चित्र गृह-सज्जा के सुन्दर उपकरण हैं। चित्र के प्रति प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक रुचि रहा करती है। शिक्षित व्यक्ति जहाँ चित्र की कला का भी आनन्द लेते हैं वहाँ अशिक्षित एवं अनपढ़ लोग उनके रंगों तथा आकृतियों के प्रति ही आकर्षित हो लेते हैं। इस प्रकार क्या शिक्षित और क्या अशिक्षित दोनों श्रेणियों के व्यक्ति चित्रों के प्रति कोई न कोई रुचि रखते अवश्य हैं और अपने घरों में प्रसन्नतापूर्वक लगाते और टाँगते हैं। चित्र सबको अच्छे लगते हैं किन्तु ऐसे कितने लोग होते हैं जो अच्छे लगने के सिवाय अथवा गृह-शोभा के अतिरिक्त उनका कोई विशेष उपयोग भी जानते हों। चित्र न केवल अच्छे ही लगते हैं बल्कि वे अपने अनुरूप मनुष्य के मन तथा आचरण पर प्रभाव भी डालते हैं। जिस स्थान पर चित्र लगे होते हैं, उस स्थान पर वे अपना एक वातावरण भी बना लेते हैं। जिस कमरे में धार्मिक चित्र लगे होंगे उसमें धार्मिक भावना की एक अविज्ञात अनुभूति अनुभव होगी। जिस कमरे में शृंगारिक चित्र टँगे होंगे निश्चय ही उस कमरे के वायुमण्डल में वासना का भाव तिरता रहेगा। चित्र अपना विशेष प्रभाव डालते हैं इसलिए उनके चुनाव में विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता है।
यह एक स्वाभाविक सत्य है कि मनुष्य जो वस्तु अपनी आँखों से देखता है उसका थोड़ा-बहुत प्रभाव वस्तु के अनुसार अच्छा या बुरा उसके व्यक्त मन पर अवश्य पड़ता है। यदि उसी एक चीज को प्रतिदिन बार-बार देखा जाये अथवा इस पर नजर पड़ती रहे तो उसका सूक्ष्म प्रभाव अनजान में ही गुप्त मन में धीरे-धीरे संचित होता रहता है और इस प्रकार मन्थर गति से स्वभाव संस्कार के रूप में मनुष्य के आचरण में उतरता रहता है कि पता नहीं चलता और मनुष्य का आचरण उसके अनुरूप ढल जाया करता है। यह प्रक्रिया इतनी चोरी-चोरी और मन्द गति से होती है कि मनुष्य सजग या सावधान नहीं हो पाता। इससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि दृष्टि संपर्क किसी में किस सीमा और किस गहराई तक लाभात्मक प्रभाव डाल सकता है।
कमरे में लगे चित्रों पर दिन में अनेक बार दृष्टि पड़ना स्वाभाविक बात है, तो यह भी स्वाभाविक है कि उनकी भूमिका में निवास करने वाली भावनाओं, प्रेरणाओं, सन्देशों तथा विचारों का प्रभाव अंतर्मन पर पड़ेगा ही। यदि वे चित्र महात्माओं, महापुरुषों, देवी-देवताओं अथवा अवतारों के हैं तो बार-बार दृष्टि-संपर्क होने से हमारा गुप्त मन कुछ न कुछ धार्मिक अथवा आध्यात्मिक प्रभाव ग्रहण करता रहेगा जिसका लाभ होना ही है, फिर चाहे वह थोड़ा हो या अधिक। यदि कमरे में लगे चित्र नायिकाओं, नर्तकियों अथवा शृंगार मैथुनों के होंगे तो कहना न होगा कि उनका अवाँछित प्रभाव पड़ेगा जिसके अनुसार भावनात्मक, वैचारिक अथवा चारित्रिक हानि होगी ही।
चित्रों के प्रसंग तथा मुद्राओं एवं भाव-भंगिमाओं का भी कम प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरण के लिए भगवान श्री कृष्ण का चित्र ले लीजिए। यदि उनका चित्र सामान्य त्रिभंगी मुद्रा में वंशी बजाता हुआ है तो वह हृदय में भक्ति -भावना का जागरण करेगा और यदि उनका चित्र अपने सुदर्शन चक्र को लिए रण मुद्रा में है तो हृदय में एक अलौकिक वीर रस का स्फुरण होगा। चित्र की भाव-मुद्रा प्रसन्न, सौम्य तथा शालीन है-हृदय देखकर प्रसन्न हो उठेगा। यदि उसका प्रसंग कारुणिक तथा वेदनापूर्ण है तो निश्चय ही देखने वाला यदि एक बार प्रसन्न भी होगा तो उस चित्र को देखकर उदास तथा विषण्ण हो जायेगा। जहाँ प्रफुल्ल-प्रकृति के अंकित दृश्य प्रफुल्लता उत्पन्न करते हैं वहाँ उजाड़ वीरान तथा उदास संध्या के दृश्य हृदय में एक निराश निर्वेद की प्रतिक्रिया उत्पन्न करेंगे। इस प्रकार चित्र न केवल गृह-सज्जा के उपकरण ही हैं, बल्कि मानव-जीवन में उनका एक विशेष उपयोग है।
चित्र जहाँ मनुष्य के मन पर प्रभाव डालते हैं, वहाँ प्रायः उसकी अभिरुचि तथा वृत्तियों को भी अभिव्यक्ति करते हैं। विभिन्न प्रकार के चित्रों में से जो व्यक्ति आदर्श महापुरुषों देवी-देवताओं तथा महात्माओं के चित्र चुनता है-समझ लेना चाहिए कि इसकी वृत्तियाँ अपेक्षाकृत आदर्शोन्मुखी हैं और इनके विपरीत शृंगारिक प्रसंगों, प्रेम-प्रदर्शनों अथवा उद्दीपक भाव-भंगिमाओं के चित्रों में आकर्षण पाता है। यदि वह व्यक्ति कोई निर्विकार कला पारखी नहीं है तो माना जा सकता है कि इसकी वृत्तियाँ शृंगारिक तथा वासनामय हैं। इस प्रकार यदि कोई अपनी अंतःवृत्तियों को जिनको वह ठीक से समझ नहीं पा रहा है चित्रों के माध्यम से समझ सकता है और उसके अनुसार सावधानीपूर्वक उनमें, यदि कोई आवश्यकता है तो, सुधार-संशोधन कर सकता है। चित्रों का यह उपयोग मनुष्य के लिए कुछ कम महत्व की बात नहीं।
मनुष्य पर चित्रों मूर्तियों अथवा आकृतियों का कितना तीव्र तथा व्यापक प्रभाव पड़ता है उसको जानने-मानने के लिए निम्नलिखित दो उदाहरण पर्याप्त हैं, जिन्हें स्वयं भुक्त भोगी स्तरीय व्यक्तियों ने लिखा है । इनमें से एक श्री रोनाल्ड निक्सन हैं दूसरे श्री डेलकार्नेगी।
प्रथम जर्मन युद्ध में श्री रोनाल्ड निक्सन ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। वे उस युद्ध में हवाई बेड़े में एक ऊँचे अफसर थे। युद्ध का उन्माद उतर जाने पर उनके हृदय में भयंकर विभीषिका अपनी आँखों देखी थी। हत्या, मारकाट, मृत्यु का ताँडव रक्तपात, हाहाकार और चीत्कार ने उनकी शाँति हरण कर ली। उन्होंने लिखा कि मानव विकास के उस वीभत्स दृश्य ने उनके हृदय में भयंकर उथल-पुथल मचा दी। बहुत प्रयत्न करने पर भी उनकी मनःस्थिति शाँत नहीं हो रही थी। मानसिक व्यग्रता ने उन्हें विक्षिप्त सा बना दिया था।
इसी मानसिक उद्विग्नता की स्थिति में वे एक दिन कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय जा पहुँचे। वहाँ उनकी दृष्टि भगवान् बुद्ध की शाँत, सौम्य, सुस्मित तथा प्रेरणादायक प्रतिमा पर पड़ गई। वे रुक गये और ध्यानपूर्वक उस मनोज्ञ मूर्ति को देखने लगे। देखते-देखते उन्हें ऐसा लगा मानो उस शाँतिदायक मूर्ति से निकल-निकल कर शाँत शीतलता की फुहारें संतृप्त हृदय को विश्राम दे रही हैं और आकृति से सन्देश आ रहा है-हे पुत्रों तुम्हारा जीवन शाँति और तृप्ति के लिए है, आनन्दित और प्रफुल्ल रहने के लिये है-अशाँत और उद्विग्न रहने के लिये नहीं। चिंता को त्यागकर सदा प्रसन्न रहो।
भगवान् बुद्ध की मूर्ति को देखते-देखते उनके हृदय की सारी अशाँति दूर हो गई। उनका हृदय निर्मल जल की तरह शीतल हो गया। निराशा और निरुत्साह के विषैले भावों का तिरोधान हो गया और तब से वे सदा प्रसन्न रहने लगे।
अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक श्री डेल कार्नेगी ने अपना अनुभव लिखा है कि जब-जब साँसारिक चिन्तायें तथा कठिनाइयाँ मुझे घेर लेती हैं और मैं परेशान हो उठता हूँ, तब-तब वाशिंगटन के राजप्रसाद में अवस्थित प्रेसीडेन्ट लिंकन के शाँत चित्त पर अपना ध्यान केन्द्रित कर देता हूँ। लिंकन के उस चित्र का दर्शन करते -करते मुझमें नया उत्साह, नई प्रेरणाएं, आशा और साहस जाग उठता है और मैं फिर सन्तुलित होकर अपने कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर हो उठता हूँ।
यह है चित्रों का प्रभाव तथा उपयोग। घर की सज्जा मात्र के लिए ही चित्र लगाने में उनका प्रयोजन पूरा नहीं हो जाता। उनका प्रयोजन तभी पूरा होगा जब उन चित्रों को ध्यान से देखा जाये और उनसे उपयोगी प्रेरणायें तथा स्फूर्ति प्राप्त की जाए। कहना न होगा कि जिनके घरों में निकृष्ट एवं निम्न कोटि के चित्र लगे होंगे, वे उनसे जीवनोत्थान की प्रेरणायें किस प्रकार प्राप्त कर सकेंगे? यदि वे कोई प्रेरणा अथवा स्फूर्ति उनसे प्राप्त करेंगे तो वह चित्र के अनुसार ही निम्न एवं निम्न कोटि का होगा।
बच्चों पर चित्रों का बड़ा गहरा तथा दूरगामी प्रभाव पड़ता है। उनका सुकुमार, जिज्ञासु तथा असावधान मस्तिष्क चित्रों के अनुरूप प्रेरणायें गुप्त मन में संचित करता रहता है जो आगे चलकर संस्कार रूप में प्रकट होते हैं। बच्चे बहुधा उत्सुक तथा जिज्ञासु भी होते हैं वे जब-तब चित्रों के विषय में जानने के लिए प्रश्न भी कर उठते हैं। अब यदि कमरे के चित्र आदर्श श्रेणी के हैं तो निस्संकोच भाव से उन्हें उनके विषय में बताया जा सकता है और यदि चित्र निम्न कोटि के अथवा अभद्र या अश्लील हैं तो उनके विषय में बच्चों को कुछ भी नहीं बताया जा सकता है। इसके लिये उन्हें टालना अथवा निरुत्साह करना होगा। यह व्यवहार बच्चों के विकासशील मस्तिष्क पर हानिकारक प्रभाव ही डालेगा। साथ ही उनका जिज्ञासु मन कोई रहस्य समझकर चित्रों के विषय में जानने के लिए और अधिक जिज्ञासु हो उठेगा और सम्भव है तब ये उसके विषय में किसी दूसरे से जानकारी पाने का प्रयत्न करें। और नहीं तो इतना तो होगा ही कि उन निषेध प्रतिमाओं की ओर उनकी जिज्ञासा अधिक बलवती हो जायेगी और वे उसे अधिक बार, अधिक ध्यान से देखेंगे। फलस्वरूप उनका अवाँछनीय प्रभाव उनके अवचेतन में अधिक मात्रा तथा गहराई से संचित होता रहेगा।
चित्र बच्चों तथा नाजानकारों के लिये शिक्षा के बड़े अच्छे माध्यम हैं। कमरे में बैठे-बैठे बच्चे को आदर्श पुरुषों, महात्माओं, योद्धाओं, बलिदानियों तथा देश, धर्म तथा समाज-सेवियों, त्यागियों तथा कर्त्तव्य-निष्ठों के चरित्र, कथन तथा विचारों से अवगत कराया जा सकता है। इस प्रकार रुचि तथा मनोरंजन के साथ बताई हुई बातें बच्चे अपेक्षाकृत जल्दी तथा स्थायी रूप से ग्रहण कर लिया करते हैं। यही कारण है कि पाठशालाओं तथा विद्यालयों में बच्चों को पाठ पढ़ाने के साथ-साथ नक्शों, खाकों, प्रतिमाओं तथा चित्रों को दिखाने और समझने की प्रणाली प्रयुक्त की जाती है। पाठ्य-पुस्तकों में पाठ के नायक, घटनाओं तथा दृश्यों के चित्र देने के पीछे यही मन्तव्य रहा करता है। उनका मात्र प्रयोजन पुस्तकों को सजावट ही नहीं होता। चित्रों का दर्शन शब्दों की तरह ही चरित्र पर प्रभाव डालता हैं।
बुद्धिमान गृहस्थ बच्चों को सत्सन्तान बनाने के मन्तव्य से घरों का वातावरण अनुकूल तथा प्रेरणाप्रद बनाते रहने के लिए जहाँ अन्य आवश्यक निधियों का अवलम्बन लेते हैं वहाँ चित्रों, मूर्तियों तथा दृश्यों के चुनाव में सावधानी से काम नहीं लेते। जहाँ भारतीय संस्कृति, धर्म तथा इतिहास में ऐसे अनेकों नायक तथा देवी-देवता हैं कि जिनके चित्र सजाने से घर का वातावरण शुद्ध, स्वच्छ, सभ्य, प्रेरणादायक तथा देवोपम हो सकता है वहाँ वे घरों में नारियों के अर्धनग्न, अश्लील, अभद्र अथवा निरुपयोगी चित्रों को लगाकर घर का वातावरण अवाँछनीय बना देते हैं और यह विचार नहीं करते कि इनका प्रभाव बच्चों, स्त्रियों तथा स्वयं उन पर क्या पड़ेगा? आजकल जिधर देखो हाट, घर, दुकानों तथा दीवारों पर इसी प्रकार के अवाँछनीय चित्र टँगे तथा बने दिखाई देते हैं। समाज में फैली आज की इस अश्लीलता, अभद्रता, अमर्यादा, अनुशासनहीनता, तथा फैशनपरस्ती की विकृतियों के पीछे बहुत कुछ चित्रों के चुनाव में लोगों की असावधानी तथा कुरुचि काम कर रही है। अपने, अपने बच्चों, समाज तथा राष्ट्र के वैचारिक, भावनात्मक तथा चारित्रिक कल्याण के लिए जरूरी है कि आदर्श, नैतिक तथा प्रेरणाप्रद चित्रों का चुनाव तथा प्रदर्शन ही किया जाये, अवाँछनीय अथवा अयोग्य चित्रों का नहीं।