[सबद नावाँ, महल सलोक महला 9]

November 1952

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गुरु गोविन्द गायो नहीं जन्म अकारथ कीन।

कहु नानक हरिभजु मना जिहविधि जल को मीन ॥1॥

विखियन सिउ काहे रचियो निमख न होहि उदासु।

कहु नानक भजु हरि मना परै न जमकी फास॥2॥

तरनापा उह ही गइयो लीयो जरा तनु जीत।

कहु नानक भजु हरि मना अवध जात है बीति॥3॥

बिरव भयो सूझे नहीं काल पहुँचियो आनु।

कहु नानक नर बावरे किउ न भजै भगवानु॥4॥

धनु दारा सम्पति सगव निज अपनी कर मान।

इनमें कुछ संगी नहीं नानक साँची जानि॥5॥

पतित उधार भै हरन हरि अनाथ के नाथ।

कहु नानक तिह जानिए सदा बसंत तुम साथ॥6॥

तनु धनु जेहि कोउन दीयो तासिउ नेह न कीन।

कहु नानक नर बावरे अब किउ डोलत दीन॥7॥

तनु धनु सवै सुख दीयो अरु जिह नीके धाम।

कहु नानक सुन रे मना सिमरत काहि न राम॥8॥

सभ सुख दाता रामु है दूसर नाहिन कोई।

कहु नानक सुन रे मना तिह सिमरत गति होई॥9॥

जिह सिमरति गति पाईए तिहि भजु रे तै मीत।

कहु नानक सुन रे मना अवध घटत है नीत॥10॥

पाँच तत्व को तनु रचिया जानहु चतुर सुजान।

जिह ते उपजियो नानका लीन ताहि में मान॥11॥

घटि-घटि में हरिजू बसै सन्तन कहियो पुकारि।

कहुनानक तिह भजु मना भवनिधि उतरहि पारि।12।

सुख दुख जिह परसै नहीं लोभ, मोह, अभिमान।

कहु नानक सुनरे मना सो मूरति भगवान॥13॥

उसतत निन्द्या नाहि जिपि कंचन लोह समानि।

कहु नानक सुन रे मना मुकति ताहि तै जानि॥14॥

हरख सोग जाकै नहीं बैरी मीत समान।

कहु नानक सुन रे मना मुकति ताहि तै जानि॥15॥

भै काहू को देत नहिं नहिं भै मानतु आनि।

कहु नानक सुन रे मना ज्ञानी ताहि बखानि॥16॥

जिह बिखिया सगली तजी लीयो भेख बैराग।

कहु नानक सुन रे मना तिह नर माथे भाग॥17॥

जिह माया ममता तजी सभ ते भयो उदास।

कहु नानक सुन रे मना तिह घटि व्रह्म निवास॥18॥

जिह प्राणी ममता तजी करता राम पछान।

कहु नानक बहु कुमाँत तजु इहु मत साची मान॥19॥

भै नासन दुरमति हरन कल में हरि को नाम।

निसिदिन जो नानक भजे सकल होहि तिह काम॥20॥

जिह्वा गुरु गोविन्द भजहू करन सुनहु हरि नाम।

कहु नानक सुन रे मना परहि न जम के धाम॥21॥

जो प्रानी ममता तजै लोभ, मोह, अहंकार।

कहु नानक आपन तरै अउरन लेत उधार॥22॥

जिउ सुपना अरु पेखना ऐसे जग कोउ जानि।

इनमें कछु साँचो नहीं नानक बिन भगवान॥23॥

निसि दिन माया कारने प्रानी डोलत नीत।

कोटन में नानक कोऊ नारायण जिह चीति॥24॥

जैसे जल से बुदबुदा उपजै विनसै नीति।

जग रचना तैसे रची कहु नानक सुन मीत॥25॥

प्रानी कछू न चेतई मद माया के अन्ध।

कहु नानक बिन हरिभजन परत ताहि जम फन्द ॥26॥

जउ सुख कउ चाहै सदा सरन राम की लेहु।

कहु नानक सुन रे मना दुर्लभ मानुष देहि॥27॥

माया कारन धावही मूरख लोग अजान।

कहु नानकबिन हरिभजन विरथा जनम सिरानि॥28॥

वर्ष-13 सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य अंक -11


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