साधु लोक-मंगल की मुहीम संभालें

April 1967

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समय था जब संसार में भारतीय धर्म का बोलबाला था, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति उच्चतम शिखर पर विराजमान थी। यह उच्चता उसे यों ही प्राप्त नहीं हो गई थी। इसके लिए भारतवासियों को त्याग और तपस्या करनी पड़ी थी। भारतीय समाज में दो वर्ग तो ऐसे थे जिनका एकमात्र जीवन ध्येय, देश, धर्म तथा सभ्यता संस्कृति का विकास एवं प्रचार करना ही था। वे दिन-रात देश धर्म की सेवा में लगे रहते थे और समाज उन्हें इस उपकार के बदले में साधन तथा सम्मान दिया करता था यह दोनों वर्ग ब्राह्मण एवं साधु नाम से प्रसिद्ध थे और आज भी प्रसिद्ध हैं और कमोबेश उसी तरह माने भी जाते हैं और यह अपेक्षा भी की जाती है कि वे देश धर्म की सेवा उसी प्रकार करेंगे जिस प्रकार पूर्वकालीन लोग करते रहे थे। किन्तु खेद है कि इन दोनों वर्गों ने अपने कर्तव्यों को तिलाँजलि तो दे दी है, किन्तु अपने मान-सम्मान की पिपासा को नहीं त्यागा है। इस समय देश धर्म बड़ी विषम स्थिति से गुजर रहा है साधु ब्राह्मणों को अपना दायित्व समझना तथा कर्तव्य करने के लिए पुनः परिकर बाँध कर मैदान में उतरना होगा। अन्यथा नहीं कहा जा सकता कि काल की करा लता और विकृतियों की विषमता समाज, राष्ट्र तथा उन्हें किस स्थिति में ले जाकर पटक दे।

पूर्वकालीन ब्राह्मणों तथा सन्त महात्माओं में कोई विशेष अन्तर नहीं था। उनके दायित्व एवं कर्तव्य समान ही थे साथ ही अविकारों में भी कोई विषमता नहीं थी। वह दोनों शब्द एक ही व्यक्तित्व के दो नाम थे। अन्तर ही था तो केवल स्थिति का साधु, सन्त अधिकतर गृहत्यागी होते थे और उनका रहन-सहन उस स्थिति के अनुरूप रहता था। परिवार अथवा घर-गृहस्थी की परिधि से परे हो जाने से साधुओं का कार्य-क्षेत्र सारा देश रहा करता था। वे आजीवन परिभ्रमण करते हुए देश के कोने-कोने में घूमते रहते थे और जहाँ ही विकृति अथवा अवाँछनीयता देखते थे वहीं रुक कर, संस्कार तथा शोधन का अपना कर्तव्य पालन किया करते थे।

ब्राह्मणों पर गृह त्याग का प्रतिबन्ध न था। वे इच्छानुसार परिवार बसा कर रह सकते थे, आजीविका के लिए अध्यापन तथा धर्म शिक्षण का कार्य कर सकते थे। फिर भी समाज के प्रति उनका कर्तव्य वही था जो साधु अथवा संन्यासी का! परिवार में रहने से ब्राह्मणों को कार्य-क्षेत्र सारा देश ने होकर उनका एक सीमित क्षेत्र ही रहा करता था। जहाँ वे घर-घर जाकर लोगों के धार्मिक स्वाध्याय की देख-भाल किया करते थे। कथा, प्रवचन तथा पूजा-पाठ द्वारा लोगों की धर्म निष्ठा को सम एवं समुचित बनाए रहते थे।

आज समय कुछ बदल गया है। परिस्थितियाँ उन दिनों जैसी नहीं रह गई हैं। अधिकतर ब्राह्मणों को परिवार पोषण के लिए अनेक काम करने पड़ गये हैं। आज उनके पास समाज सेवा के लिए उतना समय तथा साधन नहीं रह गया है जितना कि पहले था। किन्तु साधु-सन्तों तथा संन्यासियों की स्थिति यथावत् बनी हुई है। आज भी वे उसी प्रकार आग्रही, परिव्राजक तथा समाज द्वारा सम्मानित एवं पोषित हैं। उन्हें अपनी आजीविका अथवा जीवन रक्षा के लिए कोई उद्योग नहीं करना पड़ रहा है समाज उनका सारा भार वैसे ही वहन कर रहा है जैसा कि पहले किया करता था। अस्तु, समाज-सेवा समाज-सुधार तथा धर्म-प्रचार का सारा दायित्व एवं कर्तव्य इन साधु, संन्यासियों तथा सन्त, महात्माओं पर आ गया है। जिसे उन्हें पूरा करना ही चाहिये।

किन्तु, क्या आज के साधु-संन्यासी अपने दायित्व को समझ और कर्तव्य को पूरा कर रहे हैं? इसका उत्तर ‘न’ में होने के सिवाय और क्या हो सकता है। आज के साधुजन वेश रचना के सिवाय शायद यह भी नहीं जानते है कि साधुता का क्या अर्थ होता है। क्या आज के छप्पन-साठ लाख साधुओं में से कोई यह स्वीकार कर सकता है कि वेश-विन्यास से साधुता का कोई भी सम्बन्ध नहीं। साधु सज्जन शब्द का पर्याय है। जिसमें निष्कलंक सज्जनता है वही साधु कहलाने योग्य हो सकता है। जिसका समय, श्रम, ज्ञान तथा मनोभावनाएँ व्यक्तिगत स्वार्थों में ही लगे रह कर समस्त मानव समाज की सेवा में लगी हों वही साधु है। साधु उस व्यक्ति को ही माना जा सकता है जो अपने सर्वस्व को सार्वजनिक सम्पत्ति समझता हो और जन-सेवा के कार्यों में उपयोग करता हो। जिसके मन-मन्दिर में वसुधैव कुटुम्बकम् की महान् ज्योति जल रही हो और जिसका आचरण उसी से प्रकाश एवं प्रेरणा लेकर सक्रिय हो रहा हो, वही-साधु है । उसी को साधु माना जाना चाहिए। पूर्वकालीन ऋषि-मुनियों अथवा साधु-संन्यासियों जैसा वेश बना लेना ही साधुता नहीं है।

साधुता तथा साधु-संन्यासियों के कर्तव्य समझना तो दूर, आज के साधु जन शायद उस वेश-विन्यास का तात्पर्य भी नहीं जानते होगे जिसे बनाये फिरते हैं और जिसके कारण वे जनता में आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं। जो वेश-विन्यास आज का साधु समुदाय बनाए घूमता है वह पूर्वकालीन ऋषि-मुनियों का ही अनुकरण है। इस प्रकार का वेश विन्यास ऋषियों के लिए ऋचाओं की तरह ईश्वर प्रेरित नहीं था। बल्कि ऋषियों ने इसे सामयिक परिस्थिति एवं अपनी स्थिति के अनुसार ही चुना था।

साधु का प्रथम धर्म है अपरिग्रहण। अपनी जीवन-चर्या में वे कम से कम खर्च करना अपना पावन कर्तव्य समझते थे। कमण्डलु नामक लौकी के खोखले से पात्र का काम चलाते थे। जंगल की साधारण लकड़ी के खड़ाऊ पहनते थे। उस समय आज जैसी कपड़ों की बहुतायत न थी। जो कुछ कपड़ा होता भी था, समाज की सुविधा तथा आवश्यकता का ध्यान रखने वाले साधुजन स्वयं उसका प्रयोग न करते थे। जब तक सरदी-गर्मी सहन होती थी एक कोपीन के सिवाय कुछ न पहनते थे। हवा तथा धूप से बचने के लिए भस्म मल लेते थे,या पेड़ों की छाल छील कर वल्कल-वस्त्र बना लेते थे। भोजन के नाम पर अधिकतर जंगलों में पैदा होने वाले फल-फूलों एवं कन्द-मूलों का ही सेवन करते थे। ऋषियों द्वारा जटा-जूट रखाये जाने का कारण यही रहा है कि जंगलों की ओर रहने के कारण वहाँ हजामत बनाने की सुविधा न थी। और इसके लिए वे हर तीसरे दिन नगरों की ओर दौड़ते रहते तो उनके द्वारा समाज के लिए किये जाने वाले चिन्तन एवं शोध कार्यों में विघ्न पड़ता। वे जटा-जूट रखा सकते थे किन्तु समाज-सेवा में लगे हुए जीवन का एक क्षण भी खराब करना स्वीकार न कर सकते थे। इस प्रकार ऋषि-मुनियों के वेश-विन्यास एवं रहन-सहन में उनकी परिस्थिति तथा स्थिति की अनुरूपता के सिवाय और कुछ न था । किन्तु आज के साधु समाज ने केवल वेश-भूषा को ही धारण करना साधुता की चरमावधि मान लिया है।

आज का जो साधु-समुदाय वेश-विन्यास बना लेने को ही साधुता प्राप्त कर लेना समझता है यह नहीं समझ पाता कि यदि वेश की अनुरूपता अथवा अनुकरण किसी व्यक्ति को वैसा करना बना सकता तो नाटकों एवं स्वाँगों के नट-विदूषक सब राजा, साधु-संत अथवा महात्मा बन जाते जो उन जैसा विन्यास बनाते और अभिनय करते हैं। साधु के गुणों एवं कर्मों से रहित रह कर जो अपना बाह्य कलेवर उन जैसा बना कर गली-गली घूमते-फिरते हैं उन्हें कोई मूढ़-मति व्यक्ति भले ही साधु मान ले किन्तु जिसके पास जरा-भी बुद्धि होगी, साधुता का तनिक भी अर्थ समझता होगा-वह उनको प्रबन्धक अथवा उस विदूषक के समान उपहासास्पद ही मानेंगे, जो लोगों को तरह-तरह के वेश बना कर हँसाता और पैसा माँगता फिरता है। साधु के रूप में रह कर उन जैसा कर्तव्य न करना घोर विडम्बना है। आज ऐसे ही विन्यासी साधुओं की तरह समाज में साधु शब्द को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है। साधु शब्द सुनते ही किसी आडम्बरी, प्रवंचक अथवा भिक्षुक की तस्वीर सामने आ जाती है।

आज देश में छप्पन लाख साधु बतलाए जाते हैं। यदि उनमें से अपाहिज, अपंग, अशिक्षित एवं उचक्कों को निकाल दिया जाए तब भी 10-20 लाख ऐसे साधु निकलेंगे जो शिक्षित तथा समझदार होंगे। किन्तु खेद है कि साधुओं के बीच जो पूजने और पुजापा खाने की हवा चल रही है वे भी उसी में बहते चले जा रहे हैं। उन्हें अपने समुदाय तथा वर्ग के वच्चकों का अनुकरण न कर के साधुजनों के सच्चे कर्तव्य को पूरा करना चाहिये। उन्हें अपने उस समाज की वर्तमान दयनीय दशा के प्रति दयार्द्र एवं संवेदनशील होना चाहिये जो उन्हें हार्दिक आदर, सम्मान तथा सब प्रकार के साधन देता रहा है साधु होकर उपकार के बदले प्रत्युपकार न करने के समान कोई पाप नहीं । यह कृतघ्नता है जिसे शास्त्रों में महापातक कहा गया है। सज्जन एवं सच्चे साधुओं को वर्गवाद के दलदल से निकल कर समाज-सेवा के कार्य में लग ही जाना चाहिए। उन्हें स्थानस्थ होकर पूजा लेने के स्थान पर परिव्रजन का कार्यक्रम बना लेना चाहिये और गाँव-गाँव, नगर-नगर, द्वार-द्वार धर्मोद्धार एवं समाज-सुधार का शंक फूँक देना चाहिये। आज के कठिनतम आर्थिक युग में अभाव के समय में जनता की सहज श्रद्धा के शोषण रूप बन कर समाज का बोझ बढ़ाना अनुचित ही कहा जायेगा। साधुजनों को अपना यह कलंक धो डालने के लिये पूर्वकालीन साधु-परम्परा को सच्चे मानों में जाग्रत कर यह दिखला ही देना चाहिए ऋषि-मुनियों के इस देश की वह साधुता अभी मर नहीं गई है जिसके बल पर भारत का धर्म, उसकी सभ्यता, संस्कृति एवं समाज संसार का सिरताज बना रहा है। साधु समुदाय के पास ऐसा कोई पारिवारिक उत्तरदायित्व नहीं जो उन्हें उनके समय अथवा श्रम का कोई अंश छीन रहा हो। संयोग भाग्य अथवा संस्कारों वश साधुओं के लिए वे पूर्वकालीन सारी परिस्थितियाँ आज भी विद्यमान हैं उनका समुचित उपयोग कर वे लोक-परलोक दोनों का संसाधन कर सकते हैं। उन्हें करना भी चाहिए। अन्यथा संसार में बुद्धिवाद बहुत तेजी से बढ़ रहा है, श्रद्धा का अस्तित्व धुँधला पड़ता जा रहा है। भगवान् न करे, यदि निषेधात्मक युग आ जाए तो इस साधु-समाज की क्या स्थिति हो सकती है यह साधुओं के लिये विचारणीय एवं करणीय है।


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