सच्ची शंतिं कैसे प्राप्त हो-
मिथिला नगरी के महानन्द परिव्राजक ने जीवन के तीन दिन कठिन तपश्चर्या में बिताये। जप, तप, आसन, प्राणायाम, स्वाध्याय, यज्ञ, कीर्तन, मार्जन, तर्पण करते करते असंख्य सिद्धियाँ करतल गत कर लीं। असाधारण क्षमता वाले मुनि महानन्द की ख्याति चन्द्रमा के प्रकाश की तरह विकसित होने लगी सैंकड़ों व्यक्ति उनकी सिद्धियों का लाभ पाने लगे। सैंकड़ों व्यक्ति प्रतिदिन आश्रम पहुँचते और श्री चरणों में सिर रख कर महासुख अनुभव करते।
किन्तु मुनि का अन्तःकरण स्थिर न था सिद्धियों ने उनकी तृष्णा तो बढ़ा दी पर वह शाँति वह स्थिरता न मिली जिसके लिये मुनि ने घर, परिवार और स्नेहियों सम्बन्धियों का साथ छोड़ा था।
एक दिन महानन्द इसी दुःख से भरे अपने कुटिया से निकले। एक गाँव की ओर चल पड़े। शुरू चौखट में पहुँचे थे कि किसी के कराहने का स्वर सुनाई दिया। कोई बीमार था, देखने वाला कोई न था बड़ी पीड़ा बढ़ गई थी। व्यक्ति की दर्दभरी कराह मुनि के हृदय में उतर गई । उन्होंने बीमार की रात-भर सेवा की। दवा दी, पाँव दाबे, बिस्तर बदले, टट्टी ओर पेशाब धोया। चौथे पहर जब उसे नींद आई मुनि आश्रम लौटे। आज न उन्होंने संध्या की न प्राणायाम और निदिध्यासन भी नहीं किया किन्तु तो भी उसके अन्तःकरण में अपूर्ण शाँति, स्थिर उत्फुल्लता, अबोध सुख निर्झर की भाँति झर रहा था । मुनि अनायास कह उठे-हाय रे! मैं कितना अभागा रहा जो चार पन यों ही बिता दिये। मुझे मालूम होता कि परमात्मा दीन-दुखियों की सेवा और परमार्थ का प्यासा है तो क्यों इतना समय व्यर्थ जाता।