समाज सृष्टा-महात्मा भगवानदीन

September 1965

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वास्तव में उन व्यक्तियों का हृदय कितना विशाल और आत्मा कितनी महान होती होगी, जो बिना किसी प्रयोजन अथवा स्वार्थ के किसी की प्रेरणा के बिना यों ही अपना जीवन-समाज, राष्ट्र अथवा मानवता की सेवा में समर्पण कर देते हैं। निःसन्देह ऐसे व्यक्ति मनुष्य योनि में होते हुये भी देवता ही होते हैं। महात्मा भगवानदीन भी एक ऐसे मनुष्य रूपी देवता थे।

महात्मा भगवानदीन बाल्यकाल से ही कुछ विशेष विचारशील थे। अन्य आवश्यक कार्यों से निवृत्त होकर वे थोड़ी देर बैठकर कुछ न कुछ चिन्तन अवश्य किया करते थे। उस समय तो लोग उनके इस काम को एक पागलपन समझते थे और कहा करते थे कि यह लड़का अकेले में बैठ कर न जाने क्या सोचा करता है। पर बाद में आगे चल कर उनके कामों को देखकर लोगों को पता चला कि वह बालक यों ही निरर्थक कल्पना लोक में विहार नहीं करता था, बल्कि देश और धर्म के विषय पर बड़े ही क्रियात्मक ढंग से विचार करता था।

विचार क्रिया की एकाग्रता की उपलब्धि करके महात्मा भगवान दीन ने सबसे पहले जैन धर्म और जैन शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। जिस अभ्यास बल से उन्होंने विचार क्रिया की सिद्धि की थी उसी अभ्यास ने उन्हें शास्त्र मंथन में बड़ी सहायता की। जिस समय वे किसी शास्त्र का अध्ययन करने के लिए बैठते थे, तो केवल उसका साधारण पाठ ही नहीं करते थे बल्कि उसके एक-एक वाक्य, एक-एक अक्षर की गहराई में उतरते थे। शास्त्रों में इस पैठ की विशेषता उनको अपनी ज्ञान-जिज्ञासा के जागरण से सहज प्राप्त हो गई थी! जो ज्ञान का इच्छुक है, आत्मा और परमात्मा के रहस्यों को जानना चाहता है, वह ज्ञान की किसी भी पुस्तक में स्वयं ही नहीं उतरता बल्कि उसकी शिक्षाओं को भी अपने जीवन और अपने व्यवहार में उतार लेता है।

उदार दृष्टिकोण और समर्पित मनोबुद्धि से शास्त्र मंथन का जो परिणाम होता है वह महात्मा भगवानदीन को भी प्राप्त हुआ! मन, बुद्धि, ज्ञान से सराबोर होकर वे स्थिर हो गये, आत्मा के रहस्यों का उद्घाटन होने लगा, जिससे स्वभावतः उनकी चित्तवृत्तियाँ अन्तर्मुखी हो गई पर महात्मा भगवानदीन के अन्तर्मुखी होने का यह अर्थ कदापि नहीं था कि बस अब उनको आत्मानन्द प्राप्त हो गया और वे उसी में लीन होकर संसार को तिलाँजलि देकर उसे उसके भाग्य पर छोड़कर स्वयं एकान्त वास कर लें, संन्यास ले लें।

महात्मा भगवानदीन ने जब आत्मानन्द की अनुभूति की तब उन्होंने ठीक प्रकार से जाना कि वास्तव में उनके मानव बन्धु संसार में गलत भावना से लिपटे हुए कितना भयंकर दुख भोग रहे हैं। अपने आत्म सुख की तुलना में मनुष्यों के दुख की समीक्षा करते-करते वे बड़े ही करुणार्द्र हो उठे! अपने मानव बन्धुओं को उनकी दुर्दशा में छोड़ कर अन्धकार में भटकने देकर आत्म सुख का उपभोग करने में उन्हें बड़ा ही जघन्य स्वार्थ मालूम पड़ा। उन्होंने अपने महानतम आत्मानन्द को जन सेवा में बदल देने का निश्चय कर लिया।

जनसेवा का व्रत लेकर उन्होंने उसकी रूप रेखा निर्धारित करने के लिए विचार करना शुरू कर दिया। विचार करते-करते वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जब तक देश के बच्चों तथा तरुणों के चरित्र का ठीक-ठीक निर्माण नहीं होगा समाज का सच्चा कल्याण नहीं हो सकता। एक अच्छे समाज के निर्माता बच्चे तथा तरुण ही हुआ करते हैं और इनका समुचित निर्माण चरित्र के सुधार से ही हो सकता है। इस प्रकार समाज का निर्माण व्यक्तियों के चरित्र निर्माण पर ही निर्भर करता है।

एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँच कर उन्होंने हस्तिनापुर में ऋषभ-ब्रह्मचर्याश्रम नाम से एक चरित्र- निर्मात्री संस्था की स्थापना की। इस आश्रम के नियम बनाते समय महात्मा भगवानदीन ने बड़ी ही बुद्धिमानी, सावधानी तथा सतर्कता से काम लिया। वे आश्रम के कोई ऐसे जटिल नियम न बनाना चाहते थे जो व्यवहार में न लाये जा सकें, अथवा जिनको देख सुनकर तरुण वर्ग आश्रम को दूर से ही हाथ जोड़ लें। साथ ही वे इतने अधिक नियम न बनाना चाहते थे जो अपनी दीर्घ संख्या के कारण किसी आश्रमाश्रित को चारों ओर से एक बड़े जाल की तरह घेर लें।

एक सीमित संख्या में सर्वाशय-सम्पादक ऐसे नियम बना सकना, जो कि पूर्ण रूप से सरल एवं व्यवहार्य हो, कोई आसान काम न था। किंतु व्यवस्थित मस्तिष्क, संतुलित चित्त और सकर्मक विचार रखने के कारण महात्मा भगवानदीन को इसमें कोई कठिनाई नहीं हुई। जिसने अपने मन, मस्तिष्क तथा आचार व्यवहार को संतुलित एवं व्यवस्थित कर लिया है मानों उसने जीवन की समग्र समस्याओं का समाधान अपनी मुट्ठी में कर लिया है।

उन्होंने आश्रम के लिये केवल चार नियम बनाये- (1) ब्रह्मचर्य पालन, (2) स्वावलम्बन, (3) मितव्ययिता तथा (4) सेवा। निःसंदेह यह चार नियम ही वे चार स्तम्भ हैं जिन पर जीवन-निर्माण का बड़े से बड़ा भवन खड़ा किया जा सकता है।

ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक तीनों प्रकारों के स्वास्थ्यों की उन्नति होती है। मन के बलवान और शरीर के बलिष्ठ होने से मनुष्य में साहस की वृद्धि होती है जिससे वह संसार में निर्भीकता पूर्वक किसी भी कठिन कार्य को अनवरत रूप से करता रह सकता है और अनवरत कार्यरत रहने का अर्थ है “सफलता” जिससे मनुष्य को एक अनिर्वचनीय प्रसन्नता की उपलब्धि होती है। जहाँ चित्त प्रसन्न है, जहाँ बुद्धि स्थिर है और जहाँ बुद्धि चंचल नहीं है वहाँ दुर्गुणों अथवा दुर्विकारों का प्रश्न ही नहीं उठता।

स्वावलम्बन मनुष्य को आत्म-विश्वासी एवं आत्म-निष्ठ बनाता है। हर कार्य अपने हाथ से करने में अभ्यास बढ़ता है जिससे कार्य-कौशल की उपलब्धि होती है। सारे काम अपने हाथ से करने वाला परमुखापेक्षी होकर कभी पराधीन नहीं होता और पराधीनता का दुःख तथा स्वाधीनता का सुख भुक्तभोगी ही जान सकते हैं। पर-निर्भरता न होने से स्वावलम्बी के सारे कार्य समय से स्वेच्छापूर्वक होते है, जिससे मन को एक मधुर संतोष का सुख मिलता है। स्वावलंबी स्वभावतः परिश्रमी एवं पुरुषार्थी बनकर आलस्य, प्रमाद, विलम्ब अथवा स्थगन जैसे व्यसनों के वशीभूत नहीं होता और जो व्यसनी नहीं होता उनका जीवन निर्मल एवं निर्विरोध जल धारा की तरह बहता चला जाता है।

मितव्ययिता का दूसरा अर्थ सम्पन्नता ही मानना चाहिये। जो मितव्ययी है उसकी आवश्यकतायें सीमित रहती हैं और जिसकी आवश्यकतायें सीमित हैं उसको अभाव अथवा अधन की पीड़ा कभी सहन नहीं करनी पड़ती। मितव्ययी पैसे का मूल्य जानता है अतएव बुद्धिमत्ता पूर्वक उसका समुचित उपयोग करता है। पैसे का समुचित उपयोग करने की कला जानने वाला कम से कम साधनों में सुन्दर से सुन्दर ढंग से रह सकता है। मितव्ययी के स्वभाव में सरलता और रहन-सहन में सादगी का समावेश हो जाता है। मितव्ययिता का गुण ब्रह्मचर्य पालन एवं स्वावलम्बन के निर्वाह में सहायक होता है। मितव्ययी को दरिद्रता, दीनता, दयनीयता अथवा अदेयता का कलंक नहीं लगने पाता जिससे वह निष्कलंक, निर्युक्त एवं निर्द्वन्द्व जीवनयापन करता हुआ सदा सुखी रहता है।

धार्मिक सहिष्णुता के वे बड़े जबरदस्त समर्थक थे। उन्होंने अपने तत्वावधान में अनेक अन्तर्जातीय विवाह कराये और समाज विरोधी अनेक अनावश्यक तथा हानिकारक रूढ़ियों व रीतियों का मूलोच्छेदन किया।

महात्मा भगवानदीन आध्यात्मिक क्षेत्र में एक सम्पूर्ण महात्मा, सामाजिक क्षेत्र के श्रेष्ठ नागरिक और राष्ट्रीय क्षेत्र में महान देश-भक्त थे। जीवन के प्रारम्भिक काल में उन्होंने संयम, परिश्रम एवं पुरुषार्थ के गुणों के साथ अपने जिस जीवन का निर्माण किया था अस्सी वर्ष की आयु तक उसका ठीक-ठीक उपयोग करके चार नवंबर सन् 1964 को स्वर्ग सिधार गये। महात्मा भगवानदीन का पंच भौतिक शरीर आज अवश्य नहीं है किंतु देश के असंख्यों नागरिकों के चरित्र तथा साहित्य में विचारों के रूप में वे आज भी हमारे बीच मौजूद हैं।

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति-


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