मनुष्य अपनी तुच्छता भी जाने

September 1965

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भगवान कृष्ण ने मोहित-चित्त अर्जुन को उपदेश देना प्रारम्भ किया। एक-एक आध्यात्मिक तत्व की विशद और गूढ़ विवेचना की उन्होंने। संसार की नश्वरता, अनासक्ति, ज्ञान, अज्ञान, श्रद्धा, संकल्प, विचार, विवेक, तप, साधना, राग, वैराग्य, निष्काम कर्मयोग और आत्मा-परमात्मा की प्रमाणयुक्त विवेचना करने पर भी अर्जुन का मोह-भाव समाप्त न हुआ, आसक्ति न गई, अहंकार न मिटा, तो भगवान को अपना अंतिम अस्त्र उठाना पड़ा। अपने विराट् रूप का प्रदर्शन किया भगवान ने। उनके विकराल रूप का दर्शन कर अर्जुन काँपने लगा। उसने साश्चर्य देखा- वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, सूर्य, चन्द्रमा सब उसी विराट के नन्हें-नन्हें टुकड़े हैं। सारा संसार उन्हीं में समाया हुआ है। उनके भय से मृत्यु भी काँपती है, ग्रह−नक्षत्र एक स्थान पर रुकने से भय खाते हैं, दिक्पाल उनकी स्तुति करते हैं, उनका काल-उदय सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों को भक्षण करता चला जा रहा है। एक तिनका भी उनकी मर्जी के बिना हिलने-डुलने तक में असमर्थ है।

परमात्मा के विराट् रूप का दर्शन करने पर अर्जुन को अपनी लघुता का ज्ञान हुआ। उसने समझ लिया यह संसार पंचतत्वों के निर्माण और विनाश का खेल मात्र है, बादलों से बनते हुये विविध चित्रों के समान इस संसार का भी रूप परिवर्तित होता रहता है। शरीर, सुख, भोग, वासनायें, तृष्णायें, आकाँक्षायें सब तुच्छ और क्षणिक हैं। सत्य तो केवल परमात्मा है। उसकी अभिन्न सत्ता होने के नाते आत्मा भी चिरन्तन, अजर, अमर अक्षर और अविनाशी है। उसे ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये। जो बात भगवान कृष्ण के उपदेश से अर्जुन की समझ में नहीं आई उसे परमात्मा के विश्व-रूप ने उसे समझा दिया। विशाल ब्रह्माण्ड के साथ अपनी तुलना करने पर अपनी लघुता का, शारीरिक नश्वरता का, पार्थिव सुखों की अनित्यता का बोध हो जाता है। मनुष्य को अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।

रामायण में ऐसा ही एक प्रसंग आता है। वह घटना काकभुशुंडि के सम्मोह की है। तब भगवान राम ने अपने विराट रूप की झाँकी दी थी। परमात्मा के उदर में ही अगणित विशालकाय ब्रह्माण्डों को उनमें स्थिति नदी, पहाड़, समुद्र आदि को देखकर ही उन्हें अनुमान हुआ था कि मनुष्य कितना असमर्थ, अशक्त और छोटा-सा जीव है। उसमें यदि कुछ शक्ति विशेषता और अमरता है तो वह उसके प्राण, मन और आत्मा के कारण ही है। उसमें कुछ प्राणियों से भिन्न विशेषतायें न रही होती तो इस विराट-विश्व में उसका अस्तित्व कीड़े-मकोड़ों, भुनगों, मक्खियों, मच्छरों जैसा ही रहा होता। करोड़ों मन की तुलना में जो स्थान एक रत्ती का हो सकता है, विश्व की तुलना में मनुष्य उससे भी करोड़ों गुना छोटा ही है।

अर्जुन और काकभुशुंडि की तरह कौशल्या और यशोदा ने भी भगवान के उस स्वरूप का दर्शन पाया है। ऐसी कथायें रामायण, भागवत आदि में आती हैं। इन कथानकों द्वारा मनुष्य के वास्तविक रूप का दिग्दर्शन कराने का कवियों, शास्त्रकारों ने बड़ा ही कलापूर्ण सच्चा और उद्देश्यपूर्ण विवेचन किया है। इससे उनकी बुद्धि की सूक्ष्म ग्रहणशीलता का ही पता चलता है। पर यह घटना केवल इन्हीं दो-चार व्यक्तियों के साथ घटित हुई हों, अन्यों को ईश्वर के इस विराट रूप के दर्शन न हुये हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस विराट ब्रह्माण्ड की झाँकी हर क्षण, प्रत्येक मनुष्य को होती रहती है किंतु वह बाह्य जगत में, भौतिकता में, कामनाओं, तृष्णाओं और भोग विलास में इस तरह ग्रस्त है कि अर्जुन, काकभुशुंडि, नारद, गरुड़, यशोदा और कौशल्या की तरह उनकी विवेक वाली आँख खुलती नहीं। लोग देखकर भी अनदेखी करते हैं। विराट स्वरूप पर चिन्तन, मनन और उसके प्रभाव आदि पर कुछ भी ध्यान न देकर केवल भोगों की काम-क्रीड़ा में लगे रहते हैं।

यह धरती इतनी बड़ी है कि यदि कोई इस पर चलना प्रारम्भ करे तो संभवतः जीवन समाप्त हो जाय और वह इसका ओर-छोर न पा सके। यह पृथ्वी विराट सौर-मण्डल का एक अंश मानी गई है। सौर-मण्डल के दो खरब नक्षत्रों में अकेला सूर्य ही पृथ्वी से 13 लाख गुना है, ‘अण्टलारि’ तारे के सम्बन्ध में कहा जाता है उसमें 21000 लाख पृथ्वियाँ समा जायँ फिर भी काफी जगह बाकी बची रहे। शुक्र में लोगों ने जीवन होने की कल्पना की है। मंगल ग्रह की यात्रा की तैयारियाँ रूस और अमेरिका में चल रही है। इस यात्रा में चन्द्रमा एक स्टेशन के रूप में प्रयुक्त होगा। यह पृथ्वी के आस-पास के ग्रहों का एक छोटा-सा रूप है। इससे भी विशद विश्व अन्यत्र विद्यमान है, जिसकी कल्पना भी मनुष्य के वश की बात नहीं है।

मनुष्य की आँखों में जो लेन्स लगा है उसकी शक्ति इतनी बड़ी नहीं है कि आकाश में दिखाई देने वाले प्रत्येक नक्षत्र को उतना ही बड़ा देख सके, जितने बड़े वे हैं। उनका बिलकुल छोटा-सा रूप इस पृथ्वी पर दिखाई देता है किंतु बुद्धि बल और गणित के द्वारा जो आँकड़े प्राप्त होते हैं उनसे इन नक्षत्रों के पूरे परिमाण का पता चलता है। एक-एक ग्रह-नक्षत्र इतना बड़ा है कि इनकी नाप, तौल, दूरी, लम्बाई और चौड़ाई जानना तो कठिन ही है। इस दिशा में वैज्ञानिकों ने अनेक प्रयोग किये और “त्रिकोण पद्धति” द्वारा पदार्थों की दूरी निकालना आसान हो गया। पर अमल में यह सिद्धान्त भी कठिन निकला। चन्द्रमा की दूरी निकालना हो तो चार हजार मील की आधार रेखा चाहिये, तारों की दूरी की पड़ताल करने के लिये साढ़े अठारह करोड़ मील की आधार रेखा की जरूरत पड़ेगी जो इस धरती में किसी तरह भी संभव न होगी। पृथ्वी जिस कक्ष में सूर्य की परिक्रमा करती है उसके आमने-सामने के दो बिन्दुओं की दूरी अठारह करोड़ मील होती है। इन दूरियों के औसत आदि निकाल कर विभिन्न शक्तियों की दूरबीनों और खगोल यन्त्रों द्वारा यह कठिनाई दूर कर ली गई है किंतु यह दूरियाँ इतनी बड़ी हैं कि उनको अंकित करने के लिये गिनती भी थक जाय। बताया जाता है कि सूर्य के बाद जो दूसरा तारा पृथ्वी से सबसे नजदीक है उसकी दूरी 2, 50, 00 00 00 00 000 मील दूर है। इससे आगे के नक्षत्रों की दूरी निकालना हो तो असंख्य शून्य लगते चले जायेंगे पर समस्या फिर भी हल न होगी।

आकाश गंगा में जितने ग्रह-नक्षत्र और नीहारिकायें अपना स्थान घेरे हुए हैं वह सिर्फ 1 प्रतिशत स्थान में हैं शेष 99 प्रतिशत स्थान शून्य है और साधारणतया एक तारे से दूसरे की दूरी कम से कम 250 00 00 00 00 000 मील होती है। इनमें से कई नक्षत्र जोड़ी बनाकर, कई 5-5, 6-6 के गुच्छकों में रहते हैं और सम्मिलित परिभ्रमण करते हैं। एक ऐसे “काले तारे” की खोज हुई है जिसका व्यास 230 00 00 000 मील बताया जाता है। यह सूर्य से भी 20 गुना बड़ा है।

इन आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्रों के जीवन पर दृष्टि दौड़ाते हैं तो बुद्धि लड़खड़ाने लगती है। उसकी विशालता का अनुमान तक करने की शक्ति नहीं रह जाती है। भारतीय आध्यात्म ग्रन्थों में जो ब्रह्माँड का उल्लेख मिलता है वह और भी अधिक विस्मय पैदा करने वाला है। शास्त्रों के अनुसार सूर्य अपने उपग्रहों को लेकर कृतिका की ओर बढ़ रहा है, ‘कृतिका’ इसी तरह ‘अभिजित’ की ओर, इस तरह यह विशाल ब्रह्माण्डव्यापी प्रक्रिया चल रही है जिस की कल्पना अर्जुन व काकभुशुंडि की तरह ही डरा देने वाली है। मनुष्य का मन इन विलक्षणताओं को देखकर विस्मय से भर जाता है। तब उसे ज्ञान होता है कि वह इस सृष्टि की तुलना में कितना छोटा है तुच्छ है।

जितना विलक्षण यह संसार है, मनुष्य उससे कम नहीं है। पर उसकी सारी विशेषता आत्म-तत्व के कारण ही है। शरीर की दृष्टि से तो वह बिल्कुल तुच्छ, दीन−हीन और पतित है। शक्ति का स्वरूप उसकी आत्मा है इसे ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये। इसकी सत्यता का अनुमान अपनी तुलना इस विराट जगत के साथ करने में सहज ही हो जाता है।


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