कर्त्तव्य पालन का अविरल आनन्द

April 1967

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समराँगण की लीला में तलवार आनन्द पाती है, तीर अपनी उड़ान और सनसनाहट में मजा लेता है। पृथ्वी इस आकाश में अपना अन्धाधुन्ध चक्कर लगाने के आनन्द में विभोर है, सूर्यनारायण अपने जगमगाते वैभव में तथा अपनी सनातन गति में सदा सम्राट्-सदृश आनन्द का भोग कर रहा है, तो फिर सचेतन यन्त्र, तू भी अपने नियत कर्म को करने का आनन्द उठा।

तलवार अपने बनाये जाने की माँग नहीं करती, न अपने उपयोगकर्ता के कार्य में बाधा ही डालती है, और टूट जाने पर विलाप भी नहीं करती। बनाए जाने में एक प्रकार का आनन्द है, प्रयुक्त किए जाने में भी एक आनन्द है। इसी के सम आनन्द की तू खोज कर।

क्योंकि तूने यन्त्र को कार्यकर्ता और स्वामी समझने की भूल की है और क्योंकि तू अपनी अज्ञानमयी इच्छा के कारण, अपनी निजी उपयोगिता का विचार करना पसंद करता है, तुझे दुःख और यातनाएँ झेलनी पड़ती हैं, बार-बार लाल दहकती हुई भट्टी के नरक में घुसना पड़ता है, और यह जब तक कि तू अपना मनुष्योचित पाठ पूरा नहीं कर लेगा।

-योगी अरविन्द


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