जो कुछ है सब तोहिं

September 1965

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परमात्मा की शरणागति में आ जाने के बाद भी आन्तरिक मलिनतायें और अहंकार के आघात जीवात्मा को पूर्ण आनन्द का असीम सुख प्राप्त नहीं होने देते। मनुष्य कभी पदार्थ और कभी ब्रह्म की ओर खिंचता रहता है। यद्यपि उस समय लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति ही होता है तथापि ब्रह्म-तत्व में विलय के लिए जो पवित्रता आपेक्षित थी वह न बन सकने के कारण ही यह द्वन्द्वात्मक स्थिति बनी रहती है। “मैं परमात्मा की उपासना करता हूँ” इतना भी अहंभाव जब तक शेष रहता है तब तक पूर्ण समर्पण में कमी है। देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि और अहंकार-इन सब पर जब पूर्ण रूप से परमात्मा का अधिकार हो जाता है तभी पूर्ण समर्पण की असीम सुखदायिनी स्थिति मिल जाती है। उस समय “मैं” और “मेरा” यह भाव समाप्त हो जाता है। जो कुछ है सब तेरा है। “तेरा तुझे सौंपने में ही” जीवात्मा आनन्द लेने लगे तो यह समझना चाहिये कि उसके मल-विक्षेप धुल गये हैं। दिव्य शरणागति की प्राप्ति हो गई है।

मनुष्य जब तक साँसारिक अभिमान में भूला रहता है तब तक उसकी शक्ति और सामर्थ्य बिल्कुल तुच्छ और नगण्य होती है। जीवन के सारे अधिकार जब ईश्वर के हाथ सौंप देते हैं तो पूर्ण निश्चिन्तता आ जाती है। कोई भय नहीं, कोई आकाँक्षा नहीं। न कुछ दुःख और न ही किसी प्रकार का सुख शेष रहता है। पूर्ण तृप्ति और अलौकिक आनन्द की अनुभूति तब होती है जब जीवन की बागडोर परमात्मा को सौंप देते हैं। तब उसे बुलाना भी नहीं पड़ता। वह स्वयं ही आकर पहरेदारी करते हैं। भक्त के प्रत्येक अवयव में स्थित होकर अपना कार्य करने लगते हैं। इस स्थिति को ही पूर्ण समर्पण कहते हैं।

इस स्थिति को प्राप्त करने के लिये शरणागति की साधना करनी होती है। जीवन के जिस भाग को शुद्ध करते चलते हैं उसी में परमात्मा का प्रकाश झलकने लगता है और बढ़ने का साहस मिलने लगता है। श्रद्धा और विश्वास की प्रशस्ति निरन्तर बढ़ती रहती है तो लक्ष्य की समीपता भी बढ़ती है और पूर्ण समर्पण की स्थिति दिखाई देने लगती है।

अनन्य भाव से परमात्मा की उपासना शरणागति मुख्य आधार है। ईश्वर के समीप बैठने से वैसी दिव्यता उपासक को भी प्राप्त होती है और उसके सन्ताप गलकर नष्ट होने लगते हैं। नित्य-निरन्तर अभ्यास चलाने से ही जीवन में वह शुद्धता आ पाती है जो पूर्ण शरणागति के लिए आवश्यक होती है।

परमात्मा की ही सत्ता इस संसार के कण-कण में समायी है। प्रत्येक वस्तु में ओत-प्रोत है। वृक्ष-वनस्पति जीव-जन्तु, सूर्य-चन्द्रमा, आकाश-पाताल सब उसी लीलामय प्रभु के विविध रूप हैं। प्रत्येक वस्तु में उसी निवास, उसी की झाँकी देखनी चाहिए, इससे उसकी भावना प्रगाढ़ होती है। दया, करुणा और न्याय मनुष्य तभी कर सकता है जब वह सर्वत्र परमात्मा को विराजमान देखे। इस स्थिति को प्राप्त करना मनुष्य का प्रमुख कर्त्तव्य है। इसके लिए वह अनन्य भक्ति प्राप्त करने का अधिकारी भी नहीं हो सकता।

भावनाओं के द्वारा जिस तरह सब में अपना ही स्वार्थ देखने की आत्मीयता जगाई थी कर्म में भी वैसी ही स्वच्छता लानी पड़ती है। जिससे किसी का जी दुःखता हो वह कार्य कभी हितकर नहीं हो सकता क्योंकि जीवमात्र के प्रति अन्याय का अर्थ परमात्मा के नियमों की अवज्ञा करना है। ईश्वर की आज्ञाओं का तिरस्कार करके भी कोई उसे पा सका है ? इस संसार का पत्ता-पत्ता उसी का है फिर किसी के प्रति धृष्टता, अन्याय और अत्याचार भला वह क्यों सहन करेगा। हमें अपने कर्मों के द्वारा उसके सौंदर्य को नष्ट नहीं होने देना चाहिए। हम वह कार्य करें जिससे संसार की भलाई हो, यहाँ की सुन्दरता बढ़े तभी तो उसके प्रिय-पात्र बनने का सौभाग्य हमें प्राप्त हो सकेगा।

दुष्कर्म मनुष्य अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करता है। उसे अपना शरीर, अपना हित और अपने सुख अधिक प्रिय होते हैं इसी से औरों के सुख छीनने-झपटने का वह प्रयत्न करता है। पर जिन्हें परमात्मा से प्यार होगा उसे अपने सुख तो तुच्छ ही जान पड़ेंगे। हर प्रेमी की इच्छा यही होती है कि अपने प्रियतम की कौन-सी साघ पूरी करें। परमात्मा हमारा प्रियतम होगा तो उसकी इच्छा पूरी करने में कौन-सी कठिनाई रहेगी। परमात्मा अपने सभी बच्चों की परवरिश समान रूप से करना चाहता है। यही इच्छा अपनी भी बने तो समझें कि हम भी उसे प्यार करते हैं। ईश्वर के प्रति अपनी आत्मीयता बनाये रखना चाहते हो तो यह जरूरी है कि उसके पुत्रों के प्रति भी आत्मीयता रखें। कोई ऐसा काम न करें जिससे किसी का जी दुखता हो। किसी को कष्ट या क्लेश पहुँचा कर ईश्वर की भक्ति प्राप्त कर लेना बिलकुल असम्भव है। शुद्ध, सात्विक, सत्कर्मों से ही उसे प्रसन्न किया जा सकता है।

सत्कर्म दिखावे के लिये ही न करें। उनके प्रति हमारी गहन निष्ठा भी होनी चाहिये। ईश्वर के प्रति जितना अधिक विश्वास होगा उतना ही अधिक सत्कर्मों में प्रीति बनी रहेगी। जब भी कभी उसे भूल जाते हैं तभी दुष्कर्म बन पड़ते हैं। ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखेंगे तभी कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्कर्म और कर्त्तव्य-पालन से विचलित न होंगे। प्रलोभनों में वही फँसते हैं जिनका ईश्वर-विश्वास डगमगाता रहता है, पर जिसने चिन्तन-मनन और विचार द्वारा हृदय-आत्मा से ईश्वरीय स्थिति को स्वीकार कर लिया है उससे भूलकर भी कोई ऐसा कार्य न होगा जिससे किसी को कष्ट पहुँचता हो।

कर्म की प्रेरणा मनुष्य को प्रायः इच्छाओं, आकाँक्षाओं से ही मिलती है। जैसी कामनायें करते हैं कर्म भी वैसे ही बन पड़ते हैं। भोग-वासना से प्रेरित होकर ही लोग असंयम और व्यभिचार बढ़ाते हैं। स्वास्थ्य की खराबी का कारण अखाद्य पदार्थों को नहीं मानेंगे वरन् स्वादप्रियता को कहेंगे जिससे प्रभावित होकर मनुष्य कम-ज्यादा का ध्यान न देकर अच्छी-बुरी वस्तुओं को उदरस्थ करता रहता है। कर्म का मूल मनुष्य की इच्छा है, अतः कामनाओं पर नियंत्रण रखना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा न करें तो जीवन-लक्ष्य की साधना में शिथिलता आ जाती है।

स्वार्थ की संकीर्णता का परित्याग कर दें तो मामूली सी आवश्यकताओं ही शेष बचती हैं इनके लिये कोई बड़ी दौड़-धूप नहीं करनी होती। व्यर्थ की आपा-धापी बढ़ाने से ही मनुष्य अपने मस्तिष्क, अपने सात्विक लक्ष्य को भूल जाते हैं। ऋषियों का जीवन इसीलिए सदैव त्यागमय रहा है। जीवनयापन के साधनों में थोड़ा-सा समय लगाकर शेष समय का सदुपयोग वे विश्व-रहस्य जानने तथा ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त करने में बिताते थे। भारतीय संस्कृति को गौरव प्रदान करने का यह महानतम कार्य ऋषियों ने अपनी आवश्यकता का घटाकर किया था। आज भी वही मार्ग श्रेष्ठ है, उसी पर चलकर अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझा सकते हैं।

अपनी कामनाओं को जितना ही बढ़ाते हैं परिस्थितियों का दबाव उतना ही अधिक पड़ता है। फलस्वरूप लोग दैव को दोष लगाते हैं। परमात्मा की अकृपा समझते है किन्तु विचारपूर्वक देखें तो बात ऐसी नहीं है। परमात्मा का विधान सबके लिए सदैव मंगलदायक ही होता है। हमें उसी की रचना, उसी के विधि-विधान के साथ अपने जीवन का तालमेल पैदा करना चाहिए। वह जो कुछ भी करेगा हमारे हित के लिए ही करेगा इस विश्वास से आत्मा में बड़ा बल बढ़ता है।

देह के साधनों और सम्बन्धों को ही सत्य मानना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है। शरीर के सुख की ही बात सोचना बुद्धि संगत कदापि नहीं हो सकता। हमें जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद वाले स्वरूप का भी विचार करना पड़ेगा। दृष्टि से हमारा पिता, हमारी माता, भाई, स्वजन स्नेही सब कुछ वही है। वह हमारा संरक्षक है। उसी ने हमें जीवन दिया है। सुख के अनेकों साधन भी उसी ने जुटाये हैं। परम कृपालु स्वामी, सहृदय सखा भी वही है। उससे भिन्न मनुष्य का कुछ भी तो अस्तित्व नहीं है। मनुष्य जीवन देकर उसने हमारा कितना बड़ा उपकार किया है ? क्या हमें इस कृतज्ञता को भूल जाना चाहिए? क्या उससे विलग रहकर हम कभी सुखी रह सकेंगे? एक ही उत्तर है कि उसकी शरणागति के बिना सुख नहीं मिल सकता। उसे पाने के लिए तो पूर्ण रूप से समर्पण करना ही पड़ेगा।


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