काया नहीं कहाऊँगा (Kavita)

September 1965

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भारत माँ का सुत हूँ मैं तो, निज कर्तव्य निभाऊँगा, चाहे प्राण भले ही जायें, कायर नहीं कहाऊँगा॥

इस जीवन के दीर्घ पथों पर जब चौराहें आते हैं। लक्ष्य हीन नर मार्ग भ्रमित हो भटक भटक मर जाते हैं॥

भ्राँति दूर कर पथ शूलों को फूल समझ मुसकाऊँगा। चाहे प्राण भले ही जायें कायर नहीं कहाऊँगा॥

चौराहे पर सही दिशा ले जो आगे बढ़ जाते हैं। हर उलझन को सुलझा कर वे अविरत बढ़ते जाते हैं॥

जीवन के सब संघर्षों में नित ही भिड़ता जाऊँगा। चाहे प्राण भले ही जायें निज कर्तव्य निभाऊँगा॥

भरतपुत्र हूँ शेर खिलाता हुलसित होकर आँगन में। सीने पर हूँ खड्ग झेलता पुलकित होकर के मन में॥

भारत माँ के चरणों में निज जीवन सुमन चढ़ाऊँगा॥ चाहे प्राण भले ही जायें, कायर नहीं कहाऊँगा॥

ज्वलित ज्योति उर देश प्रेम की, भरित शौर्य सुषमा तनमें। बल पौरुष पीयूष छलकता नव चेतन मय यौवन में॥

दानवता के दलन हेतु शिव प्रलयंकर बन जाऊँगा। चाहे प्राण भले ही जायें निज कर्तव्य निभाऊँगा॥

मैं न भार हूँ भारत भू पर, हार सुशोभित जननी का। देता हार सदा दुश्मन को, मातृ भाल का जय टीका॥

नवलसृजन पथ से भारत को श्रेय शिखर पहुँचाऊँगा। चाहे प्राण भले ही जायें, कायर नहीं कहाऊँगा॥

-यज्ञदत्त अक्षय

*समाप्त*


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