शास्त्र-चर्चा

September 1965

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स्मृतेः सकलकल्याण भाजनं यस्य जायते। पुरुषस्तमजं नित्यं व्रजामि शरणं हरिम्॥

जिसके स्मरण करने से सर्वत्र कल्याण की कल्याण होता है। उस अजर अमर, सदा सर्वत्र विद्यमान, ऐसे ब्रह्म की शरण में मैं उपस्थित होता हूँ। क्योंकि वही सब कल्याणों का करने वाला है।

नायात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुँस्वाम्॥

वह परमात्मा प्रवचन के द्वारा भी नहीं प्राप्त किया जा सकता। वह न मेधा से प्राप्त किया जाता है और न बहुत अनुभव या ज्ञान से प्राप्त किया जाता है, अपितु जिस श्रेष्ठ कर्म करने वाले धर्मात्मा भक्त को वह वरण करता है वही उस ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। वही भक्त उस परमात्मा का साक्षात्कार करके मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥

जिस ब्रह्मज्ञान की दशा में समस्त जीव प्राणी अपनी आत्मा के समान ही हो जाते हैं अर्थात् सब जीव अपने समान दीखने लगते हैं उस समानता को सर्वदा देखने वाले उस विशेष आत्मज्ञानी पुरुष को उस दशा में फिर कौन-सा मोह और कौन-सा शोक रह सकता है।

दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्यभ्यन्तरा ह्यजः। अप्राणा ह्यमनः शुभ्री ह्यक्षरात्परतः परः॥

वह ब्रह्म दिव्य है वह निराकार सर्व सामर्थ्य वाला है सबके अन्दर तथा बाहर व्यापक है। वह अज है। वह प्राण तथा मन से भिन्न है प्रवृत्ति से परे जो जीव उससे भी परे वह देदीप्यमान परम पुरुष है।

एतद्धयेवाक्षरं ब्रह्म एतदेवाक्षरं परम्। एतद्धयेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥

यह ॐ अक्षर ही ब्रह्म है और यही ॐ परम अक्षर ही ब्रह्म है और वही ॐ परम अक्षर है। इसी ॐ अक्षर को जानकर मनुष्य जो कुछ चाहता है उसे वही मिल जाता है।

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। छित्रद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥

क्षीण हुए पापों वाले, संशयहीन अपने आपको वश में किये हुए सब प्राणियों के हित में लीन ऋषि लोग ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होते हैं।

ईशा वास्यमिंद सर्व यत्किंच जगत्याँ जगत्। तेन त्यक्तेन भुज्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्॥

सारे विश्व में अंतर्यामी भगवान् व्याप्त हैं। कर्म करने पर ईश्वर द्वारा जो भी फल प्राप्त हो उसका तुम उपभोग करो। जो दूसरे को प्राप्त है, उस पर अपना मन मत चलाओ।

एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते। एको नु भुंक्ते सुकृतमेक एव च्च दुष्कृतम्॥

इस संसार में जन्तु अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। अपने अन्दर स्थित परमेश्वर को जो धीर लोग साक्षात् करते है, उन्हीं को शाश्वत सुख मिलता है, अन्यों को नहीं।

अयमात्मा स्वयं साक्षाद् गुणरत्नमहार्णवः। सर्वज्ञः सर्वदृक् सार्वः परमेष्ठी निरंजनः॥

यह आत्मा स्वयं साक्षात् गुण-रूपी रत्नों से भरा हुआ समुद्र है; यह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्वत्र गतिवाला, परमपद में स्थित (=परमेष्ठी), और सब प्रकार की कालिमा से रहित (=निरंजन) है।

न जायते म्रियते वा विपश्चिन् नायं कुतश्चिन्न वभूव कश्चित्। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यतें हन्यमाने शरीरे।।

यह चेतन आत्मा न तो उत्पन्न होता है और न मरता है। यह न तो किसी अन्य कारण से उत्पन्न हुआ है न स्वतः ही बना है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत (सर्वदा रहने वाला) और पुरातन है और शरीर के मारे जाने पर भी स्वयं नहीं मरता।


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