प्रकाश की ओर चलिए।

November 1952

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

संसार के माया मोह के कर्दम में फँसा हुआ मानव प्राणी, निस्सार एवं क्षणिक सुखों के जाल में फँसा आगे बढ़ता जाता है। वह जिस ओर देखता है, उसे नाना प्रकार के आकर्षण पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं। भोजन का सुख, कामवासना की कभी न शान्त होने वाली क्षुधा, पदार्थों को एकत्रित कर अपनी प्रतिष्ठा, मान अहं, सामाजिक यश प्राप्ति में वह ऐसा व्यस्त रहता है कि उसे इनके अतिरिक्त कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। वह अर्थ काम की प्राप्ति में भयानक कृत्य करता है। वह एक ऐसा पशु है जिसका मन सब क्षण साँसारिक प्रलोभनों में विचरण करता है।

वासना की अतृप्ति :- क्रमशः उसकी वृत्तियों का विकास होता है। भोजन के रस और सुख की क्षणभंगुरता उसे एक स्तर ऊंचा उठाती है। सुस्वादु भोजन खाते खाते वह अनुभव करता है कि उसके अन्दर अतृप्ति है। कोई ऐसी चीज है, जो कुछ पाने को तड़पती है। वह वासनापूर्ति की ओर दौड़ता है, किन्तु वासना पूर्ति के पश्चात् वह देखता है कि उसके अन्तस्थल की अतृप्ति ज्यों की त्यों बनी हुई चल रही है। वासना की पूर्ति नहीं हो पाती, प्रत्युत वह दुगुने वेग से उद्दीप्त हो मन को उद्विग्न करती है।

समग्र संसार में व्याप्त अशान्ति और क्लेश की विचारधाराएँ, उसकी मन शांति को भंग करती रहती हैं। वह जितना ही संसार के बन्धनों में लिप्त होता जाता है, उतना ही चिन्ता, भय, शंका, सन्देह और तुच्छ मनोविकारों के जाल में फँसता है। संसार के नाना पदार्थ, मकान, जायदाद, पुत्र-पुत्री का मोह, अन्य छोटी वस्तुओं में व्याप्त अतृप्त इच्छाएँ, उसे क्षण भर भी ऊंचे स्तर पर उठने नहीं देती। वह जीवन के प्रकाशमय भाग पर दृष्टि केन्द्रित न कर, किसी वस्तु या मनुष्य में कोई त्रुटि, दोष या बुराई देखता है। अकारण ही दूसरों पर सन्देह करता है। उसके मस्तिष्क में नानाप्रकार के काम, क्रोध, अहं, ईर्ष्या, क्षोभ, उद्वेग आदि दूषित मनोविकार प्रवेश कर उसे निरन्तर उद्विग्न रखते हैं।

जैसी मनुष्य की आन्तरिक स्थिति होती है, वैसे ही वातावरण की वह सृष्टि करता है। यदि आप अन्तःकरण में दूसरों के प्रति अविश्वास, कटुता, दुर्व्यवहार लेकर अग्रसर हो रहे हैं, तो निश्चय जानिये उन्हीं दुर्व्यवहारों की वापसी आपको प्राप्त होने वाली है।

उद्वेग तथा दुश्चिन्तन उत्पन्न करने वाली वृत्ति तमोगुणी है। आसुरी वृत्ति का निष्कासन प्रारम्भ कीजिए। ईर्ष्या, द्वेष तथा क्रोध को अन्तःकरण से बहिर्गत कर दीजिए। मनुष्य जब तक अपने आपको पार्थिव शरीर मानता है, तभी तक वह सात्विकता और पवित्रता से दूर रहता है। आसुरी वृत्ति की प्रधानता से दूसरों के प्रति पवित्रता से दूर रहता है। आसुरी वृत्ति की प्रधानता से दूसरों के प्रति कटुता, शत्रुता तथा शंका की संदेहात्मक वृत्तियों का आविर्भाव होता है। इसके विपरीत सतोगुणों के दृष्टिकोण को अपने समक्ष देखने से समस्त दैवी सम्प्रदाओं की सृष्टि होती है। क्रोध के स्थान पर त्याग, प्रतिशोध के स्थान पर प्रेम, करुणा, सहानुभूति की उत्पत्ति होती है।

मनुष्य जितना ही साँसारिक वस्तुओं के बन्धन से मुक्त होकर दिव्य भावना और दिव्य वातावरण की सृष्टि में निवास करता है, आत्मिक ज्ञान में लय होता है, उच्च सात्विक विचारधारा में निवास करता है, उतना ही उसे आनन्द प्राप्त होता है। सर्वत्र परमात्म तत्व का अनुभव करने वाला साधक प्रत्येक अणु परमाणु में एक आत्मा का प्रकाश देखता है। वह समग्र संसार के प्राणियों में आत्मभाव से विचरण करता है, सबके प्रति सत्य, प्रेम और न्याय के दिव्य विधान से प्रेरित रहता है। वह भय, चिंता, अहं और घबराहट की मनोभूमि से ऊंचा उठ जाता है। मनुष्य के कल्याण की अनेकों योजनाओं में से भारत की अहं नाश की योजना सबसे कल्याणकारी है। अहं से मुक्त होकर वह आत्म-भाव की वृद्धि करता है।

वह संकीर्णता से मुक्त है। उसका आत्म भाव चारों ओर से विकसित होता है, जिसमें सब प्रकार के कीट, पतंग, पशु-पक्षी मानव आदि सम्मिलित रहते हैं। वह साम्प्रदायिकता, रंग−रूप का भेद, कट्टरता से ऊंचा रहता है। उसके दृष्टिकोण में संसार एक शिक्षालय है, जिसमें मनुष्य को प्रेम, समता, सहानुभूति अथवा उच्च दैवी सत्ता से एकता की शिक्षा दी जाती है। संकीर्णता से मुक्त रहने के कारण उसका आत्म-भाव पृथ्वी और आकाश की समस्त जिन्दगी और व्यापार, अणु-परमाणुओं में व्याप्त है।

प्रकाश पुँज ईश्वरः- समस्त प्रकाश का पुञ्ज ईश्वर है। ईश्वर चिंतन मुक्ति का सर्वोपरि साधन है। भीतर बाहर सर्वत्र ईश्वरत्व का दर्शन करना को मुक्ति का साधन हो सकता है। हम ईश्वरत्व की आराधना करें। ईश्वरत्व का व्यवहार करें। जो कार्य ईश्वरत्व जैसे तत्व के विरुद्ध हो सकते हैं, हम उनसे बचकर ही ईश्वर के प्रिय पुत्र होने के अधिकारी हो सकते हैं।

ईश्वरत्व हमारे अन्तःकरण में जागृत एक दिव्य भावना है। आन्तरिक कल्मष से दूर वह दिव्य संपदाओं से प्रभावित है। अहंकार, क्रोध, काम, मद इत्यादि षटरिपुओं से उनका कोई सरोकार नहीं है। ईश्वरत्व से अभिप्राय है अक्षय प्रेम, सहानुभूति, करुणा, शील, आनन्द, सत्य आदि। इन दैवी गुणों से आन्तरिक प्रवेश इतना भरा पूरा रहना चाहिये कि कोई भी साँसारिक विकार आकर आन्तरिक शान्ति भंग न कर सके। व्यावहारिक ईश्वरत्व का पालन करने वाला यह पुरुष अपने दैनिक जीवन तथा व्यवहार में सब स्त्री-पुरुषों, समाज, पशु-पक्षी से वही शील सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करता है, जो वह अपने इष्ट-मित्रों तथा बन्धु-बाँधवों से करता रहता है। उसके प्रेम तथा आत्म भाव का दायरा अत्यन्त विस्तृत होता है। संसार का समस्त व्यापार उसमें सम्मिलित है। जब आप रोगी की सेवा करते हैं, तो ईश्वरत्व का अपने अन्दर मौजूद होना दिखाते हैं। दुखी को सहानुभूति, रोते हुए को आश्वासन, भूखे नंगे को रोटी कपड़ा देते हैं, प्यासे को जल पिलाते हैं तो आप ईश्वरत्व का परिचय देते है। जब आप न्याय की कुर्सी पर बैठ कर नीर-क्षीर विवेक करते हैं, दोषी को दण्ड तथा निर्दोष को मुक्त करते हैं, तो आपके मुख से ईश्वर बोलता है। आप सत्य पथ पर चल रहे हैं, किन्तु फिर भी लोग आपके विषय में झूठे आरोप करते हैं, गालियाँ देते हैं और अपशब्द व्यवहार में लाते हैं, उस कष्टकाल में आपकी आन्तरिक शान्ति को स्थिर रखने वाला तत्व ईश्वर ही है। ईश्वरत्व भूखे का सहारा, पीड़ित का साथी, और रोगों का आश्रय है। कोई ऐसा सद्गुण नहीं जो हम से दूर हो, या दुष्प्राप्य हो, यह तो हमारे इर्द-गिर्द सर्वत्र विद्यमान है। इसका आपसे निकट सम्बन्ध है। इसकी प्रगति से आप में दिव्य भावना, दिव्य संकल्प तथा दिव्यवाणी का संचार होता है। ईश्वरत्व की सिद्धि से ही मानव परमेश्वर का सबसे प्यारा पुत्र बनता है।

जिस व्यक्ति में ईश्वर का जागरण हो जाता है, वह उसी क्षण जीवन के महत्तम क्षण को प्राप्त करता है। वह यथार्थ में कष्ट और मृत्यु पर विजय पा लेता है, उसकी समस्त शारीरिक वासना जन्य दुर्बलताएं क्षार क्षार होकर उसके शरीर और अन्तःकरण से भूमिसात् हो जाती हैं। उसके शरीर और मन में ईश्वरत्व का अणु अणु जाग्रत हो उठता है, उसमें जैसे प्रकाश पुञ्ज भर रहा हो और कोने कोने का अन्धकार विलीन हुआ जा रहा हो। वह सत्य, प्रेम, ब्रह्म-रूप, चेतन, अमृत और दिव्य प्राणमय हो उठता है। ऐसे आत्म प्रकाश के क्षण जीवन में धन्य हैं।

सर्वव्यापक आत्मा :- आत्म तत्व से प्रकाशित व्यक्ति संसार में रहता हुआ भी विरागी है, मोह माया में संलग्न रहते हुए दीखने पर भी, वह वास्तव में इनसे ऊँचा, बहुत ऊँचा है। उसका जीवन, आदर्श और व्यवहार दिव्य आध्यात्मिक प्रबन्ध से सुव्यवस्थित है। परमात्मा का निवास उसके ऊपर नीचे चारों ओर है। वह संसार के कार्यों को कर्तव्य की प्रेरणा समझ कर करता है, किन्तु उनमें लिप्त नहीं रहता। संसार के सब मनुष्य, तथा अन्य उसके आत्मबन्धु हैं। सर्वत्र एक ही आत्मा का निवास है। उनका भोजन, प्रबन्ध, रहन सहन, व्यवहार ब्रह्म-रूप, चेतन, अमृत तथा दिव्य प्राण से संचरित है। उसका मन सत्य और शिव संकल्प मय है। वह जीता है, तो उसके जीवन का अभिप्राय संसार में दूसरे अन्धकार में रहने वाले प्राणियों को प्रकाश में लाना है। वह कर्त्तव्य समझ कर इसी प्रकाशमय मार्ग पर आरुढ़ रहता है।


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