स्वास्थ्य के देवदूत-कार्नेरो

September 1965

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अधिक धन और अनियमित जीवन क्रम, काफी थे कार्नेरो को एक ऐसी दशा में पहुँचा देने को, जिसमें जीवित अवस्था में भी क्षण-क्षण पर, मृत्यु के दर्शन होते रहें। और हुआ भी वैसा ही। रुग्ण शय्या पर पड़े-पड़े, लगे देखने एक टक छत की ओर। एक निराशा से सबसे बात करते, और हर समय अब चला कि तब चला का चिन्तन करते हुए, आँखें डबडबाये रहते। सारे मित्र, सारे प्रियजन और परिजन किसी समय भी छूटते दीखते। डाक्टरों ने जवाब दे दिया, सारे परिवार वाले निराश हो गये। अनन्त धन व्यय करने और उपचार की हद करने पर भी कोई लाभ न हुआ। परिचितों ने उस जाने की तैयारी में पड़े कार्नेरो के पास आना जाना कम कर दिया। जाये भी क्या कोई? किसी के पास आते ही आँखों में आँसू और विदाई की चर्चा। कौन दुखी होने के लिए बार-बार पास आता जाता। मृत्यु के घोर अन्धकार से घिरा हुआ कार्नेरो केवल सैंतीस वर्ष को तरुण अवस्था में असहाय होकर बोरिया-बिस्तर बाँधने की तैयारी करने लगा।

अपनी मृत्यु निश्चित समझकर कार्नेरो ने जीवन की आशा में तड़पना व्यर्थ समझा और अपने को शाँत कर लिया तथा धीरे-धीरे ईश्वर का ध्यान करने लगा। ज्यों-ज्यों चित्त शाँत होता गया त्यों-त्यों उसके विचार उज्ज्वल होने लगे और वह अपने में एक आराम अनुभव करने लगा! अब वह कोई दुखदायी विचार अपने अंदर न आने देता! उसने धीरे-धीरे अपने पिछले जीवन पर विचार करना शुरू किया।

पहले उसे अपने एक अनुभवी शुभ-चिन्तक की बात याद आई। जिसने कहा था- ‘कार्नेरो! तुम अभी समझते नहीं कि तुम्हारे इस अत्यन्त अनियमित जीवनक्रम का क्या फल होगा ! तुम खाने-पीने-सोने-जागने किसी बात में भी ध्यान नहीं रखते। एक दिन तुम्हें पछताना होगा’- और तब उसने उन वयोवृद्ध हितैषी का उपहास करते हुए कहा था- “बूढ़ों का स्वभाव होता है कि वे तरुणों को मौज उड़ाते देखकर चिढ़ते हैं और अपनी वह चिढ़ तरह-तरह के उपदेश देकर और आलोचना करके निकाला करते हैं। वे चाहते हैं कि तरुण भी अपनी मौज मस्ती को छोड़कर उनकी तरह ही बुढ़ापे का जीवन अपना लें। नाप तोलकर खायें, घड़ी देखकर सोयें जागे और मौज मारने की चीजों से परहेज करे। यह भी कोई जिन्दगी है। खामख्वाह अपने को एक कैदी बना लिया जाये ! जिन्दगी तो मौज करने के लिये है। मन-माना खाओ पियो और आनन्द करो!”

उसे अपनी कल्पना में स्पष्ट दिखाई देने लगा कि वह किस प्रकार बेतहाशा जिंदगी बिता रहा है। जाने क्या क्या और कितना खा-पी रहा है। जाने कहाँ-कहाँ घूम-फिर रहा है और न जाने क्या-क्या कर-धर रहा है! इस समय वह एक दर्शन की तरह अपनी पिछली जिंदगी अपनी कल्पना में देखता हुआ विचार कर रहा था। वह देखने लगा कि कब-कब कौन-सा अतिचार करने से उसे क्या हानि हुई है और कैसे वह धीरे-धीरे शिथिल होता हुआ इस दशा में पहुँचा है?

उसे अपने पिछले जीवन पर बड़ा खेद हुआ, किंतु अब क्या हो सकता था। “अब यदि उसे भविष्य मिल जाये तो वह कुछ कर दिखायेगा”- इस भाव से जीवन के लिये छटपटा उठा।

वह ज्यों-ज्यों सृजनात्मक ढंग से सोचता त्यों-त्यों उसके विचार उज्ज्वल होते जाते, ओर ज्यों-ज्यों भविष्य में नियम निर्वाह और उपयोगी जीवन की सोचता त्यों-त्यों उसके मन में एक उत्साह जागता। जिससे वह अपने आप को कभी-कभी निरोग अनुभव करने लगता। धीरे-धीरे उसे अपने स्वस्थ हो जाने में विश्वास हो गया! उसने दवायें कम कर दीं, पथ्य पालन को प्रधानता दीं और निराशापूर्ण चिन्तन का त्याग कर हितकर सुन्दर साहित्य पढ़ना और उपयुक्त दिशा में विचार करना प्रारम्भ कर दिया!

इस परिवर्तन का उसके स्वास्थ्य पर इतना अनुकूल प्रभाव पड़ा कि उसे जीवन में अखण्ड विश्वास हो गया।

पुनर्जीवन पाकर उसने जिन्दगी को नये सिरे से प्रारम्भ किया। अब वह प्राकृतिक नियमों का पालन करता। खाने के लिये नहीं जीता बल्कि जीने के लिये खाता। जीवन के लिये आवश्यक एवं उपयुक्त वस्तुयें ही संयमित सीमा तक सेवन करता। प्रत्येक कार्य में समय का पालन करता, प्रसन्न रहता और उपयोगी दिशा में सोचता।

उसने अपने अनुभवों का लाभ दूसरों को देने के लिये साहित्य लिखा, सभा समितियों का गठन किया और स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रवचनों एवं भाषणों का आयोजन किया। उसने व्यायाम एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी संस्थायें बनाई और उनका संचालन किया।

जहाँ उसने शारीरिक स्वास्थ्य के लिये बहुत से कार्य किये वहाँ जन रुचि को परिष्कृत करने और मानसिक विकास करने के लिये मनोरंजन कार्य-क्रमों को भी प्रोत्साहित किया। उसने कलाकारों, संगीतज्ञों और शिल्पकारों को इस दिशा में बहुत बढ़ाया। अनेक कलाकार और शिल्पकार उसके आश्रय में रहते थे जो अन्तिम दिन तक उसके साथ रहे।

उसके मित्र-वर्ग में तरुणों की संख्या अधिक रहती थी जिन्हें वह हर तरह से स्वस्थ रहने की शिक्षा देता। अस्वस्थ होने पर उनकी सहायता करता, उनका मनोबल बढ़ाता और समाज के लिये उपयोगी बनाने का प्रयत्न करता। वह न कभी निठल्ला बैठता और न व्यर्थ के कार्य करता।

कार्नेरो ने अपने एक शिल्पकार मित्र फालकोनेटो की सहायता से अनेक सुन्दर भवनों और संस्थाओं का निर्माण कराया। कृषि का विकास किया। उस पर पुस्तकें लिखीं और सरकार को योजनायें दीं। उसने अपनी बहुत-सी दलदली भूमि को सुखाकर उस पर गाँव बसाये। वह कृषकों और मजदूरों के साथ स्वयं काम करता और उन्हें काम का सुन्दर से सुन्दर ढंग बतलाता।

आयु के साथ कार्नेरो की कार्यदक्षता, फुरती और प्रसन्नता बढ़ती हुई देखकर बहुत से मित्र उससे पूछा करते थे कि क्या कारण है कि ज्यों-ज्यों आप बुढ़ापे की ओर बढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों तरुणों की भाँति फुर्तीले और कार्य चतुर होते जाते हैं? आपकी कार्य शक्ति कम होने के बजाय बढ़ती जाती है।

इसके उत्तर में वह कहता, बुढ़ापा नाम की वस्तु मनुष्य के जीवन में नहीं है। कार्य-क्षमता के ह्रास और जीवनी शक्ति की क्षीणता को वृद्धता कहा जाता है जो व्यक्ति इन दोनों की रक्षा करता रहता है वह कभी बूढ़ा नहीं हो सकता है। सत्य बात तो यह है कि साधारणतः जिस आयु को लोग बुढ़ापा कहा करते हैं और सबसे अधिक कष्टदायक मानते हैं, मनुष्य की वह आयु ही वास्तव में सबसे अधिक सुख और प्रसन्नता की आयु होती है। उस आयु में पहुँच कर मनुष्य बड़ा ही सीमित, संयमित और शाँत हो जाता है। यौवन-काल की उच्छृंखलता और अनुत्तरदायित्व की भावना नष्ट हो जाने से वह निश्चित और प्रसन्न रहता है। जवानी के बाद इच्छाओं, महत्वाकाँक्षाओं और वासनाओं की कमी होने से वह बड़ा सुखी हो जाता है। उसके सारे उद्वेग और क्रोधादि विकार नष्ट हो जाते हैं।

रोग शैय्या से उठने के बाद कार्नेरो ने अपना विवाह किया और उससे प्राप्त अपनी एक मात्र प्राण-प्रिय पुत्री के बच्चों से बहुत समय तक घिरे रहने के बाद हाथ में क्रास लेकर हँसते-हँसते शरीर छोड़ा था। लोगों का कहना था कि कार्नेरो ने पूर्व निश्चित योजना के अनुसार ही जीवन और मरण दोनों हँसते-हँसते वरण किया है। यदि वे चाहते तो इससे भी अधिक जीवित रह सकते थे किंतु एक दृष्टिकोण से वे सौ साल की जिंदगी मनुष्य के लिये पर्याप्त मानते थे।

मरते समय कार्नेरो ने कहा था कि जो मनुष्य मेरे आत्म-अनुभूत जीवन के सात मूल-मंत्रों के अनुसार अपना जीवन संचालित करेगा- मेरा आशीर्वाद है कि वह कम से कम सौ साल की स्वस्थ जिंदगी भोग कर सुख पूर्वक संसार से विदा होगा। कार्नेरो के अनुभूत सात महामंत्र ये है-

(1) निसर्ग सामंजस्य, (2) समय-संयम, (3) युक्त-आहार, (4) परिष्कृत विचार, (5) पवित्र आचार, (6) पुरुषार्थ एवं (7) परोपकार।


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