उद्विग्न मत हूजिए।

November 1952

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भवोद्विग्नमना चैव हृदुद्वेगं परित्यज। कुरु सर्वारववस्थासु शान्तं सन्तुलितं मनः॥

अर्थ—मानसिक उत्तेजनाओं को छोड़ दो। सभी अवस्थाओं में मन को शान्त और संतुलित रखो।

शरीर में उष्णता की मात्रा अधिक बढ़ जाना ‘ज्वर’ कहलाता है और वह ज्वर अनेक दुष्परिणाम उत्पन्न करता है। वैसे ही उद्वेग, आवेश, उत्तेजना, मदहोशी, आतुरता आदि लक्षण मानसिक ज्वर के हैं।

आवेश का अन्धड़ तूफान मनुष्य के ज्ञान, विचार, विवेक को नष्ट कर देता है और वह न करने लायक कार्य करता है। यह स्थिति मानव जीवन में सर्वथा अवाँछनीय है।

विपत्ति पड़ने पर लोग चिन्ता, शोक, निराशा, भय, घबड़ाहट, क्रोध, कार्यरता आदि विषादात्मक आवेशों से ग्रस्त हो जाते हैं और सम्पत्ति आने पर अहंकार, मद, मत्सर, अतिहर्ष, अतिभोग, ईर्ष्या, द्वेष आदि उत्तेजनाओं में फँस जाते हैं। यह दोनों उत्तेजनाएँ मनुष्य की आन्तरिक स्थिति, रोगियों, बालकों एवं विक्षिप्तों जैसी कर देती हैं। ऐसी स्थिति मनुष्य के लिए विपत्ति, त्रास, अनिष्ट, अनर्थ और अशुभ के अतिरिक्त और कुछ उत्पन्न नहीं कर सकती।

जीवन एक झूला है जिसमें आगे भी और पीछे भी झोंटे आते हैं। झूलने वाला पीछे जाते हुए भी प्रसन्न हो जाता है और आगे आते हुए भी। अनियंत्रित

तृष्णाओं की मृग मरीचिका में मन अत्यन्त दीन, अभावग्रस्त और दरिद्री की तरह सदा व्याकुल रहता है। इस स्थिति में पड़ा हुआ मनुष्य सदा दुखी ही रहता है क्योंकि झूला झूलने वाले की तरह जीवन की भली-बुरी घटनाओं का खटमिट्ठा स्वाद लेने की अपेक्षा वह अपनी अनियन्त्रित तृष्णाओं को ही प्रधानता देता है और चाहता रहता है कि मेरे मनोनुकूल ही सब कुछ हो। ऐसा हो सकता सम्भव नहीं, इसलिए उसे मनोवाँछित सुख की प्राप्ति भी सम्भव नहीं, इस प्रकार के दृष्टिकोण वाले मनुष्य सदा, असंतुष्ट, अभावग्रस्त एवं दुखी ही रहते हैं वे हर घड़ी अपने को दुर्भाग्य ग्रस्त ही अनुभव करते रहते हैं।

हर्षोद्वेगों में अहंकार प्रधान है। थोड़ी सी सफलता, सम्पत्ति, सत्ता, रूप, यौवन, पदवी आदि मिलने पर मनुष्य इतराने लगता है, दूसरों पर अपनी सफलता और श्रेष्ठता प्रकट करने के लिए वह अवाँछनीय प्रदर्शन एवं अनावश्यक धन खर्च करता है। दूसरों का तिरस्कार, मानमर्दन, शोषण, अपहरण करके भी वह अपनी शक्तिमत्ता का परिचय देता है। अमीर, सामन्त, रईस, सेठ, ताल्लुकेदार, राजा, हाकिम, अफसर आदि वर्गों के लोग में बहुधा हर्षोन्माद देखा जाता है। किन्हीं स्त्री-पुरुषों को रूप यौवन का भी उन्माद होता है। फैशनपरस्ती, बनाव शृंगार, विलासिता, उच्छृंखलता आदि की प्रवृत्ति उनमें बढ़ती रहती है। विवाह शादियों में, प्रीतिभोजों में, उत्सवों में बहुधा अपनी नामवरी लूटने के लिए बहुत अनावश्यक खर्च करते हैं यह बातें भी इसी श्रेणी में आती हैं। हर्षोद्वेग में मनुष्य का मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और वह न करने योग्य कार्यों को करने लगता है, न सोचने लायक बातों को सोचने लगता है।

विषादोद्वेगों का क्षेत्र बड़ा है। अधिकाँश मनुष्यों को वास्तविक एवं काल्पनिक विषाद घेरे रहते है और वे उनके कारण निरन्तर परेशान रहते हैं। चिन्ता, भय, शोक, घबराहट, बेचैनी, क्रोध, अस्थिरता, निराशा, आशंका, कायरता, हीनता आदि के विषादात्मक विचार जब किसी के मस्तिष्क में प्रवेश करते हैं तो वह एक प्रकार से अर्ध विक्षिप्त हो जाता है। उसे सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें, क्या न करें? धैर्य, साहस, विवेक और प्रयत्न इन चारों बातों से वह हाथ धो बैठता है। यह मानसिक स्थिति स्वयं इतनी खतरनाक है कि बाहरी घटनाएँ परिस्थितियाँ जितनी हानि पहुँचा सकती हैं उनकी अपेक्षा अनेक गुना अनिष्ट इस आन्तरिक उद्विग्नता से हो जाता है।

घबराहट एवं बेचैनी से किसी समस्या का हल नहीं होता वरन् और नई उलझनें पैदा होती हैं। कठिनाइयाँ सभी के सामने आती हैं, मनुष्य जीवन संघर्ष असुविधा और अभावों से भरा हुआ है, प्रयत्न और पुरुषार्थ द्वारा, बुद्धि और चतुरता द्वारा उनकी पूर्ति की जाती है। आपत्तियों और असुविधाओं से धैर्य और साहस के साथ जो लोग हँसते-हँसते मुकाबला कर सकते हैं वे ही उत्तम और उन्नत परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकते हैं। जो लोग असुविधाएँ देखकर घबरा जाते हैं, डर जाते हैं, उद्विग्न हो जाते हैं वे अपनी वर्तमान स्थिति की अपेक्षा भी और निम्न अवस्था को जा पहुँचते हैं।

उत्तेजना में अपनी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों की भारी क्षति होती है। डॉक्टरों का कहना है कि यदि मनुष्य लगातार 4॥ घण्टे क्रोध में भरा रहे तो उसका लगभग 8 औंस खून जल जायगा और शरीर में इतना विष उत्पन्न हो जायगा जितना कि एक तोला कुचला खाने से उत्पन्न होता है। चिता की अधिकता से हड्डियों के भीतर रहने वाली मज्जा सूख जाती है फलस्वरूप अनेकों बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। भविष्य का आशंका से जिनका चित्त भयभीत रहता है उनके रक्त में क्षार की मात्रा घट जाती है। बाल झड़ने और सफेद होने लगते हैं। शोक के कारण नेत्रों की ज्योति क्षीणता, गठिया, बहुमूत्र, पथरी सरीखे रोग हो जाते हैं, ईर्ष्या, द्वेष एवं प्रतिहिंसा की जलन के कारण तपैदिक, दमा, बहरापन, कुष्ठ सरीखी व्याधियाँ उत्पन्न होती देखी गई हैं। कारण स्पष्ट है। आवेशों के कारण जो अन्तर्दाह उत्पन्न होता है उसकी अग्नि से शरीर भीतर ही भीतर जलता रहता है और वह बीमारी तथा अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाता है। मानसिक दृष्टि से भी ऐसे मनुष्य आधे पागल हो जाते हैं। वे आगत कठिनाइयों से छूटने के जो प्रयत्न करते हैं वे बुद्धि हीनता के कारण उलटे पड़ते हैं और उनकी विपत्ति दूनी बढ़ जाती है। स्मरण शक्ति की कमी, सहनशीलता एवं विचार शीलता की कमी हो जाने पर वे एक प्रकार के बौद्धिक शीलता की कमी हो जाने पर वे एक प्रकार के बौद्धिक अपाहिज बन जाते हैं।

गायत्री के ‘भ’ अक्षर का आदेश है कि गायत्री माता पर जो लोग श्रद्धा रखते हैं उन्हें उसका आदेश भी मानना चाहिए और अपने को आवेशों से सदैव बचाये रखना चाहिए। समुद्र तट पर रहने वाले पर्वत से समुद्र की लहरें नित्य टकराती रहती हैं पर वे पर्वत जरा भी परवाह नहीं करते। खिलाड़ी खेलते हैं, कई बार हारते हैं, कई बार जीतते हैं। कई बार हारते-हारते जीत जाते हैं और कई बार जीतते-जीतते हार जाते हैं पर कोई खिलाड़ी उसका आत्मघाती असर मन पर नहीं पड़ने देता। विश्व के रंग मंच पर हम सब खिलाड़ी हैं। प्रारब्धानुसार, विधि के विधानानुसार हममें से हर एक को हार और जीत के, दुख और सुख के, खेल खेलने पड़ते हैं, पार्ट अदा करने पड़ते हैं। इसमें उद्विग्न होने की कोई बात नहीं। हम हँसते हुए जिएँ, जीवन की हर घटना में रस लें और हार जीत की प्रत्येक स्थिति में आनन्द का अनुभव करें।

उद्विग्नता एक मानसिक बीमारी है। उससे शरीर और मन दोनों की शक्तियों का भारी नाश होता है। इसलिए उससे हमें सदैव बचना चाहिए। जीवन को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हमारा मानसिक संतुलन ठीक रहे, हम दिमाग को ठण्डा रखना सीखें, शान्त चित्त से हर बात पर विचार करें और क्षणिक आवेशों से बचते हुए दूरदर्शिता की विवेकपूर्ण नीति को अपनाएँ। गायत्री के नौवें अक्षर ‘भ’ की यही शिक्षा है।


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