प्रतिकूलता से मत डरिए।

November 1952

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(श्री ज्वाला प्रसाद गुप्त, एम.ए.एल.टी.)

संसार में जो कुछ है सो सब मनुष्य जीवन के लिए है, तुम्हारे लिए है। चाहे वह आनन्द हो या क्लेश, भय हो या निर्भयता, जन्म हो या मृत्यु, विपत्ति हो या सम्पत्ति, रोग हो या आरोग्य, ज्ञान हो या अज्ञान, प्रेम हो या द्वेष, जड़ता हो अथवा चैतन्यता। चाहे जो हो, सब तुम्हारे लिए है।

यदि ऐसा है तो क्या तुम्हें दुखी ही होना चाहिए? बिलकुल नहीं। फिर भी मैं तुम्हें जहाँ तहाँ दुःख की एवं सब प्रकार से प्रतिकूलता की पुकार करते हुए सुनता हूँ, इसका क्या कारण है?

जगत की सत्ता मात्र तुम्हारे लिये है, और उस सत्ता द्वारा तुम जो कुछ करना चाहो सो कर सकते हो फिर भी तुम में इतनी अधिक दुर्बलता बनी है, इसका क्या कारण ?

जगत में जो कुछ उत्तम है सो तुम्हारा ही है, तो फिर तुम्हें उत्तम क्यों नहीं मिलता और अधर्म ही मिलता है, इसका क्या कारण?

संसार का सब कुछ तुम्हारे आधीन है। उसमें तुम जो कुछ परिवर्तन करना चाहो सो कर सकते हो, तो फिर तुम्हें भी कुछ मिलता है, उसे छोड़कर दूसरा क्यों नहीं कर सकते, अथवा उसमें अपनी इच्छानुकूल परिवर्तन क्यों नहीं कर सकते, इसका क्या कारण?

तुम्हारे पास सुख और दुख दोनों हैं, उसमें से तुम दुःख को छोड़कर सुख को ही क्यों नहीं लेते, इसका क्या कारण?

बस सबका कारण एक ही है, वह यह कि सब तुम्हारे लिये है, सब तुम्हारे आधीन है, किन्तु स्वयं तुम तुम्हारे (अपने)लिए नहीं- तुम स्वयं (अपने) तुम्हारे अधीन नहीं हो।

तुम जानते हो कि मैं दुःख के अधीन हूँ, रोग के वश में हूँ, मृत्यु के अधीन हूँ, विपत्ति के पंजे में हूँ, काम के अधीन हूँ, प्रारब्ध के अधीन हूँ, ग्रहों के वश में हूँ, इस प्रकार हर एक के अधीन अपने को मानते हो, और यह आज से ही नहीं, किन्तु बहुत काल से अर्थात् परम्परा से मानते चले आये हो!

इस प्रकार दृढ़ता पूर्वक मान लेने से वही तुम्हें मिलता है और जो कुछ तुम्हें चाहिये सो नहीं मिलता।

तुम समझते हो कि यदि सुख सम्पत्ति आदि केवल अनुकूल वस्तुएँ ही तुम्हें मिली होती तो तुम अधिक सुखी, विशेष आनन्दमय और बहुत प्रसन्न होते, परन्तु यह तुम्हारी भूल है। परमात्मा ने दोनों तुम्हें दिये हैं दोनों प्रकार की सामर्थ्य तुम्हें ग्राह्य हैं और यही एक तुम्हारी उन्नति का साधन है।

तुम यह न समझो कि सुख तुम्हारा हित करने वाला है और दुःख हितकारी नहीं, बल्कि दोनों तुम्हारे हितकारक ही हैं। इसीलिए दोनों वस्तुएँ तुम्हें प्राप्त हुई हैं, किन्तु अपने को एक ही वस्तु के आधीन समझ लिया है, यह तुम्हारी बड़ी भूल है।

सच पूछो तो दोनों पर ही तुम्हारी सत्ता है। सत्ता द्वारा ही तुम उनमें से जो चाहो सो ग्रहण कर सकते हो। यह इच्छा योग्य नहीं कि हमें कभी दुःख मिले ही नहीं, किन्तु दुःख से सुख किस प्रकार उत्पन्न करना होता है इस कला की सामर्थ्य प्राप्त करना तुम्हारे लिये योग्य है। क्या तुम समझते हो कि जिसे तुम इस समय प्रतिकूल कहते हो, उसमें से क्या तुम्हारे लायक कुछ भी लाभदायक नहीं मिल सकता? परन्तु ऐसा समझने का कुछ भी कारण नहीं! वास्तव में जब तक सुख की एकरसता को वेदना की विषमता का गहरा आघात नहीं लगता तब तक जीवन के यथार्थ सत्य का परिणाम नहीं मिल सकता।” याद रहे कि “काले बादलों के अँधेरे में ही बिजली की चमक छिपी होती है, दुःख के बाद सुख- निराशा के बाद आशा- पतझड़ के बाद बसन्त ही सृष्टि का नियम है।”

सच तो यह है कि दुःखादि के आधीन होकर जो मनुष्य उसे सहन करते हैं, वे दुःख से कुछ भी लाभ नहीं प्राप्त कर सकते। परन्तु जो दुखादि को अपने आधीन जानकर उनको भोगते हैं वे ही उनमें से वास्तविक सुख तथा हित प्राप्त करते हैं। दुःख के आधीन तुम नहीं वरन् तुम्हारे आधीन दुःख है, यह जानकर, जिस समय दुःख प्राप्त हो उस समय उसमें लाभ संशोधन के लिए तैयार हो जाना चाहिये।

पूर्व कालीन दृष्टान्तों पर विचार करो— अपने शरीर की हड्डियाँ वज्र बनाने के लिये दधिचि ऋषि ने जब स्वयं अपने को प्रसन्नता पूर्वक इन्द्र को समर्पण कर दिया था, तब क्या उन्हें कष्ट हुआ था? नहीं। कारण उन्होंने उस दुख को अपने आधीन मानकर ही उसे स्वीकार किया था। भीष्म पितामह, ध्रुव पार्वती आदि स्त्री-पुरुष तथा बालक जाति ने विविध प्रकार के दुःख स्वीकार किये थे। परन्तु दुःखों के ऊपर अपना सामर्थ्य जानकर ही उन्हें ग्रहण किया था। अन्त में उन्होंने उस में अपना इस प्रकार हित साधन किया जो उन्हें अन्य किसी प्रकार से भी मिलना सम्भव न था। इसी कारण आज वह मर कर भी अमर है और सदैव अमर रहेंगे।

साराँश यह है कि हमें दुःखों से न डरना चाहिए और न उनके आधीन होना चाहिए। वरन् उन्हें आया हुआ देख, उनमें हितकर क्या है, यह जानने का प्रयत्न करना चाहिए। कई सद्गुण ऐसे भी हैं जो दुःखों के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। ऐसे बलवान सद्गुण सिद्ध करने के लिए अनेक जन ऐसे दुःख अथवा कष्टों को स्वयं ही स्वीकार करते हैं। अब भी अनेक मनुष्य उपवासादि के कष्ट स्वयं स्वीकार करते हैं जिनका हेतु सुख अथवा कुछ अधिक लाभ प्राप्त करना ही है।

इस प्रकार सुख, दुख दोनों तुम्हारे आधीन हैं। तुम स्वतन्त्र हो, परतन्त्र नहीं। जो कुछ प्राप्त करने के लिए तुम्हें जैसा प्रयत्न करना हो करो और उसमें जिन साधनों का उपयोग करना पड़े निःसंकोच भाव से करो।

तुम सुख-दुख की अधीनता छोड़ उनके ऊपर अपना स्वामित्व स्थापन करो और उसमें जो कुछ उत्तम मिले उसे लेकर अपने जीवन को नित्य नया रस-युक्त बनाओ। जीवन को उन्नत करना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है। इसलिये तुम भी उचित समझो सो मार्ग ग्रहण कर इस कर्त्तव्य को सिद्ध करो। प्रतिकूलता से डरोगे नहीं और अनुकूलता ही को सर्वस्व मानकर न बैठे रहोगे तो सब कुछ कर सकोगे, जो मिले उसी से शिक्षा ग्रहण कर जीवन को उच्च बनाओ। यह जीवन ज्यों-ज्यों उच्च बनेगा त्यों-त्यों आज जो तुम्हें प्रतिकूल प्रतीत होता है, वह सब अनुकूल दीखने लगेगा और अनुकूलता आ जाने पर, दुःख मात्र की निवृत्ति हो जावेगी।


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