ईर्ष्या-एक अहितकर विकृति

April 1967

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ईर्ष्या हल्की मनोभूमि के लोगों को बड़ी जल्दी अपना शिकार बना लेती है। संसार की सारी विकृतियों का निवास क्षुद्र मानसों में ही रहता है इसका कारण है-क्षुद्र मानस अथवा हल्की मनोभूमि के व्यक्ति में शक्ति-सामर्थ्यों की कमी रहती है। इस कमी के कारण उनमें पुरुषार्थ की मात्रा की भी कमी रहती है-जिसके फलस्वरूप वे अपने जीवन में सन्तोषजनक कोई काम नहीं कर पाते। वे निरन्तर अपने अन्दर एक खालीपन अनुभव किया करते हैं। जो जीवन में कुछ सन्तोषजनक काम नहीं कर सका, वह दूसरों की सफलता देखकर जलेगा ही। असन्तोष ही वास्तव में ईर्ष्या का जन्मदाता है। मनुष्य या तो कोई सन्तोषजनक कार्य कर सके अथवा अपनी स्थिति में सन्तुष्ट रहे तो वह अवश्य ही ईर्ष्या को आग से बचा रह सकता है। सब लोग तो ऊँचे कार्य कर नहीं सकते, क्योंकि हर एक की अपनी एक सीमा, एक शक्ति तथा एक परिस्थिति हुआ करती है। चाहते हुए भी अनेक लोग संयोग अथवा सीमाओं के कारण कोई सफलता नहीं पाते। इसलिए ईर्ष्या की आग से बचने का एक ही सार्वजनीन उपाय है कि अपनी स्थिति में सन्तुष्ट रहा जाये। यह उपाय ऊँचे काम कर सकने वाले और न कर सकने वाले दोनों के लिए व्यवहार्य हो सकता है।

सन्तोष सिद्ध कर लेना स्वयं ही एक महान् एवं श्रेयस्कर कार्य है। सन्तोषी व्यक्ति सफलता एवं असफलता दोनों दशाओं में समान रूप से प्रसन्न रहता है। यही अविकल प्रसन्नता मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है-इसको पा लेना एक बड़ा काम है, एक प्रशंसनीय उपलब्धि है। सन्तोष असफलताओं को भी सफलता का दर्जा दिला देता है।

यदि आप में ईर्ष्या की एक भी चिनगारी हो तो उसे तुरन्त होशियार होकर बुझाने का प्रयत्न करना चाहिए। ईर्ष्या की आग किसी दूसरे का तो कदाचित् यदा-कदा ही अहित कर सकती है किन्तु ईर्ष्यालु को तो हर समय ही जलाया करती है। अँगीठी में आग जलती है। जब कोई व्यक्ति अथवा वस्तु उसके संयोग में आती है तभी जल पाती है, किन्तु अँगीठी हर समय तपती रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि लोहे की अँगीठी कुछ ही समय में जल-जलकर झड़ जाती है और जल्दी ही बेकार हो जाती है। यही दशा एक ईर्ष्यालु की होती है। वह यदि किसी का अहित करना भी चाहे तो उसके लिए अवसर आने पर भी वह किसी का अहित कर पायेगा, इसका कोई निश्चय नहीं। क्योंकि अन्य लोगों के पास भी बुद्धि और बल रहा करता है। जब-तक कोई अवसर आता है तब तक ईर्ष्यालु अपनी आग में आप जलता हुआ ढेर हो लेता है। उसके मन, मस्तिष्क तथा आत्मा शनैः शनैः दुर्बल होते रहते हैं और शीघ्र ही उसका अधःपतन हो जाता है। आज तक कोई भी ईर्ष्यालु व्यक्ति जीवन में कोई उन्नति करता नहीं देखा गया है। उसका मन-मस्तिष्क तो कलुषित होकर द्वेष की उपासना में लगा रहता है। उसका शरीर डाह से झुलसकर निःशक्त हो जाता है, तब भला इस प्रकार नष्ट एवं मृत प्रायः हो जाने वाला व्यक्ति उन्नति एवं विकास के लिए पुरुषार्थ कर भी क्या सकता है?

उन्नत स्थिति वाले ऐसे अनेक व्यक्ति भी मिल सकते हैं जिनमें ईर्ष्या, द्वेष की दुर्बलता हो-किन्तु यह निश्चित है कि या तो उनकी वह स्थिति संयोग का फल है अथवा परप्रदत्त। उसमें उसका अपना कोई पुरुषार्थ नहीं होगा और यदि वह स्थिति उनकी आत्म-अर्जित है तो अवश्य ही वे जिस समय उन्नति-मार्ग पर चलने के लिए बढ़े होंगे उस समय उनमें ईर्ष्या का विष नहीं ही रहा होगा। यह विकृति उनमें बाद में ही आई होगी जो शीघ्र ही उनके पतन का कारण बनेगी। यों तो वैसे भी उनका पतन ही समझना चाहिए। उच्च स्थिति पर पहुँचकर जिसकी उच्चाशयता एवं उन्नत भावनाओं का पतन हो गया, वह सिंहासन पर बैठा हुआ भी वास्तव में भूलुँठित ही है। स्थूल उन्नति तो जड़ता मात्र है, वास्तविक उन्नति तो मन एवं आत्मा की उच्चता ही है।

जिस आग में हमें स्वयं ही जलना पड़े अथवा किसी अन्य को जलाकर पाप कमाना पड़े, उसे बुझा देने में ही कल्याण है। ईर्ष्यालु व्यक्ति मानसिक रोगी तो होता ही है, उसका शरीर भी रुग्ण हो जाता है। ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता आदि विकारों में विष जैसा प्रभाव रहा करता है जो मनुष्य के रक्त को दूषित कर देता है। दूषित रक्त से शरीर के अवयवों का कहाँ तक पोषण हो सकता है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति में अपच का भयंकर रोग हो जाता है। उसकी भूख नष्ट हो जाती है नींद चली जाती है। उसका शरीर विविध व्याधियों का आगार बन जाता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति देखने में कितना ही मोटा-ताजा क्यों न हो, अन्दर से बड़ा ही जर्जर होता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति कभी भी तेजस्वी नहीं हो सकता। उसके मुख पर सदैव ही अपराधी की सी कालिमा छाई रहती है। उसके जीवन का सारा सौंदर्य, सारी शाँति सारा सुख और सारा सन्तोष नष्ट हो जाता है। उसके अधःपतन की स्थिति इतनी भयंकर हो जाती है कि वह जीवन से ऊबकर उसे त्याग देने तक की इच्छा करने लगता है।

समाज में फैले झगड़े-फसादों की जड़ में मनुष्यों की प्रधान रूप से ईर्ष्या ही सक्रिय रहा करती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति का एक स्वभाव होता है कि वह स्वयं तो उन्नति करने के लिए बढ़ नहीं पाता, दूसरे उन्नति करते हुए व्यक्तियों के मार्ग में रोड़े अटकाया करता है, जिसका परिणाम समाजिक संघर्ष के रूप में सामने आता है। आज परिवारों, समाजों तथा राष्ट्रों में जितना भी तनाव तथा संघर्ष दृष्टिगोचर हो रहा है इसका मुख्य हेतु मनुष्य की मनुष्य के प्रति ईर्ष्या-भावना ही है। अनुदारता, द्वेष , घृणा एवं संकीर्णता ईर्ष्या की ही विषबेलि के कटु फल हैं। जिस समाज, परिवार अथवा राष्ट्र में ईर्ष्या की विषबेलि फली होगी, उसे यह कडुए फल चखने होंगे। जहाँ ईर्ष्या रूपी विषधर का वास होगा, वहाँ सुख-शाँति का रह सकना असम्भव है। ईर्ष्यालुओं के भाग्य में जलन तथा अशाँति के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।

जिस व्यक्ति को आप दूसरों की बुराई करते, उसके छल-छिद्र खोजते मार्ग में रोड़े अटकाते अथवा किसी प्रकार हानि पहुँचाने का प्रयत्न करते अथवा सोचते देखें तो समझ लें कि ईर्ष्या के विष से इस व्यक्ति की बुद्धि मूर्छित हो गई है, इसकी मनुष्यता मर गई है। ईर्ष्यालु व्यक्ति की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह किसी की सुख-शाँति नहीं देख सकता उन्नति सहन नहीं कर सकता। वह अकारण ही उन्नतिशील व्यक्तियों की आलोचना करता, उन पर झूठे दोषारोपण करता और उनके कृत्यों का अवमूल्यन करता दिखाई देगा।

ईर्ष्यावश कोई किसी के रस में विष घोलता और उन्नति में बाधा डालने का प्रयत्न भले ही करें, किन्तु वह उसमें कहाँ तक सफल हो सकता है, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता क्योंकि किसी की प्रगति अथवा प्रसन्नता किसी की अच्छी-बुरी भावना पर निर्भर नहीं होती, वह उसकी अपनी सदाशयता पर निर्भर रहा करती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति बाधक बनकर अथवा डाह दिखलाकर अपना कलुषित स्वरूप प्रकट करने पर ईर्ष्यालु दूसरे से अधिक घाटे में रहता है। लोग उससे घृणा करने लगते हैं। उसे अपने हर्ष, उल्लास तथा उत्सवों में सम्मिलित करने से बचते हैं। लोगों का विश्वास ईर्ष्यालु व्यक्ति पर से उठ जाता है। कोई उससे बात तक करना पसन्द नहीं करता। इस प्रकार की बहिष्कृत स्थिति किसी के लिए भी जलते नरक कुँड की यातना से कम नहीं होती।

ईर्ष्या का जन्म स्वयं अपनी उन कमजोरियों से होता है जो उन्नति-पथ में बाधक होती हैं। जब मनुष्य अपनी कमियों से असफलता का शिकार बनता है तब उसमें पराजय की भावना आ जाती है। किन्तु अपने अहंकार के कारण वह उनका हेतु अपने अन्दर ने देखकर दूसरों पर दोषारोपण किया करता है। नौकरी के लिए बुलाये गये बहुत-से प्रत्याशियों में से जो असफल हो जाते हैं वे यह तो सोचते नहीं कि उनके अन्दर भी ऐसी कोई कमी रही होगी जिसके कारण उन्हें दूसरों की अपेक्षा कम महत्व दिया गया, बल्कि सोचने लगते हैं कि हमारी असफलता का कारण अमुक व्यक्ति ही रहा है। यदि यह न आया होता तो कोई कारण नहीं कि वे नौकरी के लिये न चुने गये होते। कितना गलत तरीका है सोचने का । दूसरे लोग चुनाव के लिए क्यों न आते और न अपनी अधिक विशेषता के कारण नौकरी पाने में सफल होते? किन्तु क्या हो? ईर्ष्यालु व्यक्ति के भाग्य में ठीक विचार कर सकना होता ही नहीं। उसे तो किसी न किसी बहाने अन्दर ही अन्दर जलने का अभिशाप पूरा करना होता है।

ईर्ष्या से बचने का अमोघ उपाय यह है कि आप अपनी असफलता का कारण किसी दूसरे को कल्पित मत कीजिए। कभी मत सोचिए कि आप किसी अन्य के कारण असफल हुए हैं। विश्वास रखिए कि आप अपनी ही कमियों, कमजोरियों तथा अयोग्यताओं के कारण ही असफल हुए हैं। दूसरों की प्रसन्नता देखकर प्रसन्न होइये। आगे बढ़ते हुए व्यक्तियों को अपना योगदान करिये। दूसरों की सफलता में प्रसन्न होने वाला किसी-न-किसी रूप में उसकी सफलता में भागीदार बन जाता है। लोग उसे अपना हितैषी समझ कर विश्वास करने लगते हैं, जिससे सौहार्द्र का जन्म होता है।

दूसरों की सफलता को अपनी, अपने परिवार, अपने समाज तथा अपने राष्ट्र की सफलता समझने वाला व्यक्ति हर प्रकार से लाभ में ही रहता है। लोग खुशी-खुशी उसे अपने साथ लेकर चलने के लिए उद्यत रहते हैं। सद्भावना रखने के कारण दूसरे उसे अपना सहायक समझने लगते हैं जिसके प्रत्युत्तर में स्वयं भी उसकी सहायता किया करते हैं। दूसरे की उन्नति को अपने मित्र की ही उन्नति समझने वाले व्यक्ति मन से तो ऊंचे हो ही जाते हैं साथ ही सद्भावना के कारण उन्नतिशील व्यक्तियों के पास ही आसन पाते हैं। सक्रिय सहायता करने वालों की अपेक्षा लोग सद्भावना रखने वाले को कम महत्व नहीं देते।

यह मनुष्य के निश्चय ही अपने हाथ में है कि वह किसी के लिए अपने मन में ईर्ष्या रखता है अथवा सद्भावना। किसी की सफलता अथवा उन्नति में प्रसन्न होने से आपकी गाँठ से कुछ भी तो नहीं जाता उल्टे दूसरों का स्नेह अथवा श्रद्धा-पात्र बनकर आपको लाभ ही लाभ होगा।

हम सामाजिक प्राणी हैं। समाज से अलग हमारा कोई अस्तित्व नहीं । समाज उन्नत होगा तो हमारी भी उन्नति होगी, समाज का पतन होगा तो हमारा भी पतन होगा। हम समाज के उत्थान-पतन अथवा सफलता-असफलता से कदापि अछूते नहीं रह सकते। इस प्रकार समाज के एक अभिन्न अंग होकर यदि हम ईर्ष्यावश किसी का अहित करने की सोचते हैं तो सबसे पहले अपना अहित करने का उपक्रम करते हैं। समाज में एक दूसरे की सहायता-सहयोग से ही लोग आगे बढ़ते हैं। जब हम दूसरों के प्रति सद्भावना रखेंगे, उनको आगे बढ़ने में सहायता करेंगे तभी कोई हमारी भी सहायता करेगा। यह सोचना कि समाज में केवल मेरी ही उन्नति हो और मैं सफलता पाऊं अन्य सारे लोग गिरे ही पड़े रहें- तो यह एक संकीर्णता, एक स्वार्थपरता होगी जो किसी भी दशा में वाँछनीय कदापि नहीं कही जा सकती। समाज में सबकी उन्नति होने पर ही हमारी उन्नति होगी और तभी सबके साथ हमारी उन्नति की शोभा भी है। हम उन्नत तथा सम्पन्न बने रहें और सब पतितावस्था में ही पड़े रहें तो हमारी उन्नति हम पर एक बोझ जैसी लगेगी।

मानवता का यही तकाजा है कि हम किसी से ईर्ष्या न करते हुए स्वयं अपना विकास करने का प्रयत्न करें और यथासाध्य दूसरों की उन्नति में सहायक बनकर अपने लिए भी सहायता, सहयोग तथा सहानुभूति सुरक्षित कर लें। इस प्रकार ही हम ईर्ष्या की आग से बचकर सबके साथ सुख एवं शाँति का जीवन बिता सकेंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118