गृहस्थाश्रम भी एक योग साधना है।

November 1952

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(श्री स्वामी शुकदेवानन्द जी)

हमारा प्राचीन उज्ज्वल इतिहास इस बात का साक्षी है कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी बहुत से पुरुषों ने अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति कर ली। महाराज जनक, धर्मराज युधिष्ठिर आदि अनेक ऐसे उदाहरण हैं। गृहस्थाश्रम तो ऐसा आश्रम है जिसकी सहायता से तीनों आश्रमों की व्यवस्था सुचारु रूप से होती थी। तब में और अब में आकाश-पाताल का अन्तर है। उस समय के गृहस्थ अपने लक्ष परमार्थ की ओर ध्यान रखकर ही जीवन के समस्त व्यवहारों को करते थे अतएव उनका तन, मन, धन सर्वस्व परोपकारमय बन जाता था, यही कारण था कि वे सब प्रकार से इस संसार में सुखी रहकर अन्त में परम पद के अधिकारी बन जाते थे। उनकी पुनीत जीवन गाथा को पढ़कर आज भी हम आनन्द का अनुभव करते हैं।

यदि मनुष्य अपने लक्ष परमार्थ की ओर दृष्टि रखने का दृढ़ निश्चय करके जीवन की अन्तिम श्वाँस तक कृत संकल्प रहे तो वह अपनी गृहस्थी में बना रहकर अपने लक्ष की प्राप्ति कर सकता है तथा अपने कल्याण के साथ ही अनेक व्यक्तियों के कल्याण में सहायक बन सकता है। परमार्थ पर लक्ष्य रखने से समस्त व्यवहार ही परमार्थ बन जाते हैं जैसे चमेली और बेला के फूलों में बसाई हुई तिली का तेल जब निकाला जाता है तो उसकी संज्ञा तिली का तेल नहीं वरन् चमेली अथवा बेला का तेल हो जाता है। गंदा नाला जब गंगा जी से मिलने की कामना लेकर चलता है तो वह गंगा जी में मिलकर स्वयं भी गंगा जी बन जाता है।

मानव योनि के चरम लक्ष्य परमार्थ की ओर अपना ध्यान रखने के कारण ही शास्त्रों में “गृहस्थाश्रम” की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। आज भी मनुष्य यदि इस मूलमंत्र पर ध्यान रखे कि हमारा लक्ष्य भोग नहीं वरन् भगवान् हैं तो यही बना हुआ गृहस्थ-जीवन नन्दन कानन जैसा सुखदाई बन सकता है और वस्तुतः परमार्थ को लक्ष्य बनाने वाले ही गृहस्थी में रहकर भजन कर सकते हैं। यदि लक्ष्य परमार्थ न होकर भोग हैं तो उनका भजन असली नहीं नकली है, जैसे स्वर्ण और मुलम्मा।

लक्ष्य परमार्थ रहने पर दुकानदारी, नौकरी आदि प्रत्येक कार्य में परोपकार की भावना होने से समस्त व्यवहार परोपकारमय बन जायेंगे। सच्चे परोपकारी व्यक्ति बदले की भावना से परोपकार नहीं करते। दम्भ कपट और पाखण्ड का लेश उनके अन्तःकरण में नहीं होता। दुकानदार को चाहिए कि अपनी दुकान में शुद्ध वस्तुयें ही विक्रयार्थ रक्खे जितने पैसे ले ग्राहक को उतनी ही वस्तु दे। अनुचित लाभ की भावना का सर्वथा परित्याग करे। ग्राहक को शुद्ध वस्तु देकर उचित लाभ ले लेना भी परोपकार ही है। कोई दुकानदार यदि भजन-पूजन तो खूब करता है किन्तु दुकान में बैठकर ऐसी भावना करता है कि कोई आँख का अन्धा और गाँठ का पूरा आ जाय। समय मिलने पर ग्राहक को भली प्रकार मूँड़ लेने के अवसर पर सावधानी से जो व्यक्ति दृष्टि रखता है, उसका यह भजन और पूजन निरा दम्भ है, पाखंड है, उसका लक्ष्य परमार्थ न होकर भोग ही है। सर्वत्र ऐसी भावना हो जाने के कारण आज का वातावरण बहुत दूषित हो गया है।

दुकान पर बैठकर दुकानदार यह भूल जाता है किसी समय मुझे भी ग्राहक बन कर बाजार से सौदा लाना होगा। अपने शरीर, स्त्री और बाल बच्चों के उदर पूर्ति के लिए यदि हम सैकड़ों व्यक्तियों का हलाल करते हैं तो क्या यह पाप नहीं है? उदाहरणार्थ—एक व्यक्ति दूध का व्यापार करता है, उसकी दुकान पर कोई व्यक्ति दूध लेने आया और बोला भाई रोगी बालक के लिए शुद्ध दूध की आवश्यकता है कृपा करके शुद्ध दूध ही देना। दुकानदार की आंखों में तो स्वार्थ की पट्टी बंधी हुई है उसे तो अपने मुनाफे के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता, उसकी तो भावना है कि अगर मैं सत्य व्यवहार करूंगा तो मेरी और मेरे बाल बच्चों की गुजर कैसे होगी? अस्तु वह ग्राहक से कहता है कि दूध बहुत बढ़िया है और किसी दुकान पर इतना अच्छा दूध आपको मिल नहीं सकता। अधिक लाभ के लोभ से उस दूध में पानी और अरारोट आदि पदार्थ मिला रहता है। जब वह दूध रोगी बालक को दिया जाता है तो उसके प्रयोग से वह रोगी शिशु अधिक रोगी होकर अकाल में काल कवलित हो जाता है। कली खिलने के पहले मुरझा जाती है। आप विचार करें इस हत्या का अपराधी कौन हुआ? इस प्रकार अनेकों का कत्ल करके यदि हम अपने बाल बच्चों का भरण-पोषण कर रहे हैं और संसार को धोखे में डालने के लिए नित्य भजन, पूजन और सत्संग भी कर रहे हैं तो क्या भगवान प्रसन्न हो जायेंगे? भगवान ऊपरी आडम्बर और पाखण्ड में फँसने वाले नहीं हैं। उनका नाम तो अन्तर्यामी है वे तो अन्तर की भावना ही देखते हैं। अपने वर्णाश्रम धर्मानुसार आचरण के साथ-साथ भजन करते हुए जीवन यापन से मुक्ति हो सकती है।

अपने लक्ष की ओर से सचेत रहने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे माया के लिए सीमित पुरुषार्थ करें। अपनी दिनचर्या का एक निश्चित कार्यक्रम अपने पथ-प्रदर्शन को आज्ञानुसार बना लें। नियम के साँचे में अपने जीवन को यदि ढाल दिया जाय तो जीवन सुन्दर और सुखमय बन जाता है तथा भगवान के मंगलमय चरणों में प्रेम निरन्तर बढ़ता रहता है। इसके विपरीत यदि दिनचर्या का क्रम अस्त−व्यस्त रहेगा तो भजन नहीं बन सकता, भजन ही क्या साँसारिक कार्य भी सुचारु रूप से नहीं हो पावेंगे और मस्तिष्क सदा एक उलझन में फँसा हुआ—सा प्रतीत होगा।

जहाँ नेम तहँ प्रेम है, जहाँ प्रेम तहँ नेम।

जा घर नेम न प्रेम है, तो घर कुशल न क्षेम॥

अपने परिवार के समस्त सदस्यों का एक निश्चय कार्यक्रम बना देने से सब तुम्हारे भजन में सहायक बन जायेंगे। सूर्योदय से डेढ़ घण्टा पहले सब को उठ जाना चाहिए, बालकों को जागने की आवश्यकता ही न पड़ेगी वे तो स्वभाविक ही तुम्हारा अनुकरण करेंगे। माया का कार्य अधिक से अधिक बारह घण्टे होना चाहिए, इससे अधिक माया की गुलामी मत करो। छः घंटे की निद्रा स्वस्थ पुरुषों के लिए पर्याप्त है, अधिक अथवा आलस्य के वश में होना ठीक नहीं है। भोजन भी सदा सतोगुणी और निश्चित समय पर होना चाहिए। जिह्वा के स्वाद में अधिक ठूँस-ठूँस कर खाने वाले का भजन में मन नहीं लग सकता। भगवान श्रीकृष्ण ने इस सम्बन्ध में अपने सखा अर्जुन से कहा—

युक्त हार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु।

युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥

गीता 6।17

अर्थात्—यह दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करने वाले का तथा कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथा-योग्य शयन करने वाले तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

शयन का परित्याग करने के पश्चात् शौच स्नानादि से निवृत्त होकर घर के सब व्यक्ति मिलकर सम्मिलित प्रार्थना करो। प्रार्थना के पश्चात् यदि संभव हो तो घर से दूर किसी जलाशय अथवा नदी तट पर सुरम्य और मनोहर स्थान पर आसन बिछाकर नियम पूर्वक अपने इष्ट मन्त्र का जप और ध्यान करो। यदि ऐसी सुविधा न हो तो अपने घर में ही एक ऐसा स्थान बना लो जो हर समय पवित्र रहे, भजन के अतिरिक्त और किसी रजोगुणी अथवा तमोगुणी कार्य में उसका प्रयोग न हो अन्यथा वहाँ का वातावरण भजन के अनुकूल नहीं रहेगा। प्रातःकाल 4 बजे से 7 बजे तक समस्त मायिक कार्यों को भूल कर अपने मन को केवल प्रभु के पुनीत चरणों में ही लगा दो। दृढ़ संकल्प करो कि प्रातःकाल के तीन घण्टे केवल भगवान के निमित्त हैं। इन तीन घंटों में कोई भी साँसारिक संकल्प मन में न आवे अन्यथा भजन का आनन्द जैसा चाहिये वैसा नहीं रहेगा। जैसे बालू का एक कण ही आँख के लिए दुखदाई हो जाता है वैसे ही भजन के समय किसी प्रकार का संकल्प भजन के आनन्द में बाधक हो जाता है। प्रारम्भ काल में इस अभ्यास में अवश्य कुछ कठिनाई का अनुभव होगा किन्तु कुछ दिनों में अभ्यास करते रहने से मन वैसा ही बनकर भजन में सहायक बन जायेगा। इसी प्रकार सायंकाल को भी अन्य साँसारिक कार्यों से निवृत्त होकर 7 बजे से 10 बजे तीन घण्टे केवल प्रार्थना सत्संग और भजन के लिए रिजर्व रखो। घर के और लोगों को प्रार्थना के बाद प्रातःकाल सत्संग कराओ, भक्त-गाथा गीता रामायण आदि अन्य किसी ग्रन्थ का पाठ करो, ऐसा होने से उन लोगों का व्यवहार भी शुद्ध हो जायेगा और वे सब ही भगवद्भक्त बन कर भजन में सहायक हो जायेंगे, और परस्पर प्रेम की भावनाओं से व्यवहार करेंगे। तब यही नरक बना हुआ गृहस्थ जीवन बैकुण्ठ धाम जैसा सुखद बन जायेगा और लोग तुम्हारे अनुकरणीय परिवार की प्रशंसा करके उदाहरण में रखेंगे। घर के बाद इसी प्रकार मुहल्ले में सत्संग का आयोजन करो। सत्संग इस संसार में सबसे बड़ा उपकार है। सत्संग ही एक ऐसा अमोघ साधन है जिसके सहारे मानव 84 लाख फाँसियों के फन्दों को छिन्न—भिन्न करके शाश्वत शान्ति लाभ कर लेता है।

यदि केवल बालू की ही दीवार बनाई जाय तो प्रथम तो दीवार बनेगी ही नहीं और यदि बन गई तो शीघ्र गिर जायेगी, यदि उस बालू में सीमेंट छठा अंश भी मिला दिया जाये तो वही दीवार पत्थर की बन जाती है। इसी प्रकार माया के सब कार्य भी बालू की भाँति हैं। यदि इनसे परमार्थ रूपी कुछ सीमेन्ट मिल जायेगा तो वही बालू की दीवार सुदृढ़ बन जायगी।

घर में हर समय माया की चर्चा मत करो। व्यर्थ की वार्ता घर के वायुमण्डल को अशुद्ध कर देती है। अपनी गृहस्थी को भगवान शंकर और पार्वती की गृहस्थी की भाँति बनाने का प्रयत्न करो। भगवान शंकर और पार्वती में माया की चर्चा का वर्णन किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता, परमार्थ की चर्चा का ही वर्णन मिलता है। परमार्थ की चर्चा होती रहने से घर का वायुमण्डल शुद्ध हो जायगा। एक स्थान पर स्लेट अथवा तख्ता टाँग दो और अपनी धर्मपत्नी को सत्संग के द्वारा हृदयंगम करा दो कि हर समय की माया की चर्चा परिणाम में दुःखदायी होती है। एक स्थान पर स्लेट अथवा तख्ती टाँग दो जिसमें आवश्यक वस्तुओं की सूची लिखी रहे। ऐसा प्रयोग होने से समय की बचत होगी, व्यर्थ की वार्ता से समय नष्ट नहीं होगा और बचे हुए समय में परमार्थ चर्चा होने से बहुत लाभ होगा।

अपनी कमाई में से दशवाँश, सोलहवाँश अथवा बत्तीसवाँ अंश सतोगुणी दान के लिये अवश्य निकालना चाहिए। दान किये बिना धन की शुद्धि नहीं होती। दान करते समय इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक है कि हमारे धन का दुरुपयोग न होने पावे। देश और काल के अनुसार दान करने से जनता जनार्दन की उचित सेवा हो जाती है।

जिस प्रकार अपनी शुद्ध कमाई से अपनी परिस्थिति के अनुसार दान करना आवश्यक है इसी प्रकार अपने समय का दान करना भी बहुत आवश्यक है। दिन में एक घण्टा महीने में एक दिन और वर्ष भर में कम से कम 15 दिन माया के कार्यों से छुट्टी लेकर किसी एकान्त और पवित्र स्थान में जाकर रहना चाहिए जहाँ सत्संग सेवा और परोपकार का सुअवसर मिल सके।

तन पवित्र किये सेवा, धन पवित्र दिए दान।

मन पवित्र किये भजन ते, तब उपजेगा ज्ञान॥

इस प्रकार सतत अभ्यास करते रहने से तन, मन और धन के पवित्र हो जाने से अन्तःकरण की शुद्धि हो जाती है, तब आन्तरिक ज्ञान और भक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। युक्ति में ही मुक्ति है। इन युक्तियों का आश्रय लेकर मनुष्य परम भक्त बन जाता है। अन्तिम समय में भगवान का स्मरण करता हुआ सदा के लिए उनकी चिर शान्तिदायिनी गोद में विश्राम पा जाता है।


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