जीवन में कठिनाइयाँ भी आवश्यक हैं।

September 1965

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किसी भी महापुरुष का जीवन उठा कर देख लीजिए वह कठिनाइयों का एक जीता-जागता इतिहास मिलेगा। किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है। कठिनाइयों से गुजरे बिना कोई भी अपने लक्ष्य को नहीं पा सकता। विद्वानों का कहना है कि जिस उद्देश्य का मार्ग कठिनाइयों के बीच से नहीं जाता उसकी उच्चता में सन्देह करना चाहिये।

ऐसा नहीं कि संसार के सारे महापुरुष असुविधापूर्ण परिस्थिति में ही जन्मे और पले हों। ऐसे अनेकों महापुरुष हुए हैं जिनका जन्म बहुत ही सम्पन्न स्थिति में हुआ और वे जीवन भर सम्पन्नता पूर्ण परिस्थिति में ही रहे। यदि वे चाहते तो कठिनाइयों से बच कर भी बहुत से कार्य कर सकते थे। किन्तु उन्होंने वैसा नहीं किया। जो असुविधा पूर्ण परिस्थिति में रहे उन्हें तो कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ा। साथ ही जिन्हें किसी प्रकार की असुविधा नहीं थी उन्होंने भी कठिन कामों को हाथ में लेकर कठिनाइयों को इच्छापूर्वक आमंत्रित किया।

वास्तव में बात यह है कि कठिनाइयों के बीच से गुजरे बिना मनुष्य का व्यक्तित्व अपने पूर्ण चमत्कार में नहीं आता और न सुविधा पूर्वक पाया हुआ लक्ष्य ही किसी को पूर्ण संतोष देता है। कठिनाइयाँ एक ऐसी खरीद की तरह है जो मनुष्य के व्यक्तित्व को तराश कर चमका दिया करती हैं। कठिनाइयों से लड़ने और उन पर विजय प्राप्त करने से मनुष्य में जिस आत्म बल का विकास होता है वह एक अमूल्य सम्पत्ति होती है जिसको पाकर मनुष्य को अपार संतोष होता है। कठिनाइयों से संघर्ष पाकर जीवन में एक ऐसी तेजी उत्पन्न हो जाती है जो पथ के समस्त झाड़-झंखाड़ों को काटकर दूर कर देती है। एक चट्टान से टकरा कर बढ़ी हुई नदी की धारा मार्ग के दूसरे अवरोध को सहज ही पार कर जाती है।

अपने व्यक्तित्व को पूर्णता की चरमावधि पर पहुँचाने के लिए ही भारतीय ऋषि मुनियों ने तपस्या का कष्टसाध्य जीवन अपनाया। घर की सुख-सुविधाओं को छोड़कर अरण्य-आश्रमों का कठिन जीवन स्वीकार किया। भारतीय राजा महाराजाओं की यह परम्परा रही है कि वे जीवन का एक भाग तपस्यापूर्ण कार्यक्रम में लगाया करते थे। यही नहीं भारत के हर आर्य गृहस्थ का धार्मिक कर्तव्य रहा है कि वह जीवन का अन्तिम चरण सुख सुविधाओं को त्याग कर कठिन परिस्थितियों में व्यतीत करने के लिए वानप्रस्थ तथा संन्यास ग्रहण किया करते थे। भारतीय आश्रम धर्म के निर्माण में एक उद्देश्य यह भी रहा है कि घर गृहस्थी में सुख सुविधाओं के बीच रहते -रहते मनुष्य के व्यक्तित्व में जो निस्तेजता और ढीलापन आ जाता है वह संन्यस्त जीवन की कठोरता से दूर ही जाये और व्यक्ति अपने परलोक साधना के योग्य हो सके। कठिनाइयाँ मनुष्य को चमकाने और उसे तेजवान बनाने के लिए ही आती हैं। कठिनाइयों का जीवन में वही महत्व है जो उद्योग में श्रम का और भोजन में रस का।

जीवन को अधिकाधिक कठोर और कर्मठ बनाने में कठिनाइयों की जिस प्रकार आवश्यकता है उसी प्रकार चरित्र निर्माण के लिये भी कठिनाइयों की उपयोगिता है। मनुष्य का सहज स्वभाव है कि उसे जितनी ही अधिक छूट मिलती है, सुख-सुविधायें प्राप्त होती है वह उतना ही निकम्मा और आलसी बनता जाता है, और एक प्रमादपूर्ण जीवन संसार की सारी बुराइयों और व्यसनों का श्रमदाता है। खाली और निठल्ला बैठा हुआ व्यक्ति सिवाय खुराफात करने के और क्या कर सकता है। यही कारण है कि उत्तराधिकार में सफलता पाये हुये व्यक्ति अधिकतर व्यसनी और विलासी हो जाते हैं।

किन्तु जो कठिनाइयों से जूझ रहा है, परिस्थितियों से टक्कर ले रहा है असुविधाओं को चुनौती दे रहा है उसे संसार की फिजूल बातों के लिये अवकाश कहाँ। उसके लिये एक-एक क्षण का मूल्य है जीवन की एक -एक बूँद का महत्व है। जिस प्रकार मोर्चे पर डटे हुये सैनिकों की साहस और उत्साह की वृत्तियों के अतिरिक्त अन्य सारी वृत्तियाँ सो जाती हैं उसी प्रकार कठिनाइयों के मोर्चे पर अड़े हुये व्यक्ति की समस्त प्रमादपूर्ण वृत्तियाँ सो जाती हैं।

कष्ट और कठिनाइयों का अनुभव पाया हुआ व्यक्ति दूसरे के दुख दर्द को ठीक-ठीक समझ लेता है और सामर्थ्य भर सहायता करने की कोशिश करता है। उसमें सहानुभूति, सौहार्द, सहयोग तथा संवेदना जैसे दैवी गुण आ जाते हैं। कष्ट पाया हुआ व्यक्ति दूसरे को सताने और दुख देने से डरता है। कष्ट और कठिनाइयाँ मनुष्य के अहंकार को नष्ट करके उसमें विनम्रता, श्रद्धा और भक्ति के भाव भर देती हैं। कठिनाइयों की कृपा से ऐसे अनेक गुण पाकर मनुष्य का चरित्र चमक उठता है और वह मनुष्यता से देवत्व की ओर बढ़ने लगता है।

कठिनाइयाँ मनुष्य को स्वस्थ और सुदृढ़ बनाती हैं। कठिनाइयों से निकलने के लिए मनुष्य को जो श्रम करना पड़ता है वह स्वास्थ्य के लिए अनमोल रसायन सिद्ध होता है। जो परिश्रम करेगा वह स्वस्थ रहेगा ही इस तथ्य में किसी भी तर्क-वितर्क की गुंजाइश नहीं है।

कठिनाई से उपार्जित सुख साधनों में जितना संतोष होता है उतना सहज उपलब्ध साधनों में नहीं। परिश्रम पूर्ण कमाई से दो रुपये पाकर एक मजदूर जितना प्रसन्न और संतुष्ट होता है उतना ब्याज के दो हजार रुपये पाकर एक साहूकार नहीं।

कठिनाइयाँ मनुष्य जीवन के लिये वरदान रूप ही होती हैं किंतु इन अमोघ वरदानों का लाभ वही उठा सकता है जो इनको सँभालने और वहन कर सकने की सामर्थ्य रखता है। अन्यथा यह बोझ बन कर मनुष्य को कुचल भी देती है। जो परिश्रमी है, पुरुषार्थी है, साहसी और उत्साही है वह इनको फलीभूत करके संसार की अनेक विभूतियों को उपलब्ध कर लेता है। जो आलसी, प्रमादी, कायर और अकर्मण्य है वह इनकी चपेट में आकर जीवन की समस्त सुख-शाँति से हाथ धो बैठता है। कठिनाइयों का मूल्य बहुत गहरा है। जो इन्हें विजय कर लेता है वह बहुत कुछ पा लेता है और जो इनसे हार बैठता है उसे बहुत कुछ चुकाना पड़ता है।

कष्ट और कठिनाइयों को जो व्यक्ति विवेक और पुरुषार्थ की कसौटी समझ पर परीक्षा देने में नहीं हिचकते वे जीवन की वास्तविक सुख शाँति को प्राप्त कर लेते हैं। किंतु जो कायर हैं, क्लीव हैं, आत्म-बल से हीन हैं, वे इस परीक्षा बिंदु को देख डर जाते हैं जिसके फलस्वरूप ‘हाय-हाय’ करते हुये जीवन के दिन पूरे करते हैं। न उन्हें कभी शाँति मिलती है और न सुख। सुखों का वास्तविक सूर्य दुःखों के घने बादलों के पीछे ही रहता है। जो इन बादलों को पार कर सकता है वही उसके दर्शन पाता है और जो दुःखों के गम्भीर बादलों की गड़गड़ाहट से भयभीत होकर दूर खड़ा रहता है वह जीवन भर सुख-सूर्य के दर्शन नहीं कर सकता। वास्तविक सुख को प्राप्त करने के लिये आवश्यक है संसार के दुःखों का झूठा परदाफास किया जावे। शीतलता का सुख लेन के लिए गरमी को सहन करना ही होगा।

केवल मात्र सुख सुविधाओं से भरा जीवन अधूरा है। जब तक मनुष्य दुःखों का अनुभव नहीं करता, कष्टों को नहीं सहता वह अपूर्ण ही रहता है। मनुष्य की पूर्णता के लिये दुःख तकलीफों का होना आवश्यक है। दुःखों की आग में तपे बिना मनुष्य के मानसिक मल दूर नहीं होते, और जब तक मल दूर नहीं होते मनुष्य अपने वास्तविक रूप में नहीं आ पाता।

इसके अतिरिक्त कष्ट-क्लेशों का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग यह है कि उनके आगमन पर गरीब को बड़ी तीव्रता से ईश्वर की याद आती है। दुःख की तीव्रता मनुष्य में ईश्वरीय अनुभूति उत्पन्न कर उसके समीप पहुँचा देती है। कष्ट और क्लेशों के रूप में मनुष्य अपने संचित कर्म फलों को भोगता हुआ शनैः शनैः परलोक का पथ प्रशस्त किया करता है। जहाँ दुःख की अनुभूति नहीं वहाँ ईश्वर की अनुभूति असम्भव है। यही कारण है कि भक्तों ने ईश्वर के समीप रहने के साधन रूप दुःख को सहर्ष स्वीकार किया है।

कष्ट और कठिनाइयों को दुःखमूलक मान कर जो इनसे भागता है उसे यह दुःख रूप में ही लग जाती है; और जो बुद्धिमान इन्हें सुख मूलक मान कर इनका स्वागत करता है उसके लिए यह देवदूतों के समान वरदायिनी होती है।


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