शीत ऋतु का हमारा दौरा और उसका उद्देश्य

September 1965

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शीत ऋतु में हमारे दौरे का प्रयोजन कई शाखाओं ने ठीक तरह समझा नहीं है, इसलिये उनने उसे भिन्न दृष्टिकोणों से देखा है और वैसी ही तैयारी करने लगे हैं। कई ने समझा है जैसे साधुओं की जमात तीर्थ यात्रा का भ्रमण करते हुये जहाँ-तहाँ जाती और पड़ाव डालती है वैसे ही आचार्य जी भी यहाँ आवेंगे, कथा, कीर्तन करेंगे, जनता को उनकी बातें सुनने का मौका मिलेगा। हमारा दायित्व तो इतना भर है कि उनके ठहरने, भोजन आदि की व्यवस्था कर दें। कई ने इसे अपना व्यक्तिगत सौभाग्य माना है कि आचार्य जी हमारा घर पवित्र करेंगे। कइयों ने उन्हीं दिनों ऐसे सम्मेलन रच दिये हैं जिनमें विभिन्न विचार धाराओं के वक्ता एकत्रित हों और विभिन्न प्रकार की बोली बोलकर जनता का विविध विधि मनोरंजन करें। उन्हीं में से एक वक्ता आचार्य जी भी हों, आदि आदि।

इन भ्रान्तियों का सर्वथा दूर कर दिया जाना चाहिये। हमारा उद्देश्य एक क्षेत्र के स्वजनों का एक उपयुक्त जगह पर इकट्ठे करके उनके साथ विचार विमर्श एवं परामर्श करना मात्र है। अखण्ड-ज्योति परिवार बहुत बड़ा है वह दूर-दूर तक बिखरा हुआ है। इन परिजनों में से दूरवर्ती लोग बहुत कम संख्या में मथुरा आ पाते हैं। आर्थिक कठिनाई सबको वैसा नहीं करने देती, अतएव व्यक्तिगत संपर्क नहीं बन पाता। अखण्ड-ज्योति के माध्यम से जो विचारधारा उन तक पहुँच जाती है उतना मात्र ही सम्बन्ध रहता है। व्यक्तिगत सान्निध्य की फिर भी आवश्यकता रहती ही है। उसकी भी अपनी उपयोगिता एवं आवश्यकता रहती है। जिसे मथुरा आने वाले थोड़े ही लोग पूरी कर पाते हैं। इसलिये सोचा यह गया है कि सर्दी की ऋतु में ऐसे आयोजन रखे जायँ जिनमें एक-एक, दो-दो दिन ठहरते हुये हम रेलवे लाइन के हिसाब से आगे बढ़ते चले जायें, और उस थोड़ी-सी अवधि में उस क्षेत्र के सभी स्वजन, परिजन एक स्थान पर इकट्ठे होकर हम से मिल लें, हमारे विचार उन्हें सुनने को मिलें और उनकी बातें हमें सुनने समझने को मिलें परस्पर विचार विनिमय से ऐसा मार्ग खोज निकाला जाय जिससे इस परिवार के स्वजनों, परिजनों का जीवन क्रम एवं दृष्टिकोण अधिक परिष्कृत एवं अधिक सुख शाँतिमय बन सके।

इस दौरे में कहाँ ठहरा जाय, कहाँ न ठहरा जाय, यह इस बात पर निर्भर है कि उस क्षेत्र में अखण्ड-ज्योति परिवार के कितने सदस्य हैं और उनका वहाँ एकत्रित हो सकना संभव हो सकता है या नहीं? इस कसौटी पर जो स्थान खरे उतरेंगे वहीं ठहरने का विचार है। हमें सभी शाखायें प्रिय हैं, सभी स्वजन प्रिय हैं। पर 40 हजार परिजनों के घरों पर या 3000 शाखाओं में ठहरना संभव नहीं। उद्देश्य को आगे रखकर यह कार्यक्रम बनाया जा रहा है, व्यक्तिगत प्रेम परिचय के आधार पर नहीं। इसलिये जिन्हें निमंत्रण भेजना हो वे उपरोक्त जिम्मेदारी उठाने को तत्पर हों तभी ठीक रहेगा।

1 सितम्बर तक दौरे का निर्धारित कार्यक्रम निश्चित हो जाना चाहिये था। पर कठिनाई यह सामने आ गई कि निमंत्रण इतने अधिक आ गये हैं जिससे यह पता चलता है कि लोगों ने भावावेश में पत्र लिख दिये हैं। दौरे का उद्देश्य और उसे सफल बनाने के लिये उनका जो उत्तरदायित्व है वह ठीक तरह समझ नहीं सके हैं। इसलिये यह पंक्तियाँ फिर लिखनी पड़ीं। इन निमंत्रणों में से यह छाँट करनी बाकी है कि कितनों ने भावावेश में पत्र लिखे हैं, कितनों ने उसका उद्देश्य समझा है। इस बात ही छाँट करने में अभी एक महीना और लग जायगा।

जिनने निमंत्रण भेजे हैं वे निम्न बातों पर पुनः विचार करें और तद्नुसार स्वयं विचार करके दुबारा निमंत्रण भेजें। यदि वैसी सुविधा न बन सके तो अपने निमंत्रण वापिस ले लें, ताकि हमारा बहुमूल्य समय और उनकी परेशानी दोनों ही बच जाय।

(1) अपनी मन मर्जी से हम कहीं भी ठहरने रुकने का प्रोग्राम नहीं बना रहे हैं इसलिये यह नहीं लिखना चाहिये कि - “इधर से निकलें तब एक दिन हमारे यहाँ भी रुकते जावें।” जहाँ व्यवस्थापूर्वक कुछ आयोजन रखा जा रहा होगा केवल वहीं ठहरने का विचार है।

(2) जहाँ हमें रुकना है वहाँ उस क्षेत्र के अखण्ड-ज्योति परिजनों को आग्रहपूर्वक बुलाना चाहिए और उनके ठहरने, भोजन आदि का प्रबन्ध करना चाहिये।

(3) उस अवसर पर यज्ञ करना हो तो वह एक या पाँच कुण्ड से बड़ा न हो। बड़े आयोजनों में कार्यकर्ताओं को बड़ी व्यवस्था करने में लगे रहना पड़ता है और आवश्यक विचार विमर्श उन लोगों के साथ नहीं हो पाता।

(4) अखण्ड -ज्योति परिवार के उस क्षेत्र के लोग तो बुलाये ही जायँ, इसके अतिरिक्त विचारशील धार्मिक प्रकृति के अन्य लोगों को भी व्यक्तिगत रूप में निमंत्रित करके बुलाया जाय ताकि उस परामर्श विचार विनिमय में सम्मिलित होकर वे भी लाभ उठा सकें।

(5) आम जनता के भाषण न रखे जायँ क्योंकि दो दिन का थोड़ा-सा समय तथा बोलने की अपनी जो सीमित क्षमता है उसे सारी की सारी हम स्वजन, परिजनों के साथ विचार विनिमय में ही खर्च करना चाहते हैं। यदि जनता की सार्वजनिक सभायें रखी जायँ तो परिजनों के साथ उतना ही कम परामर्श होगा, यह उचित नहीं।

(6) बस की यात्रा हमारे लिये बिल्कुल उपयुक्त नहीं पड़ती। थोड़ी यात्रा में ही उल्टी आने लगती है। सिर दर्द होता है और बीमार पड़ जाते हैं। इसलिये निमंत्रण वहीं के लिए भेजा जाय जहाँ रेलवे स्टेशन की समीपता हो। बसों की लम्बी यात्रा न करनी पड़े। जीप जैसे साधन कहीं हो तो ही सड़क मार्ग से जाना संभव होगा। छोटे देहात जहाँ उस क्षेत्र के लोग भी यातायात साधनों के अभाव से नहीं पहुँच पाते वहाँ इसलिए हमें न बुलाया जाना चाहिए कि वह उनका गाँव है। इसलिए वहाँ जरूर आना चाहिए। पहुँचने वाले परिजनों की तथा हमारी सुविधा देखकर ही निमंत्रण के स्थान चुने जाने चाहिये।

(7) इस वर्ष सभी जगह जा सकना संभव न होगा, इसलिए जिन निमंत्रणों को स्वीकार न किया जा सकेगा उन्हें अगले वर्ष समय देने का प्रयत्न करेंगे। इसलिये सभी निमंत्रण भेजने वालों को इसी वर्ष के लिये आग्रह नहीं करना चाहिये।

(8) आमतौर से लोग चाहते हैं कि उनके यहाँ जो दो दिन रखे गये हैं उनमें एक रविवार अवश्य हो ताकि सरकारी कर्मचारी भी उसमें भाग ले सकें। यह इच्छा प्रायः सभी ने व्यक्त की है। पर चूँकि हमें दौरा लगातार करना है इसलिये यह माँग स्वीकार कर सकना कठिन है। प्रोग्राम रात्रि में रखे जा सकते हैं जिसमें छुट्टी वाले और न छुट्टी वाले समान सुविधा से उसमें सम्मिलित हो सकें। फिर जो कार्य आवश्यक समझे जाते हैं उनके लिये छुट्टी ले लेना भी कोई बड़ी बात नहीं है।

ऐसे सम्मेलनों की जहाँ सुविधा हो, वहीं से निमंत्रण भेजे जाने चाहिये। अब तक इतने अधिक निमंत्रण आ गये हैं, उनसे वस्तुस्थिति का पता लगाना कठिन हो रहा है। इसलिये यह पंक्तियाँ लिखनी पड़ी कि जिनने अब तक निमंत्रण भेजे हैं वे उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुये अपने निमंत्रण पर पुनर्विचार करके फिर से लिखें। उन पर विचार करके तभी अन्तिम स्वीकृति दी जायगी। तद्नुसार ही सबको अपनी तैयारी आरम्भ करनी चाहिये। उस क्षेत्र में अखण्ड-ज्योति परिवार के कितने सदस्य हैं इसकी सूची पत्र लिखकर मथुरा से मँगाई जा सकती है। -

आश्विन नवरात्रि की साधना


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