मनोबल ही जीवन शक्ति है

September 1980

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इटली के एक प्रमुख शहर गिएरुपे में बारुद के एक कारखाने में फिनोज पी॰ वेग नामक फोरमैन काम करता था। इस कारखाने के बारुद के मिश्रण से धातुओं की छोटी परतों में छेद करने का काम होता था। फिनोज पी॰ वेग के साथ एक विचित्र दुर्घटना घटी। हुआ यह कि वह सुराख करने के एक बरमे के पास काम कर रहा था। बरमा करीब पौने चार फीट लम्बा और तेरह पौंड वनज का था। काम चल ही रहा था। कि अचानक न जाने क्या गड़बड़ी आई जो मशीन से एक भारी ध्माके के साथ बरमा निकल कर उचटा और वेग के मस्तिष्क को बेधता हुआ बाहर निकल गया। बरमा चेहरे के बाँई ओर वाले भाग से घुसा था और भतरी हड्डियों को तोड़ता हुआ आँख के निचले भाग को छेदता हुआ बाहर निकल गया। आस-पास काम कर रहे कर्मचारियों को लगा कि वेग के परखचे उड़गये हैं।

वह झटके के साथ नीचे गिरा और ऐंठ गया। फिर भी आर्श्चय था कि उसमें जान बाकी थी। उसे कारखाने से करीब एक मील दूर स्थित अस्पताल में पहुँचाया गया। अस्पताल के प्रमुख चिकित्सकों ने उसका परीक्षण किया आर मुख्य चिकित्साधिकारी इस निर्ष्कष पर पहुँचे कि घायल के साथ कितना ही परिश्रम क्यों न किया जाये असे बचाया नहीं जा सकता। फिर भी चिकित्सकों ने अपना कर्त्तव्य निभाया और साधारण मरहम पट्टी कर दी। आर्श्चय तो उस समय हुआ जब उसी दिन वेग की बेहोशी टूटी। डाँक्टर बेहोशी टूटने की आशा करना तो अलग रहा, इस बात की प्रतीक्षा कर रहे थे कि वेग की साँसें कितनी देर तक साथ देती हैं ?

उसका खन बहना बन्द नहीं हुआ था, फिर भी दर्द को सहा और रात दस बजे वहाँ उपस्थित लोगों से बातें करने लगा। इसके बाद तो डाँक्टरों में भी वेग के जीवित बच जाने की आशा जगी। वह तेजी से अच्छा होने लगा और तीन माह तक अस्पताल में रहने के बाद पूरी तरह स्वस्थ होकर अस्पताल से घर आ गया। अस्पताल के अधिकारियों ने जो अन्तिम रिपोर्ट तैयार की, वह विश्व के मूर्धन्य चिकित्सकों के लिए आज भी अध्ययन और आर्श्चय की वस्तु बनी हुई है। वेग की नेत्र ज्योति तो चली गई थी, पर उसका बाकी मस्तिष्क पूरी तरह ठीक हो गया और वह अपना सामान्य जीवन क्रम ठीक तरह से चलाने लगा। इतने भयानक मस्तिष्कीय आघात के बाद भी कोई व्यक्ति जीवित बच सकता है, वरन् स्वस्थ सामान्य जीवन व्यतीत कर सकता है, इस पर शरीर विज्ञानियों को सहसा विश्वास नहीं हो सकता। परन्तु वेग की टूटी हुई खोपडी के अस्थि खण्ड तथा उससे सम्बन्धित पदार्थ कागजात हार्वर्ड मेडिकल कालेज बुकलिन के संग्रहालय में सुरक्षित रखी हैं, साथ ही वह बरमा भी रखा हुआ बरमा भी रखा हुआ है जो वेग की खोपड़ी को चीरता हुआ बाहर निकला था।

यह घटना इस बात की साक्षी है कि जीवन मृत्यु से अधिक बलवान है। यहाँ जीवन का अर्थ जन्म और मृत्यु के बीच की अवधि नहीं है, अपितु उस जीवटता से है जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को सक्षम बनाये रखती है। शरीर वैसे हाड़-माँस से बना दिखाई देता है। इसे मिट्टी का पुतला और क्षणभंगुर कहा जाता है, परन्तु इसके भीतर विद्यमान जीवटता को देखते हैं तो कहना पडेगा कि उसकी संरचना अष्ट धातुओं से भी मजबूत तत्वों द्वारा मिलकर बनी हुई है। छोटी-मोटी, टूट-फूट, हारी-बीमारी तो रक्त के श्वेतकण तथा दूसरे संरक्षणकर्ता, शामक तत्व अनायास ही दूर करते रहते हैं, परन्तु भारी संकट आ उपस्थित होने पर भी यदि साहस न खोया जाय तो उत्कट इच्छा शक्ति के सहारे उनका सामना सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

निश्चित ही मृत्यु की विभीषिका और अनिवार्यता से इन्कार नहीं किया जा सकता, न ही विपत्ति का संकट हल्का करके आँका जा सकता है, परन्तु इतना होते हुए भी जिजीविषा की-जीवन आकाँक्षा की-सामर्थ्य सबसे बडी है और उसके सहारे संकटों को पार किया जा सता है।

जीवन के लिए संकट प्रस्तुत करने वाले क्षण बहुत लोगों के सामने आते हैं। उनमें से आधे लोग तो भयभीत होकर हिम्मत हार बैठते हैं। और उस कातर मनःस्थिति में ही बेमौत मारे जाते हैं। पेड़ के नी चीते को खड़ा देखकर बन्दर हक्का-बक्का हो जाता है और हड़बडी घबड़ाहट में नीचे आ गिरता है। चीता उसे चुपचाप मुँह में दबाकर चल देता है। विपत्ति की घड़ी सामने आने पर अक्सर लोग ऐसी ही भयभीत स्थिति में फंस जाते हैं और बेमौत मरते हैं। इसके विपरित यदि उस कठिन समय में उनने अपने मनोबल को स्थिर रखा तो बहुत सम्भव है कि वह विपत्ति बच जाती। इच्छा शक्ति की प्रचण्डता अंग प्रत्यंग में ऐसी अद्भुत सुरक्षा उत्पन्न कर देती है जिसके सहारे माटी का पुतला कही जाने वाली अपनी यही देह मृत्युँजय बन जाती है। मनस्वी और मनोबल सम्पन्न लोगों के ऐसे अगणित उदाहरण अपने चतुर्दिक बिखरे देखे जा सकते हैं।

सन् 1891 की घटना है। एक अंग्रेज मछियारा अपना जहाज लेकर दलबल के साथ ह्वेल मछली का शिकार करने के लिए निकला। आकलैंड द्वीप समूह के पास उसे एक विशालकाय ह्वेल दिखाई पड़ी। दो नावों पर सवार मछुओं ने उस पर ‘भाला’ द्वारा आक्रमण किया। ह्वेल ने पलटा खाया तो एक नाव उसकी पूँछ की चपेट में आ गई। एक नाविक तत्काल डूब गया। दूसरा जेम्स वर्टली गायब हो गया। उसे ह्वेल ने निगल लिया था उसके भी जीवित न बचने की आशा थी। टनों भारी ह्वेल मछली के उदर में समा जाने के बाद साढ़े पाँच छह फुट आदमी का बच सकना सम्भव भी कैसे हो सकता है ? पर यह सम्भव हुआ।

वर्टली जब ह्वेल मछली के पेट में पहुँच गया तो भी उसने अपना होशो-हवास कायम रखा और उसने अपनी पेंट की जेब में रखे हुए शिकारी चाकू से ह्वेल का पेट चीरना आरम्भ कर दिया। हालाँकि ऐसा करने में बडी परेशानी हो रही थी। भीतर की जकड़न कुछ करने नहीं दे रही थी, फिर भी उसने अपना प्रयास जारी रखा और ह्वेल का पेट चीरकर बाहर आने में सफल हो गया। दो दिन बाद वह अचेत अवस्था में समुद्र की सतह पर तैरता हुआ पाया गया। नाविकों ने उसे देखा तो बाहर निकाला और इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया। ह्वेल मछली के पेट में रहने के कारण उसका शरीर क्षत-विक्षत हो गया था। उसका सारा शरीर पीला पड़ चुका था और चमड़ी का रंग तो अन्त तक वैसा ही बना रहा। तीन हप्ते तक उपचार के बाद उसके मस्तिष्क ने काम करना शुरु किया और उसकी बेहोशी टूटी। धीरे-धीरे वह ठीक होता गया और करीब दो महीने में पूरी तरह स्वस्थ होकर घर वापस आ गया।

ह्वेल मछली के पेट में पहुँच जाने के बाद बर्टली को अपने जीवन की रक्षा के लिए जो संघर्ष करना पड़ा था उसका विवरण “डेट डिवैट्स” पत्र के जनवरी 1892 अंक में प्रकाशित हुआ था। वर्टली ने अपने अनुभव बताते हुए लिखा है कि “ह्वेल के मुँह में मैंने एक अंधेरी गुफा में घसीटे गए व्यक्ति की तरह प्रवेश किया। उस तालाब जैसे पेट में साँस लेने की गुँजाइश तो थी पर गर्मी इतनी तेज पड़ रही थी मानों खोलते पानी में उबाला जा रहा हो, फिर भी मैंने साहस से काम लिया। बड़ी कठिनाई से मैंने अपना चाकू निकाला और खोला। मैं मछली की आँतों में बेहतर कसा हुआ था। हिलने-डुलने की गुँजाइश नहीं थी फिर भी किसी तरह चाकू निकाला और मछली का पेट चीरने का सिलसिला चलाया। पेट की परत इतनी मोटी थी कि उसकी परतों को फाड़ने में घण्टों लग गये तब कहीं बाहर निकलने का रास्ता बन सका।

शरीर की शक्ति, सामर्थ्य सीमित है यह ठीक है, पर शरीर से भी अधिक शक्तिशाली और सामार्थ्यवान है- मनोबल। यह मनोबल दुर्बल से दुर्बल काया को भी मृत्युँजयी बना देता है, बड़े से बड़े संकटों को भी पार करा देता है और इसका अभाव साधारण संकटों में भी परास्त कर देता है। स्वामी विवेकानन्द ने मनोबल की महत्ता बताते हुए कहा है, “मनोबल ही सुख सर्वस्व है। यही जीवन है और यही अमरता है तथा मनोदौर्बल्य ही रोग है, दुःख और मृत्यु है।” मनोबल के द्वारा शरीर को अजेय वज्र के समान बनाया जा सकता है। यदि इस शक्ति का भली-भाँति विकास किया जाय तो साधारण से दीखने वाले मानवीय व्यक्तित्व में ही ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न की जा सकती है जो साधारणतया असम्भव महसूस पड़ती हैं। परन्तु जो लोग शरीर पर मन के नियंत्रण का तथ्य जानते हैं उन्हें यह समझना कठिन नहीं होना चाहिए कि इस शक्ति के बल पर देह के अवयव अपनी प्रकृति बदल सकते हैं और मन की इच्छानुसार ऐसी हलचलें भी कर सकते हैं। जो सामान्य प्रयत्नों के द्वारा सम्भव ही प्रतीत हो। साम्राज्ञी मेरीलुइस के संबंध में प्रसिद्ध है कि वह अपनी इच्छानुसार अपने कानों को बिना हाथ से छुए किसी भी दिशा में मोड़ सकती थीं और आगे पीछे हिला सकती थी।

एक फ्राँसीसी अभिनेता अपनी इच्छानुसार अपने बालों को घुमा सकता था। बालों को गिराने, उठाने और घुँघराले बनाने की क्रिया इच्छानुसार कर सकने में अपनी अद्भुत क्षमता के बल पर उसने ढ़ेरों रुपये कमाये। वह एक बाल को घुघ्राला बना लेता और ठीक उसी के बगल वाला बाल चपटा कर लेने का अपना आर्श्चयजनक करतब भी कर दिखाता था। डाक्टरों ने उसका परीक्षण किया और ‘प्रो॰ आगस्ट कैवेनीज’ ने बताया कि उसने अपने सिर की माँस-पेशियों और त्वचा के तन्तुओं को अपनी इच्छाशक्ति के द्वारा असाधारण रुप से विकसित और संवेदनशील बना लिया है।

एक व्यक्ति ने अपने पेट को प्रशिक्षित किया और उसने असाधारण खुराक खाने में ही नहीं उसे पचाने में भी सफलता प्राप्त की। ग्रीस का क्रोटोनाकामिलो नामक पेटू अधिक खाने और पचाने के लिए प्रसिद्ध था। वह एक दिन में 150 पौंड माँस तक खा जाता था। डेट्रायर (मिशीगन) के एडिको, जो एक रेल्वे मजदूर था, ने तो कमाल ही कर दिया। उसने 60 सुअरों के माँस से बनी हुई टिकिया एक दिन में खाकर पचाई। एडिको की सामान्य खुराक सत्तर आदमियों के बराबर थी। उसने केवल इसीलिए शादी नहीं की कि वह जो कमाता था उससे उसका अपना पेट ही नहीं भरता था। फिर बीबी को क्या खिलाता? उसे जितना कुछ वेतन मिलता था, वह उसके लिए प्रायः कम पड़ता था और ऐसी दश में उसके मित्र लोग उसकी सहायता करते थे ताकि वह भूखा न मरे।

कहा जाता है कि नींद न आने पर आदमी पागल हो जाता है और अकाल मृत्यु हो जाती है किन्तु ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें बिल्कुल न सोने वाले लोग सामान्य जीवन जीते रहे और अपना काम ठीक प्रकार चलाते रहे। पेरिस का प्रख्यात वकील जैक्विसल हरवेट 72 वर्ष तक जीवित रहा। इस अवधि में वह 68 वर्ष तक एक क्षण के लिए भी नहीं सोया। चार वर्ष की आयु में ही उसकी नींद खो गई थी। हुआ यह था कि फ्राँस के सम्राट सोलहवें लुई को जब सन् 1793 में फाँसी दी गई तो जैक्विसल भी अपनी माँ के साथ वह दृश्य देखने गया। शूली पर चढ़ाये जाने का दृश्य देखकर जैक्विसल के मन में ऐसी दहशत बैठी कि वह बुरी तरह डर गया और मूर्छित अवस्था में उसे अस्पताल पहुचाया गया। वहाँ वह ठीक तो हो गया, पर उसकी नींद बिल्कुल गायब हो गई। वह इसके बाद एक क्षण के लिए भी नहीं सोया। परन्तु इसका उसके स्वास्थ्य पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा।

कहा गया है कि मन की शक्ति का कोई वारापार नहीं हैं। कई बार तो सये शक्तियाँ अनायास ही जागृत हो जाती हैं, परन्तु ऐसा होता अपवाद रुप में ही है। उन्हें जागृत करने के अलग अभ्यास है जिन्हें योग-साधना भी कहा जा सकता है।

यदि मनोबल का महत्व समझ लिया जाये और उसे अर्जित किया जा सके, संचित किया जा सके तो न केवल बडे-बडे विचलित कर देने वाले संकटों को आसानी से पार किया जा सकता है, वरन् चमत्कार कही जाने वाली सफलताँ भी अर्जित की जा सकती हैं।


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