जटिल नहीं, जीवन को सरल बनाइये।

September 1965

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जीवन में कठिनाइयाँ तथा मुसीबतें तब पैदा होती हैं जब मनुष्य उसे जटिल, दुरूह और अधिक आडम्बरपूर्ण बना लिया करता है। जीवन की सरलता ही सुखद है। व्यवहार में सरलता, विचार और आचरण में स्पष्टता बनी रहे तो मनुष्य के जीवन में कहीं कुछ भी कठिनाइयाँ परेशानियाँ नहीं है।

सरलता का अर्थ विश्व को ऐसे रूप में निदर्शन करना है जिसमें वह यथार्थ हो। यथार्थ परिस्थिति से भिन्न रूप बनाना ही जटिलता पैदा करना है। इसी से मुसीबतों का जन्म होता है। क्या आपने उस क्लर्क की कहानी पढ़ी है जिसने अपनी धर्मपत्नी पर अपनी आत्मश्लाघा के फलस्वरूप अपना वास्तविक रूप प्रकट नहीं किया। अधिक आय बताकर उसने दाम्पत्य जीवन में खाई पैदा कर ली। किसी विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिये पत्नी ने हार की याचना की जिसे वह क्लर्क पूरा नहीं कर सकता था किन्तु अपनी महत्वाकाँक्षा छिपाने के लिये किसी परिचित से हार माँग कर अपनी धर्मपत्नी की इच्छा पूरी की। घटनावश वह हार उत्सव पर खो जाता है और उसकी कीमत चुकाने में उस क्लर्क को अपनी आय का आधा हिस्सा प्रतिमास देना पड़ता है। आधी आय से उन्हें नितान्त गरीब का सा अभावग्रस्त जीवन जीना पड़ता है।

आज ऐसी ही कहानियाँ सर्वत्र देखने को मिल सकती हैं। साधारण जीवन व्यवहार से लेकर उत्सवों, विवाहों, पर्वों पर, विद्यार्थी जीवन से लेकर सामाजिक व्यवहार तक सब जगह अस्पष्टता के दर्शन होते हैं। जिनकी आय 50 रुपये है वह उसे छिपाकर 150 रुपये बताने में अधिक गौरव मानता है। घर की माली हालत अच्छी नहीं है पर बाहर निकलने के लिए वह सुसज्जित वेष-भूषा चाहता है। इस जटिलता के कारण पारिवारिक जीवन में, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन में अनेकों समस्याएँ खड़ी होती हैं और मनुष्य का जीवन भारस्वरूप हो जाता है। उससे न खुद को कोई प्रसन्नता होती है न औरों को। दाम्पत्य जीवन में विद्वेष, पारिवारिक जीवन में कलह तथा कटुता, व्यक्तिगत जीवन में ऊब, उत्तेजना अव्यवस्था, खर्चे की तंगी, बच्चों की शिक्षा का पूरा न कर पाना आदि अनेकों कठिनाइयाँ केवल इसलिये खड़ी हो रही हैं कि मनुष्य जिस स्थिति में है उससे बहुत अधिक बढ़ चढ़ कर अपने आप को व्यक्त करना चाहता है। यह बनावटीपन जहाँ भी पैदा होगा वहाँ के जीवन में भोंडापन अवश्य आयेगा। उसके फलस्वरूप मनुष्य का जीवन कठिनाइयों, चिन्ताओं तथा दुरुहताओं में ही फँसता चला जायेगा।

मनुष्य का यह अहंभाव यदि समाप्त हो जाता है तो वह अपने सरल जीवन में आ जाता है। इसमें उसे कुछ हानि नहीं होती। लोग छोटा मानेंगे ऐसी बात नहीं। ऋषियों के जीवन में बड़ी सादगी और सरलता थी इस कारण उनका गौरव सर्वमान्य ही है। दरअसल बनावटीपन, शेखी खोरी तथा अहंभावना की निन्दा की जाती है। नकली चेहरा लगाकर आने वालों पर ही संसार हँसता है। जिसके अन्दर सार्वभौम यथार्थता निर्दोष बनकर प्रतिबिम्बित होती है उसका जीवन आदर्श एवं अनुकरणीय होता है। वह जागृत हो जाता है और दूसरों के लिये नमूना बनता है। उसकी अनेक परेशानी उससे दूर रहती हैं और वह मस्ती का जीवन बिताता है।

जिसे हम स्वाभिमान या आत्माभिमान कहते हैं वह इसी जीवन सरलता का परिणाम है। हम जिस स्थिति में हैं उसी में सन्तुष्ट रहें तो दूसरों के आगे न हाथ फैलाना पड़े न सहायता माँगनी पड़े। आध्यात्मिक प्रवृत्तियां केवल इसीलिए जागृत नहीं होती क्योंकि लोगों को बाहरी बनावट से ही फुरसत नहीं मिलती। गुणों का विकास भी इसीलिये नहीं होता क्योंकि लोग अपने आपको बढ़ा चढ़ाकर प्रदर्शित करने में ही जीवन को सफल मानते हैं और इसमें जिसको जितना सम्मान मिल जाता है उसी में गर्व और सन्तोष का अनुभव कर लेते हैं। बुद्धि का जो भाग जीवन-विकास और आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण में लगना चाहिए था वह बाह्य विडम्बना और आत्म-प्रताड़ना में ही बीतता रहता है। बौद्धिक स्तर का इससे विकास भले ही हो जाय किन्तु आत्मिक स्तर दिन-दिन गिरता जाता है। नैतिक दृष्टि से ऐसे व्यक्तियों को पिछड़ा हुआ ही मानना चाहिये।

आहार-विहार, रहन-सहन, वेष-भूषा, विचार तथा जीवन निर्माण में मौलिक सरलता का समावेश होना नितान्त आवश्यक है। मनुष्य का जीवन एक उद्देश्य है जिसे निष्प्रयोजन नहीं होने देना चाहिये। आत्मा को आन्तरिक स्फुरणा के साथ मनुष्य विकसित हो यह उसकी मूल आवश्यकता है। उसके जीवन में स्नेह, प्रेम, आत्मीयता, दया, करुणा, उदारता, सौमनस्यता तथा सहिष्णुता का आदान-प्रदान बना रहे इसके लिए यह आवश्यक है कि उसका जीवन शुद्ध और सरल बना रहे। इससे उसका मनोबल क्षीण न होगा। वह हतोत्साहित, परावलम्बी तथा उदासीन न होगा। उसके जीवन में निरन्तर एक ऐसी दैवी प्रतिमा का विकास होता रहेगा, जिसकी समीपता में उसके उपरोक्त मानवीय गुण फलते-फूलते तथा अभिसिंचित होते रहेंगे।

जटिलता जीवन-वृत्तियों को बाह्योपचार में लगती है सरलता आत्मिक-स्तर को, अन्तःकरण को विशाल बनाती है। सत्य का व्यवहारिक स्वरूप सरलता है। इससे मनुष्य का हृदय विस्तीर्ण होता है, भावनायें परिष्कृत होती हैं। जैसे-जैसे उसकी वृत्तियाँ अन्तःवर्ती होती जाती हैं वैसे ही वैसे वह संसार को भी अत्यन्त स्वच्छ और स्पष्ट रूप में देखने लगता है। संसार के सच्चे रूप को देखना ही आत्मा की मूल आवश्यकता है। ईश्वर की आकाँक्षा को कोई व्यक्ति भुलाकर सर्वव्याप्त सद्गुणों को ही अपने अंतर्गत अवगाहन करता रहे तो आस्तिकता की सारी आवश्यकतायें इसी से पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्य के जीवन में जब मिथ्याहंकार तथा खोखलापन आता है तभी वह सत्य की वास्तविकता से विभ्रम होता है और नास्तिकता के कूट-चक्र में फँसकर जीवन को कठिन बना डालता है।

मानसिक अशान्ति का कारण क्या है? मनुष्य चाहते हैं कि संसार के सब पदार्थ अपने अपने स्वभाव को छोड़ कर उन्हीं की इच्छानुकूल बर्ताव करने लग जायें, परन्तु पदार्थ ऐसा करने से लाचार हैं। वे जिन प्राकृतिक नियमों से बँधे हैं उनका उल्लंघन नहीं कर सकते। इसलिये जब वे मनुष्य की इच्छा पूर्ति नहीं करते तभी वह दुःखी होने लगता है। भलाई तो इसमें थी कि वह वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को देखकर अपनी आवश्यकताओं को उनके अनुकूल बनाने का प्रयत्न करता। परन्तु यह तभी सम्भव है जब अपनी मानसिक वृत्तियों का नियंत्रण किया जाय और उन्हें स्थिति की परिधि से बाहर ने होने दिया जाये। इच्छायें, आकाँक्षायें बढ़ें, इसमें हर्ज नहीं पर वे साधनों के घेरे को तोड़कर बाहर न फैलने पावें, इतना ध्यान बना रहे तो कोई भी प्रगति अनर्थकारक न होगी। सम्पन्नता, शक्ति और समृद्धि हमारी शान तो हैं किन्तु वे यथार्थ होनी चाहिये। केवल प्रदर्शन मात्र न होना चाहिए। बाहरी और भीतरी साधन और विस्तार में पारस्परिक मेल−मिलाप बना रहे तो वह उन्नति सर्वांगीण की जायेगी।

मौलिक सरलता इतनी सजीव होती है कि मनुष्य जब प्रत्येक वस्तु से अपना अधिकार छोड़ देता है और परिस्थितियों के साथ संयोग करता है तभी उसे अपने भीतर का खोखलापन अनुभव हो जाता है और विनम्रता, धैर्य, करुणा तथा विवेक का जागरण होने लगता है। आत्मा सरल है और उसके समर्थन के लिये तर्क की आवश्यकता नहीं। जटिलता तो केवल दुर्गुणों तथा पाप-वृत्तियों के कारण उत्पन्न होती है। अतः मनुष्य जब तक स्वयं पूर्ण जीवन अभिव्यक्त न कर लें, उन्हें अपने मनोविकारों के शोधन परिमार्जन में ही लगे रहना चाहिये। अन्तःकरण में कलुष न रह जाय और बाह्य जीवन में दम्भ न शेष बचे उसी पुरुष का जीवन निश्चयात्मक शान्त एवं दैवी प्रतिभा से ओत-प्रोत होता है।

आध्यात्मिक उन्नति और सच्चे सुख को प्राप्त करने का राजमार्ग वृत्तियों का शासन है। जो लोग वृत्तियों के दास बनकर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के प्रयत्नों में उचित अनुचित का विचार नहीं करते उनकी आत्मा दुर्बल रहती है। आवश्यक सामग्री के उपस्थित न होने पर उन्हें जैसा, जितना तीव्र दुःख होता है उसकी प्रतिक्रिया औरों पर भी उसी गति से होती है। कपटता में अकेले एक व्यक्ति नहीं अनेकों और भी संलग्न हो जाते हैं। इस दुःख में फँसकर लोग अनर्थ करने लगते हैं। इससे छुटकारा तभी संभव है जब मनुष्य इच्छाओं की दासता को अस्वीकार कर केवल औचित्य पर ध्यान दें।

स्वाध्याय सन्दोह-


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