श्री रामकृष्ण परमहंस की गणना अवतारी पुरुषों में की जाती है। कोई बहुत बड़े अस्त्र-शस्त्र लेकर या अलौकिकताओं तथा चमत्कारों के साथ जन्म लेना, अवतार लेना लोगों की भ्रम बुद्धि को चमत्कृत भले ही करता हो, उसमें वस्तुतः कुछ भी तथ्य नहीं है। सामान्य एवं साधारण मनुष्य की तरह जन्म लेने वाला व्यक्ति भी अपने महान कार्यों द्वारा अवतारी पुरुष बन सकता है। चमत्कार की शक्ति किसी के पास हो भी तो उससे किसी कार्य का सम्पादन करना उतना महान नहीं है जितना कि परिस्थितियों, आकस्मिकताओं और प्रतिकूलताओं से लड़ते हुये किसी लोक हितकारी कार्य का सम्पादन करना। श्री रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे ही व्यक्ति थे जिन्होंने अपने कर्त्तव्य की महानता से ही अवतार पद प्राप्त किया था।
विख्यात है कि श्री रामकृष्ण परमहंस ने केवल छः वर्ष की आयु में ही भगवदानुभूति प्राप्त कर ली थी। सुनने में यह बात निःसंदेह विलक्षण लगती है और सहसा यह भाव मन में आता है कि छः वर्ष के अबोध बालक के हृदय में भगवदानुभूति का कारण केवल मात्र भगवान की कृपा ही हो सकती है। नहीं तो छः वर्ष का एक बालक जिससे कि एक साधारण बात समझने की आशा नहीं की जा सकती भगवदानुभूति को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है। छः वर्ष का बालक उक्त अलौकिक उपलब्धि के लिये कौन-सी ऐसी बड़ी साधना कर सकता है।
निःसंदेह किसी भी बड़ी उपलब्धि में भगवत् कृपा एक प्रधान हेतु होती है किंतु इस कृपा को प्राप्त करने में मनुष्य का पुरुषार्थ ही एक मात्र कारण होता है। मनुष्य जीवन कोई पहली और अन्तिम उपलब्धि नहीं होती। यह जन्म-जन्मान्तरों की एक शृंखला होती है। इसी शृंखला के अंतर्गत मनुष्येत्तर योनियाँ भी आती हैं। अनेक अपने कर्मानुसार अन्य योनियों में भटकते फिरते हैं और बहुत से अपने सुकर्मों के फलस्वरूप बार-बार मनुष्यता का अवसर पाते हैं।
जन्म-जन्मान्तरों में मनुष्य जिस अनुपात से अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी आत्मा का परिष्कार करता आता है उसी अनुपात से वह आगामी जीवन में बुद्धि, विद्या, विवेक, श्रद्धा और भक्ति की अनुभूति प्राप्त करता है। श्री रामकृष्ण परमहंस अवश्य ही पूर्व जन्म नहीं बल्कि जन्म-जन्मों में मनुष्य ही रहे थे और निरन्तर अपनी आत्मा के परिष्कार का प्रयत्न करते रहे। यह उनके पूर्व जन्म के सुकर्मों का ही फल था कि उन्होंने छः वर्ष की आयु में ही भगवदानुभूति प्राप्त कर ली। यही कारण है कि भारतीय ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जीवन को एक दुर्लभ अवसर कहा है और निर्देश किया है कि मनुष्य को अपने जीवन का सीमान्त सदुपयोग करके त्याग और तपस्या द्वारा भगवान का साक्षात्कार कर लेना चाहिये। और यदि वह कर्म-न्यूनता के कारण किसी प्रकार प्रभु का साक्षात्कार नहीं भी कर पाता तो अवश्य ही पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेकर या तो साक्षात्कार प्राप्त करेगा अथवा उस दिशा में अपने प्रयत्नों को आगे बढ़ायेगा। अस्तु मनुष्य को सावधानता पूर्वक साक्षात्कार होगा या नहीं होगा, यह तर्क -वितर्क त्याग कर, मनुष्य जीवन का सदुपयोग कर, अगले जीवन में साक्षात्कार की आशा पर पूर्ण प्रयत्नरत रहना चाहिये। इसमें प्रमाद करने वाले ही आगामी जीवन की सारी सम्भावनायें खोकर चौरासी के चक्कर में घूमते हैं।
अपने पूर्व पुरुषार्थ के फलस्वरूप जब श्री रामकृष्ण परमहंस ने अल्प आयु में ही भगवान की भक्ति प्राप्त कर ली तो वे उसी दिन से उसका साक्षात्कार करने के लिये साधना करने लगे। साधना के रूप में उन्होंने उपासना का मार्ग अपनाया। स्वयं अपनी विधि एवं बुद्धि से की हुई उपासना जब कोई उत्साहवर्धक फल लाते दिखलाई न दी तब उन्होंने क्रम से भारती ब्रह्मचारी और नग्न वेदान्ती तोतपुरी से सगुण साधना तथा निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश लिया। अनन्तर उन्होंने इस्लाम तथा ईसाई उपासना पद्धतियों का भी प्रयोग किया, किंतु पाया कि उन्हें इन उपासनाओं से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। अन्त में वे अपने स्वयं के चिन्तन और मनन के आधार पर नर-नारायण की उपासना के निष्कर्ष पर पहुँचे।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस की उज्ज्वल एवं उन्नत आत्मा ने जिस दिन मनुष्य सेवा के रूप में परमात्मा की सेवा स्वीकार की उसी दिन से उन्होंने अपने में एक स्थायी सुख-शान्ति तथा सन्तोष का अनुभव किया । भगवत् प्राप्ति का अमोघ उपाय पाकर उन्होंने सारी उपासना पद्धतियों को छोड़ दिया और नर-नारायण की सेवा में लग गये।
रोगियों की परिचर्या, अपंगों की सेवा और निर्धनों की सहायता करना उनका विशेष कार्यक्रम बन गया । जहाँ भी वे किसी रोगी को कराहते देखते, अपने हाथों से उसकी परिचर्या करते। अपंगों एवं विकलाँगों के पास जाकर उनकी सहायता करते, दुखी और दीन जनों को अपनी सुधा सिक्त सहानुभूति से शीतल करते। साधारण रोगियों से लेकर क्षय एवं कुष्ठ रोगियों तक की सेवा सुश्रूषा करने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। दीन-दुखियों को हृदय से लगाने में उन्हें एक स्वर्गीय सुख-शान्ति का अनुभव होता था। दरिद्रों को भोजन कराना और उनके साथ बैठकर प्रेमपूर्वक बातें करने में वे जिस आनन्द का अनुभव किया करते थे वैसा आनन्द उन्होंने अपनी ऐकान्तिक साधना में कभी नहीं पाया था।
एक तो अध्यात्म साधना से निर्विकार एवं निर्मल हृदय, दूसरे दीन दरिद्रों तथा आकुल समाकुलों की सेवा, फिर क्यों न उनको एक ऐसी कारुणिक अनुभूति का लाभ होता जो युग-युग की साधना के बाद पाये आत्मानन्द से किसी दशा में कम नहीं थी। दीन दुखियों के साथ बैठकर सच्ची सहानुभूति से उनका दुख बटाने में जो आनन्द है उसका अनुभव वे भाग्यवान ही कर सकते हैं जिनका हृदय पर-पीड़ा से कातर हो उठता है। जिसने लोभ, मोह, काम, क्रोध और अहंकार के शत्रुओं को परास्त कर लिया उसका हृदय अवश्य ही विश्व प्रेम से भरकर धन्य हो उठेगा। जो सुख चाहता है शान्ति की कामना रखता है वह निःसार साधनाओं को छोड़कर स्वामी रामकृष्ण परमहंस की तरह जाये और दीन दुखियों की सेवा करता हुआ उनकी कातर तथा करुणा मूर्ति में परमात्मा की झाँकी प्राप्त करे। जिसे आनन्द की प्यास हो वह दुखियों के पास जाये और अनुभव करे कि दूसरे का दुख बटाने पर हृदय में किस दिव्य आनन्द का उद्रेक होता है?
स्वामी रामकृष्ण ने न केवल भक्ति पूर्ण उपासना ही की, प्रत्युत आत्म शान्ति तथा अन्य चमत्कारिक सिद्धियों के लिये तान्त्रिक साधना भी की। इस तान्त्रिक साधना में जो सिद्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई वे नर-नारायण की सेवा में प्राप्त सुख की तुलना में बड़ी ही तुच्छ तथा हेय थीं। उनमें उतना ही अन्तर था जितना एक लोलुप धनवान और आत्म तुष्ट योगी में हो सकता है। इस निःसारता का अनुभव करके उन्होंने तृण के समान तुच्छ तान्त्रिक साधना को त्याग कर जन सेवा की महान गुणमयी साधना को अपना लिया।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस निःसन्देह एक दिव्यदर्शी सिद्ध पुरुष थे और पंचभूत त्यागने के बाद उन्होंने मोक्ष पद ही पाया होगा। उनकी साधना बड़ी और तप महान था। उन्होंने जन -सेवा द्वारा भगवत् प्राप्ति का जो मार्ग निकाला वह कोई कल्पना अथवा मात्र धारणा नहीं थी बल्कि एक चिरन्तन वास्तविकता तथा त्रयकालिक सत्य था। नर-नारायण की सेवा का निर्देश स्वयं उनका नहीं था। वह अवश्य ही उनकी निर्विकार आत्मा में प्रतिध्वनित परमात्मा का ही आदेश था, जिसका पालन उन्होंने स्वयं किया और वैसे ही करने का उपदेश अपने शिष्यों, भक्तों एवं अनुयायियों को भी दिया।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के निश्छल हृदय से निकली हुई पुकार-”रामकृष्ण मिशनों, मठों एवं आश्रमों में मूर्ति भली हुई, और आज क्या देश और क्या विदेश सभी जगह सैकड़ों की संख्या में श्री रामकृष्ण मिशन, सेवाश्रम तथा वेदान्त केन्द्र सहस्रों रोगियों को परिचर्या और दुखियों को सहायता और पथ भ्रान्तों को आलोक दे रहे हैं।
कहना न होगा कि वैयक्तिक साधना से मोक्ष पाकर गये हुये रामकृष्ण परमहंस से न संसार को कोई लाभ होता और न संसार उन्हें जानता। इसके विपरीत नर-नारायण की उपासना तथा भक्ति करने पर उन्हें मोक्ष तो मिला ही होगा, इसके अतिरिक्त संसार उनकी सेवाओं का लाभ पाकर उन्हें एक अवतारी पुरुष के रूप में याद करता रहेगा।