प्रतिकूलताओं की चुनौती स्वीकार कीजिये।

April 1967

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संसार में ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं है जो अपनी हीनावस्था का कारण अपने दुर्भाग्य को बतलाया करते हैं। उनसे बात कीजिये और पूछिये कि भाई, आप जो इस प्रकार विपन्नता में जीवन काट रहे हैं, इसमें आपको संतोष किस प्रकार हो रहा है और इस दशा को बदलने के बजाय हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हुए हैं।

इस सहानुभूति के उत्तर में उनका कथन होगा कि-क्या करें हमारा भाग्य ही खराब है, परमात्मा ने हमारे भाग्य में दुःख दर्द ही लिखे हैं सो भोग रहे हैं। यदि हमारे भाग्य में सुख-सुविधा होती तो क्या अन्य लोगों की तरह हमारा जन्म भी अमीर अथवा साधन सम्पन्न घर में नहीं होता? हम जानते हैं कि हमारा भाग्य खराब है इसलिये कोई उद्योग करना भी बेकार है।”

लोगों का ऐसा निराशापूर्ण उत्तर सुन कर तरस आए बिना नहीं रहता। यह भाग्य एवं भविष्य के “जानपाडे” उपाय एवं उद्योग की अपेक्षा विपन्नतावस्था में अधिक विश्वास करते हैं। उनका गरीब होना वास्तव में उतना दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है जितना कि उनका यह निराशापूर्ण अन्धविश्वास।

कितने आश्चर्य की बात है कि भाग्य के अन्धविश्वासी अपनी दशा बदलने का उपाय किये बिना ही बड़ी आसानी से यह मान लेते हैं कि गरीबी तो उनका प्रारब्ध भोग है। वह किसी उपाय अथवा उद्योग से नहीं बदली जा सकती। इसलिये इसके विरोध में डट कर मोर्चा लेना बेकार है। इस प्रकार के भाग्य -ज्ञाताओं को जरा सोचना चाहिये कि जब तक उन्होंने परिचय एवं पुरुषार्थ नहीं किया तब तक उन्हें यह किस प्रकार पता चल गया कि कोई भी उद्योग सफल न होगा।

हो यह भी सकता है कि उन्होंने उद्योग किया हो ओर वे असफल रहे हों। किन्तु एकबार की असफलता से घबरा कर बैठ रहना और यह मान लेना कि उनका भाग्य ही खोटा है, सफलता उन्हें नहीं मिल सकती कोई अर्थ नहीं रखता। उद्योग का अर्थ है बार-बार उपाय करना , निरन्तर एवं नितान्त परिश्रम करना अपने काम में तब तक जुटे रहना जब तक उद्देश्य पूरा न हो जाये। मैदान में उतरे और जरा-सी कठिनाई देखते ही भाग खड़े हुए और मान लिया कि सफलता उनके भाग्य में ही नहीं है। परिश्रम एवं पुरुषार्थ करना निरर्थक है, मनुष्यता नहीं कही जा सकती। उपाय एवं उद्योग एकबार में ही सफल नहीं होता उसके लिए बार-बार प्रयत्न करना होता है।

यदि निराश व्यक्ति बार-बार प्रयत्न करने की बात कहता है तो या तो उसका कथन विश्वास के योग्य नहीं है अथवा उसके प्रयत्न के समानान्तर यह अपविश्वास अवश्य चलता रहा होगा कि ‘उसका भाग्य खोटा है उसका प्रयत्न सफल नहीं होता।’ निश्चय ही उसकी बार-बार की असफलता में उसकी यह भावना हेतु रही है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि जो व्यक्ति अपने पूरे तन, मन एवं साहस के साथ निरन्तर प्रयत्न करे वह सफल न हो । ऐसा कभी नहीं हो सकता।

अविश्वास के साथ किया हुआ कोई भी कार्य सफल नहीं होता। अपने प्रयत्नों में विश्वास न रखने वाले व्यक्ति की शक्तियाँ अपमानित जैसा अनुभव करती रहती हैं और कभी भी पूरी तरह से काम नहीं करतीं। अपने प्रयत्न को दुर्भाग्य का अभिशाप देने वाले नासमझ लोग शुभ संकल्पों का महत्व नहीं जानते, इसीलिए आत्म अभिशापि उनके प्रयत्न निष्फल चले जाते हैं। अपने को किसी दूसरे का शाप लगे या न लगे किन्तु अपना शाप अवश्य लग जाता है।

अपनी समुन्नति में प्रतिकूल सम्भोगों अथवा भाग्यहीनता को हेतु मानना अपने को भ्रम में रखना और आत्मविश्वास को धोखा देना है। अपने साथ इस प्रकार का विश्वासघात करने वाले निश्चय ही जीवन में सफलता का सौभाग्य नहीं ले पाते। अपने से विश्वासघात करने की निकृष्ट भावना को छोड़कर उन्हें आँख फैला कर चारों ओर देखना चाहिये और समझने की कोशिश करनी चाहिए कि आज जो उनके सामने ही उन्नति के शिखर पर चढ़ गये हैं और दिन-दिन अग्रसर होते जा रहे हैं वे सब क्या जन्म-जात सुविधाओं के अधिकारी रहे हैं? इतिहास साक्षी है कि संसार के प्रसिद्धिवादी व्यक्तियों में से अधिकाँश ऐसी कठिन परिस्थितियाँ में जन्मे, ऐसी वज्र-विवशताओं में पले और ऐसे प्रतिकूलताओं की छाया-मात्र भी उन जैसे निराशावादियों पर पड़ जाती तो कदाचित् उन्होंने रो-रो कर जान ही दे दी होती।

हिम्मत हार कर बैठे व्यक्तियों को सोचना चाहिए कि उनके आस पास उन्हीं जैसी परिस्थितियों में जो लोग रह रहे हैं उनमें से आगे चलकर न जाने कितने लोग धनवान् विद्वान, कलाकार तथा जन-नेता आदि बन कर जीवन को सफल बनायेंगे, तब क्या कारण है कि वे वैसा नहीं बन सकते? कारण केवल यही है कि ये उद्योगशील आशावादी उन जैसे दुर्भाग्यवादी नहीं हैं। वे बलपूर्वक बदलने में विश्वास रखते हैं। यदि जन्म-जात सुविधायें ही उन्नति एवं महानता का कारण होतीं तो निश्चय ही संसार के सारे साधन सम्पन्न व्यक्तियों को चाँद-सूरज की तरह चमकना चाहिये था । किन्तु ऐसा देखा कहीं नहीं जाता। कठिन परिस्थितियाँ अथवा प्रतिकूल संयोग ही किसी की उन्नति एवं विकास में विजयी रहे होते तो न तो आज तक कोई गरीब से अमीर बन पाया होता और न निम्न से महान्। और न आगे ही कोई ऐसा परिवर्तन प्राप्त कर सकने की सम्भावना ही रख सकता है। लोग प्रतिकूलताओं को जीत कर आगे बढ़े हैं, बढ़ रहे हैं और भविष्य में भी बढ़ते जायेंगे। किन्तु आत्मविश्वास एवं पुरुषार्थ के बल पर।

अपनी दयनीयता का दोष परमात्मा को देने से कहीं अच्छा है कि अपने अपरिश्रमी स्वभाव को दिया जाए। वह समदर्शी परम पिता परमात्मा कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करता। उसके पास देने के लिये जो न्याय का कोष है उसका भाग वह सबको पात्रता के अनुसार न्यायपूर्वक ही देता है। जगत् में आकर जो पुरुषार्थी एवं आत्मविश्वासी व्यक्ति अपनी पात्रता की वृद्धि कर लेते हैं निश्चय ही वे उसकी कृपा का अधिक अंश पा लेते हैं। परमात्मा मनुष्य के प्रयत्न पात्र को अपनी कृपा से लबालब भरे रहता है। अब जो अपने प्रयत्न को छोटा कर लेता है कृपा का अंश उसमें से कम हो जाता है और जो उसको जितना विशाल बना लेता है उसकी कृपा का उतना ही अंश उसमें बढ़ जाता है। अपनी प्रयत्न हीनता को दोष ने देकर परमात्मा को दोष देना उसकी न्यायशीलता में एक अक्षम्य अशिष्टता तथा धृष्टता है। यह उनकी इस दुष्ट भावना का भी फल होता है कि आशा की ओर से अन्धे होकर निराशा का हाथ पकड़े हुए जीवन का मार्ग टटोल कर ठोकरें खाते फिरते हैं। यह उनकी इस धृष्टता का ही परिणाम है कि उनका विश्वास सौभाग्य के प्रति होने के स्थान पर दुर्भाग्य के प्रति दृढ़ रहता है। अपना कल्याण चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का पावन कर्तव्य है कि वह परमात्मा को दोष देने के बजाय, उसकी कृपा में न्यूनता खोजने के बजाय अपने निष्क्रिय स्वभाव, उपयोगी प्रवृत्ति एवं निराशापूर्ण विश्वासों को दोष दे और अपनी कमियों त्रुटियों एवं न्यूनताओं की खोज करे और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करे। मनुष्य जब तक भी अपनी विवशताओं की खोज अपने में न करके उनका दोष दूसरों को देता रहेगा यों ही दयनीय एवं दुर्भाग्यपूर्ण जीवन बिताता रहेगा।

लोग गरीबी को दोष देते-देते सारी जिन्दगी गुजार देते हैं और कभी कुछ नहीं कर पाते। जिसकी बुद्धि जिसका मन और जिसकी शक्तियाँ गरीबी के अपरिवर्तनीय विश्वास चंगुल में फँसी हुई उसी को कोसने में लगी रहती है उसके पास कुछ और करने के लिये अवकाश कहाँ रह जाता है। अकर्मण्यता एक छोटा सा बहाना पाकर ही सामने पथ-रोधक पहाड़ खड़े कर देती है तब गरीबी तो नर-नरों के एक चुनौती जैसी होती है। जिस गरीबी को लोग जीवन को डसने वाली नागिन बतला कर कोसा करते हैं उसे ही अनुभवी विद्वान लोग कुछ कर दिखाने का एक अवसर बताया करते हैं। उनका कहना है कि गरीबी का अनुभव यद्यपि कटु होता है तब भी वह मनुष्य के लिए बड़ी हितकर सिद्ध होती है। वह औषधि की तरह मनुष्य के स्वभावगत न जाने कितने दोष-दुर्गुणों को दूर कर देती है। आविष्कार की जननी आवश्यकता के अनुसार गरीबी भी मनुष्य में ऐसे अनेक महत्वपूर्ण गुणों को उत्पन्न कर देती है जो सम्पन्नता की दिशा में सहज सम्भाव्य नहीं होते। गरीबी को चुनौती मानकर उसका मुकाबला करने के लिये कटिबद्ध होने वाले साहसियों में दूरदर्शिता सहन-शीलता, कर्मठता, संलग्नता एवं व्युत्पन्न बुद्धि की हितकारी विशेषताएँ आ जाया करती हैं। मनुष्य का बिगड़ा हुआ जीवन सुधर जाया करता है।

निःसन्देह विद्वानों का यह कथन केवल विश्वसनीय ही नहीं श्रद्धेय भी है! उनके इस कथन में आस्था रख कर चलने वाले व्यक्तियों के लिये गरीबी एक स्वर्णावसर, एक हितकारी परिस्थिति एवं एक वरदान सिद्ध होती है। किन्तु कब, जब कोई अपनी इस आस्था के साथ प्रयत्न एवं उद्योग की कारिकायें जोड़ देता है। अन्यथा अकर्मण्यता के लिये गरीबी निश्चय ही एक विषैली नागिन है जो उसे डस कर नष्ट ही कर देगी।

गरीबी के साथ यदि एक बार इस प्रकार की उच्च भावनायें अथवा आस्थायें तभी जोड़ी जाएं और उसे एक विरोधी परिस्थिति ही मान लिया जाये तो क्या विरोधी के हाथ नष्ट हो जाना किसी प्रकार शोभा देता है? अपने जीवन को केवल इसलिए रो-रो कर नष्ट कर देना कि परमात्मा ने उसे सुख-सम्पत्ति के बीच जन्म न देकर प्रतिकूल परिस्थितियों में पैदा किया है कहाँ तक उचित है? गरीबी के प्रति असन्तोषपूर्ण किसी का रोना इस बात की गवाही है कि वह उससे अच्छी परिस्थितियों को पाने के लिए व्यग्र एवं लालायित है। किन्तु क्या यह लालसा केवल लालायित होने और व्यग्र बने रहने-मात्र से पूरी हो सकती है? केवल कामना करते रहने से न तो कोई आज तक पूर्ण काम हुआ और न आगे ही होगा इसके लिये प्रयत्न एवं पुरुषार्थ, सो भी अवधि एवं अदिशान्त पुरुषार्थ करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है।

गरीबी को कोसते, कठिनाइयों पर बड़बड़ाते और प्रतिकूलताओं के प्रति क्रोध दिखलाते रहने से कोई काम न चलेगा। यदि वास्तव में आप सच्चे मन से अपनी परिस्थिति बदलना चाहते हैं और जीवन में सफलता का श्रेय लेना चाहते हैं तो आपको कमर कस कर इस संकल्प के साथ उठना ही होगा कि मैं मनोवाँछित श्रेय पाने के लिए अपने जीवन की सारी शक्तियों को मैदान में उतारूंगा और हजार असफलताओं के बाद भी सफलता प्राप्त कर के रहूँगा। ऐसा संकल्प कर के उठते ही आपकी सारी शक्तियाँ, सारी क्षमताएँ एवं सारी विशेषताएँ दूने उत्साह के साथ आपका सहयोग करेंगी और आप अवश्य ही अपने मन्तव्य में सफल होंगे।


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