ईश्वर की रचना निन्दनीय न ठहरे

September 1965

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जब कोई शिल्पी किसी मूर्ति को बनाता है तब उसका यही ध्येय रहता है कि उसकी रचना इतनी सजीव, इतनी सुन्दर और इतनी पूर्ण बने कि जिसे देख कर लोग ठगे से रह जावें और जिन हाथों ने उसे तैयार किया है, उनकी प्रतिज्ञा किये बिना न रहे!

जब एक साधारण शिल्पी की यह भावना हो सकती है तब उस परम शिल्पी, निस्पृह एवं निर्विकार शिल्पी परमात्मा की भावना में यह शंका कैसे की जा सकती है कि मनुष्य की रचना करते समय उसका यह भाव न रहा होगा कि उसकी रचना भी उसके ही अनुरूप सुन्दर और महान न हो। तब क्या कारण है कि परमात्मा की रचना मनुष्य ही सबसे निकृष्ट सिद्ध होती जा रही है। उसने जीवन को इतना कुरूप कलुषित बना डाला है कि जिसे देखकर उसका रचयिता अवश्य लज्जित हो रहा होगा। मनुष्य अपने कुकर्म से रचयिता की बदनामी कर रहा है। कितना अच्छा होता किसी शिल्पी की प्रस्तर मूर्ति के समान मनुष्य भी अपने सुन्दर निर्माण को यथावत सुन्दर रखकर अपने रचयिता को प्रसन्न करता।

-बाल्डविन


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