क्रोध से कैसे छूटें?

November 1952

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री दौलत राम कटहरा बी.ए. दमोह)

सिद्धान्ततः क्रोध को सभी त्याज्य मानते हैं पर व्यवहार बुद्धि रखने वाले लोग कहते हैं कि-”लोक व्यवहार में यह आवश्यक है। अन्याय का प्रतीकार बिना क्रोध के नहीं हो सकता। जिन्होंने अकेले ही रहने का निश्चय किया है, और जिनके ऊपर दूसरों का उत्तर दायित्व नहीं है, वे क्रोध को अवश्य छोड़ कर अपना काम चला सकते हैं। परन्तु जिन्होंने लोक-सेवा का व्रत लिया है, उन्हें अपनी रक्षा के लिए न सही, पर कम से कम अन्याय से दूसरों की रक्षा के लिए तो दुष्टों और अन्यायियों पर क्रोध करना ही पड़ेगा।” अतः प्रायः लोग यही मानते हैं कि क्रोध का त्याग व्यवहार्य नहीं है।

मेरी समझ में जो लोग क्रोध को व्यवहार्य नहीं मानते हैं वे मानो कहते हैं कि यदि क्रोध छोड़ेंगे तो अन्याय का प्रतिकार भी छोड़ देंगे। अन्याय और बुराई का विरोध करेंगे तो एक शर्त के साथ। क्रोध करने दोगे तो बुराई का विरोध करेंगे अन्यथा नहीं। महाभारत लिखने में गणेश जी ने व्यास जी से शर्त कर ली थी कि यदि आप बोलते बोलते रुक जावेंगे तो हम लिखना छोड़ देंगे। ठीक ऐसी ही इनकी भी शर्त है। हमसे क्रोध रोकने को कहोगे तो हम अन्याय व बुराई का विरोध करना भी छोड़ देंगे। मतलब यह कि बिना क्रोध की प्रेरणा के हम अन्याय के विरोध में प्रवृत्त नहीं हो सकते।

मैं मानता हूँ कि क्रोध को जीतना बहुत कठिन है परन्तु मेरे सामने कुछ उदाहरण हैं जिनके बल पर मैं कह सकता हूँ कि बिना क्रोध किये भी बुराई का विरोध किया जाना सम्भव है। पहला उदाहरण गाँधी जी का है। उनका सारा जीवन अन्याय का विरोध करने में बीता, परन्तु उन्होंने ऐसा करने के लिए क्रोध करना आवश्यक नहीं बताया। दक्षिण अफ्रीका में कई बार उन्हें मारा-पीटा गया किन्तु उन्होंने उसका बदला नहीं लिया। विरोधियों को सहृदयता-पूर्वक क्षमा कर दिया। गाँधी जी ने बताया है कि अन्याय का विरोध न करना कायरता है, बुज़दिली है। और उन्होंने बार बार कहा है कि बुज़दिली से तो हिंसा अच्छी है। कहने का अर्थ यह है कि अन्याय का विरोध तो हर हालत में करना चाहिए। डरना तो किसी हालत में अच्छा नहीं है। यदि अन्याय का विरोध शान्त चित्त होकर नहीं कर सकते तो क्रोध का आश्रय लेकर ही करो, पर करो जरूर। हाँ, यह बात अवश्य है कि शान्त-चित होकर विरोध करना, क्रुद्ध होकर विरोध करने से कई गुना अच्छा है। अक्रोध और अहिंसा ही प्रशस्त धर्म है।

दूसरा उदाहरण गीता का है। गीता का उपदेश है [अध्याय 3, श्लोक 25] कि कर्म में आसक्त हुए अज्ञानी जन जैसे कर्म करते हैं वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान भी लोक शिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे।’ यह उपदेश गाँधी जी के विचार की पूर्णतया पुष्टि करता है। कर्म में आसक्त अज्ञानी जन क्रोध का आश्रय लेकर अन्याय का विरोध करते हैं परन्तु अनासक्त हुआ विद्वान पुरुष शान्त भाव से उसका विरोध करेगा और लोगों को अन्याय का प्रतिकार करने की तथा प्रतिकार करते हुए चित्त को स्थिर रखने की शिक्षा देगा।

अभी तक बहुधा लोग ही समझते थे कि क्रोध आदि को छोड़ने का अर्थ है, अन्याय और बुराई के विरोध को भी छोड़ देना। दोनों प्रायः पर्यायवाची ही समझे जाते थे, किन्तु गाँधी जी ने अपने जीवन में एक नया प्रयोग किया और अपने उदाहरण द्वारा यह सिद्धान्त हमारे सामने उपस्थिति किया कि यद्यपि साधारण तथा क्रोध जैसे मनोविकारों की प्रेरणा की आवश्यकता प्रतीत होती है तथापि वे अनिवार्य नहीं हैं। साधारण व्यक्ति मनोविकारों की प्रेरणा से ही कार्य करता है। क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष आदि उसे कार्य में प्रवृत्त करने के लिए आवश्यक हैं परन्तु श्रेष्ठ व्यक्ति इनके बिना भी नियत कर्म करता रहता है। बिना मनोविकारों की प्रेरणा प्राप्त किये शास्त्र द्वारा नियत उत्तम कर्मों में पूर्ण मनोयोग और उत्साहपूर्वक निरत रहना कठिन आवश्यक है किन्तु साध्य है। बहुत कम लोगों ने इस दिशा में प्रयत्न किया है। जीवन में इस सिद्धान्त के व्यापक प्रयोग की आवश्यकता है और तब अनेक व्यक्तियों के उदाहरण सम्मुख उपस्थित होने से वह बात साधारण सी हो जायगी और तब कोई यह सन्देह न करेगा कि मनोविकारों को छोड़ कर भी गृहस्थ-धर्म निबाहना सम्भव है। काम भी मनोविकारों के ही अंतर्गत आता है और मैं अपने विश्वास के लिए इसे अपवाद रूप नहीं मानता।

मुझे आश्चर्य होता है कि लोग बिना ईर्ष्या आदि किये आगे बढ़ने का प्रयत्न संभव मानते हैं किन्तु उसी तरह क्रोध आदि किये बिना अन्याय का प्रतिकार करना संभव नहीं मानते?

इस प्रश्न पर एक दूसरे दृष्टिकोण से भी विचार करें। जब कोई हम पर अन्याय करता है, तो उससे हमारी किसी वस्तु पर गहरा आघात लगता है। धन-दौलत पर चोट लगती है या मान-सम्मान को धक्का लगता है या किसी सिद्धान्त को ठेस लगती है। किसी प्रिय वस्तु का विनाश हमें सहना पड़ता है और प्रिय वस्तु का विनाश अपनी आँखों के सामने होता हुआ देखकर हम विक्षुब्ध हो उठते हैं और तिलमिला जाते हैं। फिर हानि पहुँचाने वाले को पहिचान लेने पर यही क्षोभ, क्रोध का रूप धारण कर लेता है। अतएव मैं समझता हूँ कि प्रिय का विनाश होता हुआ देखकर जिसे क्षोभ होवेगा वह अपने क्रोध को न रोक सकेगा। इसलिए जब तक प्रिय से प्रिय वस्तु के विनाश को सहन करने की हममें शक्ति न होगी तब तक हम अपने क्रोध को न रोक सकेंगे। प्रिय वस्तु के विनाश को सहन करने का मेरा यह मतलब कदापि नहीं है कि हम जानबूझ कर उसका विनाश हो जाने दें। हमें तो प्रिय वस्तु की रक्षा करने का भरसक प्रयत्न उत्साहपूर्वक करना चाहिए पर साथ-साथ वैसा प्रयत्न करते हुए यह सम्बोधन भी हृदय को देते जाना चाहिये कि यदि प्रिय वस्तु का विनाश हो ही गया तो भी मैं उसे अविचलित भाव से सहन करूंगा। मैं समझता हूँ कि गाँधी जी इस सम्बन्ध में भी हमारे मार्ग दर्शन रहे हैं। विचारों में प्रिय वस्तु के साथ संसर्ग छोड़ दें, विचार में प्रिय का विनाश देखने के लिए तत्पर रहें तो, प्रिय का विनाश होने पर हमें अपनी इस तत्परता के कारण चित्त को अविचल बनाए रखने में बड़ा बल मिलेगा। कोई उसका विनाश कर देगा अथवा विरोध करेगा तो हमें वैसा उद्वेग, दुःख अथवा क्रोध न होगा। इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना याद आ जाती है। मेरा नन्हा सा बच्चा बीमार था। मैं उसकी दवा करता जाता था पर ख्याल करता था कि कहीं इसकी मृत्यु हो गई तो उसे भी सहन करूंगा। अन्ततोगत्वा बच्चे की मृत्यु हो गई और मुझे उसकी मृत्यु पर कुछ अफसोस हुआ अवश्य, परन्तु वह इतना कम था कि उसकी तुलना में विचारों में उसका संग पहले से ही न छोड़ने पर होने वाला दुख कई गुना होता। मुझे इस सम्बन्ध में अपने एक मित्र का एक सिद्धान्त याद आता है। वे कहा करते थे “सर्वश्रेष्ठ के लिए प्रयत्न करो। पर घोर अनिष्ट के लिए भी तैयार रहो।” यही सिद्धान्त अनेक अवसरों पर चित्त को शान्त बनाए रखने में मुझे सहायता देता रहा है और मेरा विश्वास है अन्य लोगों को भी यह सिद्धान्त लाभदायक सिद्ध होगा।

यदि हम अपनी प्रिय वस्तुओं व सिद्धान्तों का विरोध व विनाश अविचलित चित्त से देखने का निश्चय कर लें तो हमारा यह निश्चय अवश्य ही चित्त को शान्त बनाए रखने में सहायक होगा। किन्तु जो व्यक्ति क्रोध की आवश्यकता में विश्वास रखेगा वह क्रोध को हरगिज न रोक सकेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118