पारिवारिक सुख-शान्ति का मार्ग

November 1952

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(श्री राम सिंह जी)

महाराज मनु ने सुखमय दाम्पत्य जीवन के सम्बन्ध में लिखा है— कि जिस परिवार में स्त्री और पुरुष सन्तुष्ट रहते हैं वहाँ नित्य कल्याण होता रहता है। जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है और जहाँ उनका सत्कार नहीं होता वहाँ की प्रत्येक क्रिया निष्फल हो जाती है। जिस कुल में स्त्रियों में शोक होता है अर्थात् जिस कुल में स्त्रियाँ शोकातुर रहती हैं, वह कुल नष्ट हो जाता है और जहाँ स्त्रियाँ प्रसन्न रहती हैं उस कुल की वृद्धि होती है।

सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए पति-पत्नी का प्रसन्न रहना आवश्यक है। जब तक दोनों व्यक्ति सन्तुष्ट नहीं रहेंगे तब तक सुख नहीं प्राप्त हो सकता।

किस प्रकार यह प्रसन्नता प्राप्त हो, यह प्रश्न टेढ़ा है और इसका उत्तर बहुत विशाल है। पति-पत्नी की प्रसन्नता की कोई परिभाषा नहीं बनायी जा सकती। कोई पति किसी बात पर प्रसन्न होता है तो कोई उसी बात पर अप्रसन्न भी हो सकता है। संसार के प्रत्येक प्राणी का स्वभाव भिन्न होता है और रुचि भी भिन्न। ऐसी स्थिति में तर्क सर्वमान्य उत्तर होना चाहिए जो सब पर लागू हो सके। विचार किया जाय तो पारिवारिक प्रसन्नता निम्नलिखित बातों पर अवलम्बित रहती है—

1- स्वास्थ्य और सौंदर्य।

2- शील तथा प्रेम।

3- विद्या और गृह प्रबन्ध की योग्यता।

अधिकतर इन्हीं तीन बातों पर ध्यान देने से दाम्पत्य जीवन सुखमय हो सकता है।

स्वास्थ्य और सौंदर्य :- स्त्री स्वास्थ्य पर विचार करते समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक होगा कि स्त्रियों का आज कल स्वास्थ्य अधिक गिरा हुआ है। जब स्वास्थ्य ही ठीक नहीं रहेगा, तो सौंदर्य नहीं रह सकता। वस्तुतः स्वास्थ्य का नाम ही सौंदर्य है। जो स्त्री हँसमुख होगी, वह सुन्दर लगेगी। सुन्दरी स्त्री पति के हृदय की स्वामिनी होगी और जब स्त्री पति के हृदय को अपने वश में रखेगी तो उसका जीवन सर्वदा सुखी रहेगा। रोगी स्त्री या चिड़चिड़ी स्त्री को पति का प्रेम कभी प्राप्त ही नहीं हो सकता और जब तक स्त्री को पति का प्रेम न प्राप्त हो व सुखी नहीं रह सकती।

कल्पना कीजिए, आप दिन भरके श्रम से थक कर विश्राम के लिए संध्या समय पर घर लौटे। आकर देखा पत्नी खाट पर लेटी है, चूल्हे में आग नहीं जली है। आप सोच रहे हैं घर चल कर आराम करेंगे और यहाँ आकर डॉक्टर के घर जाना पड़ता है। कभी आप स्वयं को कोसते हैं कभी पत्नी को, लेकिन हार मानकर दवा लेने जाना ही पड़ता है। कभी सुख सन्तोष नहीं। दिन भर ऑफिस के काम से थके माँदे घर आये पर यहाँ भी शान्ति नहीं मिली। आप इस पर खीज तो उठते हैं लेकिन कभी आपने सोचा ऐसा हुआ क्यों? आइए, हम आप विचार करें कि पत्नी के बीमार होने का क्या कारण है।

खान पान में असावधानी, बेकारी, चिन्ता अथवा भोगविलास की अधिकता से तो वह अस्वस्थ नहीं हो गयी। अवश्य! तो इन्हीं कारणों में से कोई कारण होगा, या तो पत्नी की गलती होगी या फिर आपकी।

खान-पान में असावधानी :- स्त्रियाँ प्रायः भोजन में बड़ी असावधानी करती हैं। जो मिला खा लिया, पेट भरने से काम रहता है। आपको यह देखना है कि क्या खाती हैं और कब खाती हैं। यह नहीं कि रूखा सूखा जो मिल गया खा लिया। जब मन में आ गया, खा लिया। दोपहर का खाना तीन बजे और शाम का भोजन रात के 10 बजे! यह सब असावधानी है। भोजन नित्य नियत समय पर करना चाहिए।

अनेक स्त्रियाँ बासी खाने की शौकीन होती हैं। ऐसा भोजन बहुत हानिकारक होता है। कुछ लालची होकर भी बासी खाती हैं। रात का भोजन बच गया, घर में और कोई नहीं खा सकता, पति और बच्चों को ताजा खिला कर स्वयं बासी खाकर रह जाना अच्छा नहीं होता। चाहिये तो यह कि भोजन इस परिणाम से बनाया जाय कि बासी बचे ही नहीं।

बहुतेरी स्त्रियाँ खटाई, मिर्च और अचार बहुत खाती हैं। इससे स्वास्थ्य की हानि होती हैं, पेट खराब हो जाता है, आँख की रोशनी धूमिल हो जाती है। मासिक धर्म सम्बन्धी अनेक शिकायतें उपस्थित हो जाती हैं। स्वाद के लिए जो भोजन किया जाता है वह पहले तो अच्छा लगता है, पर बराबर मसालेदार और चटपटा भोजन करने से पाचन-शक्ति खराब हो जाती है। भोजन सादा होना चाहिये और पौष्टिक।

भोजन का समय नियत रखना चाहिये। प्रातः काल का भोजन 10-11 बजे तक शाम का 7-8 बजे तक कर लेना चाहिए। भोजन करने के 2-3 घण्टे बाद सोना चाहिये। नियत समय पर भोजन न करने से जठराग्नि मन्द पड़ जाती है।

बेकारी :- इन्हीं सब बातों पर ध्यान न देने से स्त्रियाँ रोगी बनी रहती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बेकार रहने से भी स्त्रियाँ रोगी हो जाती हैं। आलस्य में पड़े रहने से भी शरीर रोगी हो जाता है। व्यायाम करते रहने से शरीर के प्रत्येक अंक गठित रहते हैं शरीर में फुर्ती रहती है।

स्त्रियों का सबसे अच्छा व्यायाम चक्की चलाना है, लेकिन आजकल इसका रिवाज केवल देहातों तक ही सीमित है, आज कल तो देहातों में भी आटा चक्की मिल खुल गयी हैं। मिल का चावल और मशीन का आटा खाते-खाते हम निर्बल होते जा रहे हैं।

आजकल की स्त्रियाँ चक्की चलाना, बर्तन मलना, झाडू देना आदि बुरा समझती हैं। इन कामों को नौकरों का काम समझती हैं। पहले स्त्रियाँ अँधेरे उठ कर झाडू हाथ में लेतीं और सारा घर झाड़-पोंछ कर, दो-तीन सेर गेहूँ पीसती थी। बर्तन वगैरह मल कर भोजन की व्यवस्था करती थी। लेकिन आज की कुमारियाँ बिस्तर पर पड़े-पड़े अजीर्ण तथा मासिक धर्म सम्बन्धी शिकायत से परेशान रहती हैं।

कुछ स्त्रियाँ, जो अकेले पति के साथ ही रहती हैं, बेकार रहती हैं। उन्हें चाहिये कि कोई गृह-उद्योग सीखें जिसमें उनका मन लगा रहे। शिल्प विद्या सीखना, बेल-बूटा काढ़ना, पीसना तथा सिलाई कटाई का काम स्त्रियाँ बेकारी में कर सकती हैं। बेकार कभी नहीं बैठना चाहिये। प्रत्येक को कुछ न कुछ करते रहना चाहिये।

चिंता :- घर में कई प्रकार की चिन्ताएँ लगी रहती हैं। रुपये पैसों की चिन्ता, बच्चों की या घर के किसी और प्राणी की बीमारी की चिन्ता तथा पति के दुर्व्यसनी होने की चिन्ता।

चिन्ता को चिता के समान कहा गया है। चिन्ता से बढ़कर स्वास्थ्य का नाश करने वाली कोई अन्य बात नहीं है। इसलिए चिन्ता से बचना चाहिये! चिन्ता शरीर में घुन की तरह है जिससे शरीर की कान्ति नष्ट हो जाती है और मनुष्य दुबला- पतला हो जाता है। अन्त में चिता पर ही उसे शान्ति मिलती है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि चिन्ता बरबस गले लग जाती है। संसार में धन ही सब कुछ है इसलिए धन की रक्षा करनी चाहिए। कहा भी है- “सर्वे गुणाः काँचन माश्रयन्ति।” सब कुछ कंचन में ही है। पैसा न हो तो कोई किसी से बात ने करे। पैसे बिना मन में शान्ति नहीं रहती है, सगे सम्बन्धी सभी आदर करते हैं। नीतिशास्त्र में कहा गया है

कि सम्बन्धियों के बीच निर्धन होकर रहने से मृत्यु श्रेष्ठ है। यदि सिर पर ऋण हो गया हो तो घबराना उचित नहीं है परमात्मा पर भरोसा कर उद्योग करना चाहिए। चिन्ता या शोक करने से तो ऋण दिया नहीं जा सकता। ऐसी हालत में पत्नी को लज्जा त्याग कर पति के कष्टों में सहायता पहुँचाना चाहिए। उसे सान्त्वना देनी चाहिए और स्वयं भी कोई काम करना चाहिए जिससे चार पैसे मिलें। विलायत और अन्य देशों जैसे चीन, जापान आदि में स्त्रियाँ कुछ न कुछ उद्यम करती ही रहती हैं। इस प्रकार वे पति पर भार न बन कर स्वयं कुछ उपार्जन कर लेने में अपनी बड़ाई और सम्मान समझती हैं।

द्वन्द्वः-बच्चों की चिन्ता स्त्री को बहुत रहती है। किसी के बच्चे होते ही नहीं। किसी के मर ही जाते हैं या किसी को लड़कियाँ ही पैदा होती हैं। विवाहित लड़कियों की चिन्ता भी माता को अधिक रहती है। ससुराल में उस पर क्या बीत रही होगी, कैसे वह सबको प्रसन्न रखती होगी, आदि चिन्ताएँ माता को लगी रहती हैं। कभी-कभी अपनी बहू की भी चिन्ता रहती है। यदि बहू से सास-ससुर को सुख प्राप्त न हो सका, तो यह बड़े दुःख की बात है।

बहू समझती है कि पति हमारा है अतः हमारी बात प्रधान होनी चाहिए। सास समझती है पुत्र हमारा है, इससे हमारी बात प्रधान माननी चाहिये, हमारा इस पर अधिकार है। मरण बेचारे लड़के का होता है, किसे क्या कहे। नासमझ युवक कभी माँ के कारण बहू की ओर, कभी बहू के कारण माँ की दुर्दशा करते हैं। इसलिए माता को बड़ी समझदारी से काम लेना चाहिए। सास को सोचना चाहिए कि उसकी बहू किसी की लड़की है अतः अपनी ही लड़की के समान है। उसकी भूलों को प्रेम से क्षमा कर देना चाहिये और उचित मार्ग बतला देना चाहिए। यदि सास उसकी माता बन कर रह सकेगी तो वह भी पुत्री बन कर रहेगी ही।

घर में जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ जाता है तो उसकी देख-भाल करने वाला भी एक प्रकार से बीमार हो जाता है। स्त्री को चाहिए कि वह पूरे मनोयोग से रोगी की सेवा करे। रोगी अक्सर चिड़चिड़े स्वभाव के हो जाते हैं। उसी समय सम्हलना चाहिए, घबराने से काम नहीं चलता।

पति का दुर्व्यसनी होना भी स्त्री के लिए चिंता का कारण होता है। विशेषकर जब पति जुआरी, शराबी अथवा वेश्यागामी हो जाता है तो पत्नी बहुत चिन्तित हो जाती है। सचमुच वह चिन्ता का विषय है। कितने परिवारों का नाश इन्हीं दुर्व्यसनों के कारण हो गया, कितनी स्त्रियों न आत्महत्या कर ली, कितनी स्त्रियाँ खुलेआम वेश्या हो गयीं। यह सामाजिक दुराचार तत्काल बन्द होना चाहिए। सरकार को चाहिए कि इस दुराचार को रोकने में कड़ाई से काम ले। स्त्री को चाहिये कि धैर्य से काम ले और विनय और प्रेम से पति का दुर्व्यवहार छुड़ाए। यद्यपि यह अत्यन्त कष्ट साध्य है परन्तु सिवा इसके और मार्ग भी नहीं है।

भोग- विलास की अधिकता भी स्वास्थ्य नाश का जबरदस्त कारण है। विवाह के प्रारम्भिक दिनों में प्रायः पति-पत्नी भोग-विलास की अधिकता के शिकार हो जाते हैं। किसी भी चीज की अति बुरी भयावह होती है, यौवन एक बरसाती नदी है, इसको मार्ग की कठिनाई का अनुभव नहीं होता। लेकिन यौवन की तरंग में बह कर अपना जीवन नष्ट कर लेना बुद्धिमानी नहीं है। तरंगों पर नियन्त्रण रखना चाहिये। स्त्री पुरुषों को संयम से रहना चाहिए।

इस प्रकार हमने देखा, स्त्री का स्वास्थ्य और सौंदर्य प्रधान कारण है जिससे वह पति की प्यारी बन सकती है। सौंदर्य लिपिस्टिक और पाउडर लगाने से नहीं बढ़ता। सुन्दरी स्त्री की शोभा वस्त्राभूषणों से नहीं, बल्कि उसके स्वास्थ्य से होती है। जो स्त्री स्वस्थ है और सुन्दर है वह पति का हृदय जीत सकती है, और उसका जीवन सुखमय हो सकता है।

शील और प्रेम :- दाम्पत्य-जीवन में जिस प्रकार स्वास्थ्य और सौंदर्य का प्रथम स्थान है उसी प्रकार शील और प्रेम का भी द्वितीय स्थान है, सच तो यह है कि यदि स्त्री में शील और प्रेम नहीं तो वह लाख सुन्दरी रह कर भी गृहस्थ जीवन के अनुकूल नहीं रह सकती। चाहे पति उसके रूप माधुरी पर लट्टू रहे पर वह घर की और पड़ोस की दृष्टि में प्यारी नहीं बन सकती। पति भी चार दिन की चाँदनी की भाँति उसका मुँह जोहता रहेगा लेकिन फिर वह भी ऊब जायेगा। जिस स्त्री में शील है, पति के प्रति सच्चा प्रेम है उसी को सच्ची सुन्दरी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ समझना चाहिए, क्योंकि वह बीमारी, कुरूपता और वृद्धावस्था में भी अपने आन्तरिक सौंदर्य के कारण सुन्दरी ही बनी रहेगी।

उपरोक्त बातें साधारण दिखाई पड़ती हैं पर वस्तुतः ये इतनी महत्वपूर्ण हैं कि इन पर समुचित ध्यान देने से हमारा पारिवारिक जीवन सुख शान्तिमय बन सकता है।


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