावी कार्यक्रम बनाकर चलना चाहिए। यह साधु वर्ग हुआ।

दूसरा वर्ग है-ब्राह्मण। ब्राह्मण वे जिनने औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वच्छापूर्वक स्वीकार किया है। जिनमें अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को बढ़ाने का नहीं घटाने का ध्यान रखा है। कुटुम्ब के सदस्यों की संख्या न बढ़ने देने, उन्हें मितव्ययी तथास्वाबलम्बी बनाने का प्रयास करने पर ग्रहस्थ किसी के लिए भी भार नहीं रह जाता। न सुलझने वाली समस्याएँ तो लोभ लिप्सा ही उत्पन्न करती हैं। यदि भौतिक महत्वकाँक्षाओं को आदर्शवादी महानता उपलब्ध करने के लक्ष्य में जोडा जा सके, तो रोज कुँआ खोदने और रोज पनी पीने वाले भी नव-सृजन के लिए उत्साहवर्धक समयदान, अंशदान करते रह सकते। सन्तोषी एवं सेवा भावी प्रकृति के व्यक्ति ही ब्राह्मण हैं। युग निर्माण जैसी धर्मधारणा पर निर्धारित प्रयोजन के लिए परिव्राजक साधु समुदाय की तरह ही यह ब्राह्मण वर्ग भी स्थानीय एवं समीपवर्ती क्षेत्र की महत्ती सेवा करता रह सकता है। ऐसी प्रवृति जहाँ भी हो उसे उभारा और कुछ करते रहने में नियोजित किया जाना चाहिए। युग निर्माण योजना के अर्न्तगत ऐसे कार्यक्रम अगणित हैं जिनके लिए सीमित श्रमदा, अंशदान की बूँद-बूँद मिलकर घड़ा भरने जैसा आर्श्चयजनक प्रसंग बन सकता है।

प्राचीनकाल में साधु ब्राह्मणों का निर्वाह देवालयों में एकत्रित सुविधा साधनों से तथा भिक्षावृति से सम्भव होता था। अब उस पुण्य परम्परा का संस्करण घरों में ज्ञानघट रखने-न्यूनमत दस पैसा या मुट्ठी भर अन्न नित्य डालते रहने के माध्यम से आरम्भ किया। उनमें संचित राशि से साधु समुदाय का-ब्राह्मण वर्ग एवं उनके छोटे परिवार का निर्वाह चलता रहेगा। इनमें से जिनकी निजी स्थिति स्वाबलम्बन जैसी होगी वे गुजारे के लिए अपने ही धन का उपयोग करेंगे, संचय को मात्र वास्तविक आवश्यकता वालों के लिए ही काम में लिया जा सके। संक्षेप में निवृतों का वानप्रस्थ गृहस्थों का अपरिग्रह एवं उदार चेताओं का अंशदान मिलकर लोकसेवी समुदा की-सृजन शिल्पियों की आवश्यकता पूरी कर सकता है। यदि एक लाख प्रज्ञा संस्थान बनते हैंतो उनके लिए दो दो सृजन शिल्पी चाहिए। फिर अन्यान्य सम्प्रदायों तथा अन्यान्य देशों की आवश्यकताएँ भी तो पूरी करनी होंगी। भौतिक क्षेत्र में निरक्षरता, रुग्णता, दरिद्रता, कुसंस्कारिता जैसे अनेक अन्य पक्ष भी हैं, जिनसे जूझने वाले योद्धाओं को धर्मतंत्र के अतिरिक्त अन्य मोर्चा पर भी अपना कौशल दिखाना पड़ेगा। युग साहित्य की-कलामंच की रचनात्मक सत्प्रवृतियों की त्रिविधि आवश्यकताएं ऐसी हैं जिनके लिए आदर्शवादी क्रिया कुशल एवं परिश्रमी लोक सेवियों की इन्हीं दिनों महती आवश्यकता है। इसकी पूर्ति न होने तक गाडी रुकी ही रहेगी।

प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को यह सोचना होगा कि वह किस प्रकार इस आवश्यकता की पूर्ति में सहायक हो सकता है। स्वयं अपने को या अपने मित्र परिचितों में से किसी को इसके लिए तैयार किया जा सकता है।, तो सम्भावना पर पूरा पूरा विचार करना चाहिए और तद्नुरुप प्रोत्साहन देने में कमी नहीं रहनी देनी चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि यदि स्वयं के लिए उतना समय देना सम्भव नहीं, तो समदानियों के लिए निर्वाह साधन जुटा कर उस पुण्य प्रयोजन की पूर्ति में किस प्रकार- किस हद तक परोक्ष रुप से सहायक बना जा सकता है। राजतंत्र का सारा ढ़ाँचा तो वेतन व्यवस्था पर ही खडा हुआ है। धर्मतंत्र का कार्यक्षेत्र भी उतना ही बडा है उसके लिए भी निर्वाह व्यवस्था तो किसी प्रकार बनानी ही पडेगी और सुयोग्य समदानियों को ढूँढ़ निकालने की ही नहीं उनके लिए निर्वाह की व्यवस्था बनाने के निमित्त भी उदार तत्परता अपनानी होगी। विचारना होगा कि हममे से प्रत्येक प्रज्ञा पुत्र इस सर्न्दभ में क्या कुछ कर सकता है और किस हद तक धर्म कलेवर में प्राण फूँकने वाले युग शिल्पियों की आवश्यकता पूरी कर सकने में सहायक हो सकता है। काश, वर्तमान धर्मतंत्र के खोखले ढकोसले ने थोडी करबट बदली होती और इसाई मिशनों की तरह अपनी रीति-नीति में परिवर्तन किया होता तो कितनी सुविधा रहती। साठ लाख साधु सन्त और अरबों की देव सम्पदा ही समस्या का बहुत कुछ समाधान कर सकती थी। पर आज की स्थिति में उस सडे समुदाय से किसी प्रगतिशील प्रयोजन की आशा, उपेक्षा करना एक प्रकार आकाश से कुसुम तोड़ने की तरह ही कठिन है। अतएव साधु ब्राह्मणों की यह नई पीढ़ी खड़ी करना अनिवार्य हो गया है। इस पुण्य प्रयोजन में हर किसी का योगदान रहना आवश्यक है।

द3ड्ट द्धह्व"क्चद्म स्रद्म द्वक्रद्बद्मठ्ठह्व ,शड्ड द्यश्वष्/र्द्मंह्व

इन दिनों युग सन्धि महापुरश्चरण का धर्मानुष्ठान प्रज्ञा पुत्रों द्वारा नियोजित किया गया है। इसमें एक लाख नौष्ठिक गायत्री उपासकों द्वारा नित्य-प्रति पाँच माला गायत्री जप और ध्यान धारण करने करने का प्रावधान है। इस प्रकार हर दिन 240 करोड़ गायत्री जप साधकों एवं अनुसाधकों की सहायता से आगामी बीस वर्ष तक चलता रहेगा। युग सन्धि की अवधि सन् 1980 से सन् 2000 तक तक बीस वर्ष की मानी गई है। वातावरण के अनुकूलन एवं साधक के आत्मबल का अभिवर्धन लक्ष्य रखकर इसे चलाया गया है। भाग लेने वाले को सप्ताह में एक दिन इन्द्रिय-निग्रह की तप साधना का अभ्यास करने के लिए कहा गया है। गुरुवार को अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य एवं दो घंटे के मौन का अनुशासन असलिए लगाया है कि वह अपनी संचित आदतों और मान्यताओं के विरुद्ध संघर्ष करना सीखें और आदर्शवादिता के ढ़ाँचें में ढ़लने के लिए आवश्यक संकल्प बल बढ़ाये।

इस साधना में प्रज्ञा पुत्रों को अधिकाधिक संख्या में सम्मिलित होने के लिए इसलिए कहा गया है कि युग सृजन के लिए आदर्शवादी परम्पराएँ आरम्भ करने एवं प्रखर बनाने के लिए संयोजक कर्ताओं की आदर्शवादी साहसिकता बढ़ाने बिना अभीष्ट प्रगति की आशा नहीं की जा सकती। अपासना अनुष्ठानों में भी इस निष्ठा को ही प्राणवान पुरुषार्थ के रुप में प्रमुख भूमिका रहती है। वह न तो शौकिया, मनमौजी एवं अस्त-व्यस्त पूजा-पाठ का कोई कहने लायक परिणाम नहीं निकलता। इसके अतिरिक्त व्यक्तित्व की प्रतिभा प्रखरता का समावेश तथा लोक सेवी को जन नेतृत्व कर सकने में व्रह्म तेजस् का उत्पादन अभिबर्धन भी इसी ब्रह्म बर्चस् से सम्भव होता है। अगले दिनों इसी महाशक्ति की ऊर्जा का हर नव-सृजन के हर प्रयोजन में उपयोग होगा, इसलिए उस अणु शक्ति उत्पादन का प्रथम संयत्र युग यन्धि महापुरश्चरण के रुप में खड़ा किया गया है।

इसकी मध्यवर्ती नाभिकीय शक्ति ‘निष्ठा’ है। इस उत्पादन के हर भागीदार को कहा गया है कि वह खाने या सोने से पूर्व उस संकल्प की पूर्ति निश्चित रुप से कर लिया करें। यदि असमर्थता का कोई अपवाद सामने आ खड़ा हो तो अगले दिनों या तो स्वयं उसकी पूर्ति करें अथवा शान्ति कुज को सूचना देकर उसकी पूर्ति का प्रबन्ध करा लें। इस स्तर के साधकों को विशेष अनुदान उच्च लोक में मिलते रहने का एक विशेष प्रबन्ध है। प्रातः और साँय दो बार एक विशेष शक्ति धारा इन साधकों के लिए निसृत होती है। उसे ग्रहण करके वे अपनी क्षमता एवं आवश्यकतानुसार (1) प्राण विद्युत कुण्डलिनि (2) जागृत आज्ञाचक्र की दिव्य दृष्टि (3) हृदय केन्दं की अमृतानुभूति के वे उच्चस्तरीय लाभ प्राप्त करते रह सकते हैं जो कठोर तपश्चर्या में लम्बे समय तक संलग्न रहने वालों को भी कठिनाई से ही उपलब्ध होते हैं।

इन साधकों को कुछ सामाजिक उत्तरदायित्व भी सौंपे गये हैं। वे संयुक्त रुप से मासिक यज्ञायोजन किया करेंगे और मिलजुलकर साधना मंडल की तरह एकात्म होंगे। सभी के जन्म दिवसोत्सव मना करेंगे। इनमें से प्रत्येक को अपने यहाँ ज्ञान घट रखकर उस राशि से युग साहित्य मँगाने और अपने सर्म्पक क्षेत्र में से न्यूनतम दस को उसे पढ़ाते रहने का क्रम चलाना होगा। इस प्रकार हर नैष्ठिक साधक दस अनुसाधकों की एक मंडली का र्मा दर्शन किया करेगा और उन्हें साधरण उपासना तथा जीवन साधना के सामान्य सिद्धान्तों से अवगत करके कम से कम अपने निजी परिवार में आदर्शवाद की प्रेरणा देते रहने की सेवा साधना में निरत रहेगा। यह नैष्ठिक साधक ही दोनों नवरात्रियों में स्थानीय साधना सत्र को शानदार बनाने का उत्तरदायित्व वहन करेंगे। इस प्रकार वे न केवल स्वयं जागृत आत्माओं की भूमिका सम्पन्न करेगे वरन् न्यूनतम दस दूसरों में भी युग चेतना का आलोक भरते रहने में शिथिलता या उपेक्षा न बरतेंगे। इस प्रकार निष्ठा साधना को एक जलते दीपक से अन्यों को जलने और दीपावली पर्व जैसी आलोक श्रृँखला विनिर्मित करते रहने का अवसर मिलता रहेगा। युग निर्माण परिवार के परिजनों में से प्रत्येक को विचार करना चाहिए कि वे अपने निजी प्रयत्नों को अग्रगामी एवं सहकारी बनाने में किस सीमा तक आगे बढ़ सकते हैं। गायत्री शक्तिपीठ या प्रज्ञापीठ बनाने में अधिक साधन जुटाने पड़ते हैं, पर इतना तो नैष्ठिक साधक भी मिलजुल कर कर सकते हैं कि किराये का या माँगे का कमरा लेकर उसमें सुसज्जित चौकी पर गायत्री की चित्र प्रतिमा स्थापित करके प्रज्ञा मन्दिर बनालें और स्थिति के अनुरुप उन कार्यक्रमों को किसी रुप में अग्रगामी बनाने का प्रयत्न करें जो विनिर्मित प्रज्ञा संस्थानों में अधिक व्यवस्थित रुप से चलते रह सकते हैं। उदाहरणार्थ मिलजुलकर एक चल पुस्तकालय की व्यवस्था सरलतापूर्वक थोडी राशि में हो सकती है और घर-घर युग साहित्य पहुचाने और वापिस लाने के लिए हलके दाम का कर्मचारी रखा जा सकता है। धकेलगाडी न हो, वह यह कार्य एक बड़े झोले की सहायता से भी करता रह सकता है। प्रातः से मध्यान्ह तक जन्मदिवसोत्सवों और बालकों के संस्कार आयोजनों के सहारे परिवार गोष्ठियों की व्यवस्था तथा मध्यान्होत्तर झोला पुस्तकालय चलाने के लिए सामान्य स्तर का व्यक्ति सीमित भरतोषिक देकर भी रखा जा सकता है। नया साहित्य खरीदने तथा कार्यकर्ता को पारतोषित देने की अर्थव्यवस्था, ज्ञानघटों से एवं महीनें में एक दिन की अजीविका देने पर सहज ही चलती रह सकती है। प्रतिभाशाली प्रज्ञा पुत्र जो कार्य स्थायी एवं बडे रुप में प्रज्ञा संस्थान के निर्माण का उपक्रम बनाकर कर सकते हैं, उसी को छोटे रुप में नैष्ठिक साधकों एवं उनके सहयोगियों की छोटी सी मंडली छोटे रुप में निजी पुरुषार्थ से चलाती रह सकती हैं। प्रज्ञा मन्दिर बनाने, चल पुस्तकालय चलाने एवं जन्मदिवसोत्सवों का प्रचलन अपने ही नगर, गाँव में यह मंडली करती रह सकेगी और सीमित साधनों से सीमित प्रयास का छोटा किन्तु प्राणवान प्रयत्न करती रहेगी। युग सन्धि पुरश्चरण के भागीदारों की नैष्ठिकता जैसे-जैसे अग्रगामी होगी मंगल की दिशा में बढ़ते हुए उत्साहवर्धक प्रयासों के रुप में मिलता रहेगा। वे एक के बाद एक कदम बढ़ाते हुए सीमित से असीम बनाने के तत्व दर्शन को प्रत्यक्ष करते चलेंगे।

(4) नियमित उपासना का निजी उपक्रम जहाँ सहकारी सम्भावनाएँ नहीं हैं। व्यस्तता, प्रतिबन्ध आदि कारणों से कुछ बड़े प्रयास नहीं बन पड़ते, बहाँ एकाकी साधना का सीमित उपक्रम भी चलता रह सकता है। (1) दस मिनट का मौन या मुखर गायत्री जप (2) साथ ही सविता देवता के तेजस् का ध्यान (3) पूजावेदी का नमन वन्दन। इन तीन छोटे प्रयोजनों को अपनाकर कोई व्यस्त व्यक्ति भी नियमित साधकों की श्रेणी में सम्मिलित हो सकता है। इन्हें भी इतनी नियमितता तो निभानी ही होगी कि अवसर न मिलने पर उस नियम का निर्वाह बिना स्नान के भी खाने अथवा सोने से पूर्व कर लिया करे। यह भी न बन पड़े तो आज की पूर्ति कल कर लिया करे। स्मरण रहे शौकिया-मनमौजी अस्त-व्यस्त साधना मात्र मनोरंजन करती और उस हलके से रुझान भर का परिचय देती है। उनकी समर्थता, निष्ठा एवं नियमितता के साथ जुड़ी है। संकल्प शक्ति एवं आत्मिक प्रखरता का आधार उसीसे बनता है। अतएव जो न्यूनतम इतना उपक्रम अपना सके और उसमें खाने सोने से पूर्व कर लेने की व्रतशीलता निभा सके उन्हीं की गणना छोटे प्रज्ञा पुत्रों में की जा सकती है। शैकिया अस्त व्यस्तों को तो गीत कथाओं में पढ़ने वाले विनोदी और इच्छानुसार सीखने न सीखने में स्वतंत्र शिशुओं की तरह ही माना जा सकता है। मनोकामना के लिए दिन-रात एक करने वाले और मक्खी छींकते ही टाट उलट देने वालों की गणना नियमित प्रज्ञा पुत्रों में नहीं की गई है।

नियमित प्रज्ञा पुत्रों को भी लोकसाधना के कुछेक उत्तरदायित्व तो वहन करने ही होंगे। वे अपने घर, परिवार की छोटी सी परिधि को ही अपना सेवा क्षेत्र मानकर युग सृजन के प्रयोगों को अपना सकते हैं। दस पैसे रोज का ज्ञानघट रखा रहे और उस छोटी राशि से युग साहित्य का घरेलु ज्ञान मन्दिर चल सकता है। दस पैसा नित्य से वर्ष में 36) रुपया होता है। इस राशि से 12) वार्षिक की अखण्ड ज्योति, 12) की युग निर्माण योजना, 6) का साप्ताहिक और 6) की पुस्तिकाएँ खरीदते रहा जा सकता है। हिन्दी की मासिक युग शक्ति गायत्री के स्थान पर अब मासिक युग निर्माण योजना प्रकाशित होगी तथा साप्ताहिक को पाक्षिक करके उसका चन्दा मात्र 6) कर दिया है। इन्हें घर के सभी लोग पढ़ या सुन सकें ऐसी व्यवस्था चलती रहनी चाहिए।

परिवार निर्माण योजना के अर्न्तगत महिलाओं से यह अनुरोध विशेष रुप से किया गया है कि वे (1) घर में गायत्री चित्र की स्थापना करें (2) रसोई घर में पाँच छोटे आहार ग्रासों का बलिवैश्य अग्निहोत्र किया करें (3) घर के सदस्यों को पाँच मिनट वहाँ खड़े होकर नमन वन्दन का अभ्यास करायें (4) प्रातः साँयकाल आरती में सामूहिक प्रार्थना की परम्परा चलायें (5) रात्रि को प्रेरणपद कथा कहानी कहा करें। इन्हें परिवार निर्माण के पाँच सोपान कहा गया है। साथ ही श्रमशीलता सहकारिता, स्वच्छता, सुव्यवस्था एवं शिष्टता के पारिवारिक पंचशीलों की निर्धारित कार्य पद्धति को अभ्यास में उतारने के लिए भी प्रयत्न करें। नियमित गायत्री उपासक स्वयं आगे बढ़ कर उस छोटे क्षेत्र की सृजन साधना को क्रियान्वित करने का उत्तरदायित्व वहन कर सकते हैं। इस कार्य में घर की महिलाओं का योगदान बिना किसी कठिनाई के मिल सकता है। इस प्रकार निजी नियमित गायत्री उपासना के साधक परिवार निर्माण अभियान की साधना को अपने से सम्वद्ध करके एक छोटा किन्तु प्रभावी आधार खड़ा कर सकते हैं। सुसंस्कृत परिवार ही नर-रत्नों की खदान होते है। उसी पाठशाला का सत्परम्पराओं का प्रशिक्षण, सामान्यों को असामान्य बनाने की भूमिका सम्पन्न की जा सकती है। व्यक्ति को सुसंस्कृत और समाज को परिष्कृत बनाने के दोनों कार्य सुव्यवस्थित पा


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