आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान् देवता-भगवान् शिव

April 1967

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भारतीय संस्कृति में देवताओं की विचित्र कल्पनायें की गई हैं। उनकी मुखाकृति, वेष-विन्यास, रहन-सहन, वाहन आदि के ऐसे विचित्र कथानक जोड़कर तैयार किये गये हैं कि उन्हें पढ़कर यह अनुमान करना भी कठिन हो जाता है कि वस्तुतः कोई ऐसे देवता है भी अथवा नहीं।

चार मुख के ब्रह्मा जी, पश्चमुख महादेव, षट्मुख कार्तिकेय, हाथी की सूँड़ वाले श्री गणेशजी, पूँछ वाले हनुमानजी-यह सब विचित्र-सी कल्पनायें हैं, जिन पर मनुष्य की सीधी पहुँच नहीं हो पाती उसे या तो श्रद्धावश देवताओं को सिर झुकाकर चुप रह जाना पड़ता है या तर्कबुद्धि से ऐसी विचित्रताओं का खण्डन कर यही मान लेना पड़ता है कि ऐसे देवताओं का वस्तुतः कहीं कोई अस्तित्व नहीं है।

पौराणिक देवी-देवताओं के जो वर्णन मिलते हैं उन पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो पता चलता है कि इन विचित्रताओं के पीछे बड़ा समुन्नत आध्यात्मिक रहस्य छिपा हुआ है। मानव-जीवन के किन्हीं उच्च आदर्शों और स्थितियों का इस तरह बड़ा ही कलापूर्ण दिग्दर्शन किया है, जिसका अवगाहन करने मात्र से मनुष्य दुस्तर साधनाओं का फल प्राप्त कर मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकता है।

इस प्रकार के आदर्श आदिकाल से मनुष्य को आकर्षित करते रहे हैं। मनुष्य उनकी उपासना करता रहा है और जाने अनजाने भी इन आध्यात्मिक लाभों से लाभान्वित होता रहा है। इन्हें एक प्रकार से व्यावहारिक जीवन की मूर्तिमान उपलब्धियाँ कहना चाहिए। उस जीवन-क्रम में इतना सरल और सुबोधगम्य बना देने में भारतीय आचार्यों की सूक्ष्म बुद्धि का उपकार ही मानना चाहिए, जिन्होंने बहुत थोड़े में सत्य और जीवन-लक्ष्य की उन्मुक्त अवस्थाओं का ज्ञान उपलब्ध करा दिया है।

शैव और वैष्णव यह दो आदर्श भी उन्हीं में से हैं शिव और विष्णु दोनों आध्यात्मिक जीवन के किन्हीं उच्च आदर्शों के प्रतीक हैं। इन दोनों में मौलिक अन्तर इतना ही है कि शिव आध्यात्मिक जीवन को प्रमुख मानते हैं उनकी दृष्टि में लौकिक सम्पत्ति का मूल्य नहीं है, वैराग्य ही सब कुछ है जबकि विष्णु जीवन के लौकिक आनन्द का भी परित्याग नहीं करते हैं।

यहाँ हमारा उद्देश्य इन दोनों स्थितियों में तुलना या श्रेष्ठता के आधार ढूँढ़ना नहीं है। शिव के आध्यात्मिक रहस्यों का ज्ञान कराना अभीष्ट है ताकि लोग इस महत्व का भली भाँति अवगाहन कर अपना जीवन-लक्ष्य सरलता पूर्वक साध सकें।

शिव का आकार लिंग माना जाता है। उसका अर्थ यही है कि यह सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। साँसारिक रूप-सौंदर्य और विविधता में घसीटकर उस मौलिक सौंदर्य को तिरोहित नहीं करना चाहिए।

शिव के स्वरूप, अलंकार और जीवन सम्बन्धी घटनाओं का और भी विशद् वर्णन मिलता है। ऐसे प्रत्येक प्रसंग में या तो किसी दार्शनिक तत्व का विवेचन सन्निहित है अथवा व्यावहारिक आचरण की शिक्षा दी गई है। आइये,इन पर एक-एक करके विचार किया जाये-

(1) शिव का स्वरूप-भगवान शंकर के स्वरूप में जो विचित्रतायें हैं वह किसी मनुष्य की देह में सम्भव नहीं इसलिए उसकी सत्यता संदिग्ध मानी जाती है पर हमें यह जानना चाहिए कि यह चित्रण सामान्य नहीं, अहंकार हैं जो मनुष्यों में योग-साधनाओं के आधार पर जागृत होते हैं।

(क) माथे पर चन्द्रमा-चन्द्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है अर्थात् योगी का मन सदैव चन्द्रमा की भाँति उत्फुल्ल, चन्द्रमा की भाँति खिला और निःशंक होता है। चन्द्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है अर्थात् उसे जीवन की अनेक गहन परिस्थितियों में रहते हुए भी किसी प्रकार का विभ्रम अथवा ऊहापोह नहीं होता। वह प्रत्येक अवस्था में प्रमुदित रहता है, विषमताओं का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

(ख) नीलकंठ-पुराणों में ऐसी कथा आती है कि देवों और दानवों को रक्तपात बचाने के लिए भगवान् शंकर ने विष पी लिया था और तब से इनका कंठ नीला है अर्थात् इन्होंने विष को कंठ में धारण किया हुआ है। इस कथानक का भी सीधा सम्बन्ध योग की सिद्धि से ही है। योगी पुरुष अपने सूक्ष्म शरीर पर अधिकार पा लेता है जिससे उसके स्थूल शरीर पर बड़े तीक्ष्ण विषों का भी प्रभाव नहीं होता। उन्हें भी वह सामान्य आहार की तरह पचा लेता है। यह बात इस तरह भी है कि संसार के मान अपमान, कटुता-क्लेश आदि दुःख -कष्टों का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। उन्हें भी वह साधारण घटनायें मानकर आत्मसात् कर लेता है और संसार का कल्याण करने की अपनी आत्मिक वृत्ति में निश्चल भाव से लगा रहता है। दूसरे व्यक्तियों की तरह लोकोपकार करते समय उसे स्वार्थ आदि का कोई ध्यान नहीं होता। वह निर्विकार भावना से संसार की भलाई में जुटा रहता है। खुद विष पीता है पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है।

(ग) विभूति रमाना-शिव ने सारे शरीर पर भस्म रमा रखी है। योग की पूर्णता पर संयम-सिद्धि होती है। योगी अपने वीर्य को शरीर में रमा लेते हैं जिससे उसका सौंदर्य फूट पड़ता है। इस सौंदर्य को भस्म के द्वारा सौंदर्य बढ़ाने की आवश्यकता नहीं रहती। अक्षुण्ण संयम ही उसका अलंकार बन गया है, जिससे उसका स्वास्थ्य और शरीर सब काँतियुक्त हो गये हैं।

(घ) तृतीय नेत्र-योग की भाषा में इसे ‘नेत्रोन्मीलन’ या आज्ञा-चक्र का जागरण भी कहते हैं। उसका सम्बन्ध गहन आध्यात्मिक जीवन से है। घटना-प्रसंग जुड़ा हुआ है कि शिवजी ने एक बार तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भी जला दिया था। योगी का यह तीसरा नेत्र यथार्थ ही बड़ा महत्व रखता है। सामान्य परिस्थितियों में यह विवेक के रूप में जागृत रहता है, पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि कामवासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है। इसे वैज्ञानिक बुद्धि का प्रतिनिधि भी कहा जा सकता है। पर सबका तात्पर्य यही है कि तृतीय नेत्र होना साधारण क्षमता से उठाकर विशिष्ट श्रेणी में पहुँचा देना है। भारतीय संस्कृति का यह वैज्ञानिक पहलू कहीं अधिक मूल्यवान भी है।

भगवान् शिव का वाहन वृषभ है। वृषभ सौम्यता और कर्मठता का प्रतीक माना जाता है। तात्पर्य यह कि शिव का साहचर्य उन्हें मिलता है, जो स्वभाव से सरल और सौम्य होते हैं, जिनमें छल-छिद्र आदि विकार नहीं होते। साथ ही जिनमें आलस्य न होकर निरन्तर कर्म करने की दृढ़ता होती है। श्मशान में उनका निवास है अर्थात् वे मृत्यु को कभी भूलते नहीं। भगवान् की शक्ति और नियमों को मृत्यु की तरह अकाट्य मानकर चलने में मनुष्य की आध्यात्मिक वृत्तियाँ जागृत रहती हैं जिससे वह लौकिक कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी अपने जीवन-लक्ष्य की ओर निष्काम भाव से चलता रह सकता है। मृत्यु को लोग भूले रहते हैं, इसलिए बुरे कर्म करते हैं। इस महातत्त्व की उपासना का अर्थ अपने आप को बुरे कर्मों से बचाये रखने के लिये प्रकाश बनाए रखना होता है। इस तरह की जीवन-व्यवस्था व्यक्ति को असाधारण बनाती है। वह शक्ति शिव में पाई जाती है, शिव के उपासकों में भी वह वृत्तियाँ धुली हुई होनी चाहिए।

यह प्रसंग भगवान् शिव की आध्यात्मिक शक्तियों पर प्रकाश डालते हैं। इनके साथ कथानक और घटनायें भी जुड़ी हुई हैं जो जीवन के आदर्शों की व्याख्या करती है इनमें से गंगावतरण की कथा मुख्य है। गंगाजी विष्णुलोक से आती हैं। यह अवतरण महान् आध्यात्मिक शक्ति के रूप में होता है। उसे संभालने का प्रश्न बड़ा विकट था। शिवजी को इसके उपयुक्त समझा गया और भगवती गंगा को उनकी जटाओं में आश्रय मिला। गंगा जी यहाँ ज्ञान की प्रचण्ड आध्यात्मिक शक्ति के रूप में अवतरित होती है। लोक-कल्याण के लिए उसे धरती पर प्रवाहित करने की बात है ताकि अज्ञान से मरे हुए लोगों को जीवन-दान मिल सके पर उस ज्ञान को धारण करना भी तो कठिन बात थी जिसे शिव जैसा संकल्प-शक्ति वाला महापुरुष ही धारण कर सकता है अर्थात् महान् बौद्धिक क्रान्तियों का सृजन भी कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसके जीवन में भगवान शिव के आदर्श शिव के आदर्श समाये हुये हों वही ब्रह्म-ज्ञान को धारण कर उसे लोक हितार्थ प्रवाहित कर सकता है।

गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिवजी के जीवन की दूसरी महत्वपूर्ण घटना है। साँसारिक व्यवस्था को चलाकर भी वे योगी रहते हैं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। वे अपनी धर्मपत्नी को भी मातृशक्ति के रूप में देखते हैं। यह उनकी महानता का दूसरा आदर्श है। यहाँ उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि गृहस्थ रहकर भी आत्म-कल्याण की साधना असम्भव नहीं। जीवन में पवित्रता रखकर उसे हँसते खेलते पूरा किया जा सकता है।

यह सभी आदर्श इस बात की शिक्षा देते हैं कि मनुष्य शिव की तरह संसार के पदार्थों और समाज में प्रचलित परम्पराओं का आध्यात्मिक मूल्याँकन करना सीख ले तो निस्सन्देह उसका शारीरिक और सामाजिक जीवन अधिकाधिक निरापद होता चला जायेगा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिव मानव-जीवन की उन सभी आध्यात्मिक विशेषताओं के प्रतीक हैं जिसके बिना मनुष्य-जीवन पाने का अर्थ हल नहीं होता। मनुष्य का धर्म उसकी विवेक बुद्धि है जिसके सहारे वह ज्ञान-विज्ञान की ओर अग्रसर होता है और मनुष्य से देव बनने में समर्थ होता है। इस तरह की सामर्थ्य प्राप्त करके ही आत्म-कल्याण और लोक-हित की परम्परा जीवित रखी जा सकती है। यह सन्देश हमें आदिकाल से भगवान शिव देते चले आ रहे हैं। इन आध्यात्मिक रहस्यों की ओर से हमें उपेक्षा नहीं रखनी चाहिए।


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