मन की चमत्कारिक शक्तियाँ

November 1952

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(प्रो. लालजी राम शुक्ल)

हम अपने विचारों को साधारणतः बोलकर व्यक्त करते हैं। जब हम किसी दूर रहने वाले व्यक्ति को अपने विचार बताना चाहते हैं तो हम उसे पत्र अथवा तार द्वारा सूचित करते हैं। बिना भौतिक साधन के विचार किसी दूर रहने वाले व्यक्ति तक पहुँच सकते हैं—इस बात पर हमारा कदापि विश्वास नहीं होता। किन्तु हम यदि अपने व्यावहारिक जीवन को सूक्ष्मता से देखें तो हम भौतिक साधनों के बिना विचारों के अपने मित्रों तक पहुँचने के बहुत कुछ प्रमाण पायेंगे। हाल की ही बात है, लेखक अपने एक मित्र के बारे में और उसके प्रेम-सम्बन्ध में कुछ कह रहा था। उस मित्र से कई दिनों से पत्र व्यवहार बन्द हो रहा था। ठीक उसी समय पर उस मित्र ने भी लेखक के विषय में सोचा और उसने लेखक को पत्र लिखा। इसी प्रकार जब लेखक एक दूसरे मित्र के बारे में चिन्ता कर रहा था, लेखक का वह मित्र भी लेखक के बारे में चिन्ता करने लगा। लेखक उसके घर गया और इस अनुभव की सत्यता ज्ञात की।

हमारे विचार प्रकाशित न होने पर भी जिस व्यक्ति के प्रति जैसे होते हैं वे उसको ज्ञात हो जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति यदि अपने मन को एकाग्र करके किसी व्यक्ति की अपने प्रति धारणा के विषय में यदि जानना चाहे तो वह जान सकता है। यदि वह व्यक्ति अपने सामने है तो उसकी धारणा का जानना सरल ही है, पर दूर रहने पर भी उसकी मुखाकृति को कल्पना में लाकर उसके विषय में चिन्तन करे और जो विचार उस समय उसके मन में उठें उन्हें ध्यान में रखे। यह देखना कि विचार उस व्यक्ति की धारणाओं को व्यक्त करते हैं। जो व्यक्ति हमसे वास्तविक प्रेम करता है उसके विषय में चिन्तन करते ही हमारे हृदय में प्रेमोदगार उदय होने लगता है और जो व्यक्ति हमें नहीं चाहता उसके विषय में सोचते ही मन में क्षोभ उत्पन्न होने लगता है। इस प्रेमोदगार और क्षोभ को भली भाँति समझने से दूसरे व्यक्ति के हृदय की स्थिति तथा उसकी अपने प्रति धारणा का पता चल सकता है।

हृदय का परिवर्तन :- हम अपने स्थान में रहकर भी दूर रहने वाले व्यक्ति के हृदय की धारणा बदल सकते हैं। दूसरे व्यक्ति के विचारों का बदलना अपने चित्त की एकाग्रता पर निर्भर रहता है। एक व्यक्ति यदि दूसरे व्यक्ति को कोरे तर्क के बल पर प्रभावित करना चाहे तो वह देखेगा कि उसका प्रयत्न व्यर्थ गया। जब तक तर्क करने वाले व्यक्ति के प्रति किसी व्यक्ति की श्रद्धा नहीं होती, युक्तियों को सुनने वाले के मन पर कोई भी अनुकूल असर नहीं होता। तर्क करने से कभी-कभी प्रतिकूल परिणाम होता है। मनुष्य की बुद्धि उसके हृदय की दासी है। जब तक हम मनुष्य के हृदय पर अधिकार नहीं करते, उसकी बुद्धि को भी प्रभावित नहीं कर सकते। दूसरे के हृदय पर अधिकार मन की साधना अर्थात् एकाग्रता से होता है, हृदय के प्रभावित हो जाने से बौद्धिक परिवर्तन सरलता से हो जाता है। हृदय का परिवर्तन अपनी सद्भावना के दर्शाने से होता है। इसके लिए अधिक बकवास करने की भी आवश्यकता नहीं होती। किसी को दो-चार शब्दों से भी प्रभावित करके उसके हृदय को परिवर्तन कर सकते हैं। आवश्यकता यह है कि हम उसके प्रति वास्तविक सद्भावना रखें। सद्भावना के लिए अपने ही स्थान में रह कर उसके शुभ-चिन्तन की आवश्यकता है।

रोग में सद्भावना का महत्व :- शारीरिक और मानसिक रोगों के उपचार में सद्भावना का महत्व भली भाँति देखा जाता है। रोगी के प्रति सद्भावना प्रकट करने से रोग नष्ट होता है। शारीरिक रोगों के उपचार में जितनी भौतिक औषधि कार्य करती है उससे कहीं अधिक डॉक्टर की रोगी के प्रति सद्भावना कार्य करती है। देखा गया है कि पैसे की दृष्टि से रोजगार करने वाले व्यक्ति रोगी की योग्य चिकित्सा नहीं कर सकते। जो वैद्य जितना ही अधिक पैसे का साथी होता है वह रोगियों की चिकित्सा करने में उतना ही अयोग्य होता है। लोभी वैद्य रोगी को स्वस्थ नहीं करना चाहता क्योंकि इससे उसकी आमदनी का जरिया चला जाता है। वह आन्तरिक मन से रोगी को रोगी ही बनाये रखना चाहता है ताकि वह बार-बार उसे बुलावे और उसे फीस तथा दवा का दाम भी दे। इससे उसकी आन्तरिक भावना उसकी दवाइयों की अपेक्षा अधिक कार्य करती है और बीमार ही बना रहता है। देखा गया है कि कुछ वैद्य पहले सफल चिकित्सक रह कर भी बाद में अपने रोगियों को आरोग्य प्रदान करने की शक्ति खो बैठते हैं। इस प्रकार के परिवर्तन का कारण उनके विचारों में दोष उत्पन्न हो जाना ही होता है।

चिकित्सक अपने घर रह कर भी रोगी को आरोग्य प्रदान करने में सफल हो सकता है। यदि चिकित्सक निःस्वार्थ भाव से किसी रोगी को चंगा करने की सोचे तो उस रोगी को अवश्य लाभ होगा। यहाँ चित्त की एकाग्रता और चिकित्सक की सद्भावना कार्य करती है। हम चित्त को एकाग्र करके दूर से ही किसी व्यक्ति के विचारों को बदल सकते हैं। जब किसी रोगी के हृदय की तन्त्री किसी आरोग्यवान् व्यक्ति से जुड़ जाती है तो उसे सफलता से आरोग्य लाभ हो जाता है। रोगी के विचार आरोग्यवान् व्यक्ति के विषय में चिन्तन करने से बदल जाते हैं। उसके आत्म भर्त्सना के भाव भी विनष्ट हो जाते है और आशा का संचार हो जाता है। मन के आशान्वित होने पर रोग का नष्ट होना अनिवार्य है।

रोगी के विचारों को आशान्वित बनाने में चिकित्सक भारी काम करता है। स्वयं रोगी के विचारों में किसी प्रकार की स्थिरता नहीं रहती। नैराश्य युक्त रहता है और रोग से मुक्त होना चाहता है पर उसे मुक्त हो सकने का विश्वास नहीं होता। स्वयं चिकित्सक को ऐसी अवस्था में प्रयत्न करना पड़ता है। उसे मानो दल-दल से हाथ पकड़ कर निकालना पड़ता है। इस कार्य में चिकित्सक को रोगी से बातचीत कराना आवश्यक नहीं होता जितना उसके विषय में चिन्तन करना और उसकी सेवा करना लाभदायक होता है। निःस्वार्थ सेवा करने से रोगी के हृदय पर चिकित्सक का अधिकार हो जाता है और उसके विचार फिर बदल देना सरल हो जाता है।

घटना का आभास :- हम जितनी एकाग्रता के साथ दूसरे व्यक्ति के बारे में सोचते हैं। वह उतना ही अधिक हमारे विषय में चिन्तन होता है। मरते समय मनुष्य दूर रहने वाले अपने प्रियजन का बड़ी एकाग्रता से चिंतन करता है। देखा गया है कि जिस व्यक्ति के बारे में मनुष्य ऐसा सोचता है वह उद्विग्नमन हो गया है। या तो उसे जाग्रत अवस्था में ही उसका स्मरण आने लगता अथवा वह उसके विषय में स्वप्न देखने लगता है। इस प्रकार के कितने ही स्वप्न सत्य होते पाये गये हैं। लेखक के एक छात्र ने एक बार अपने पिता की मृत्यु का स्वप्न देखा और दूसरे दिन उसकी मृत्यु का तार आया। सत्य होने वाले और साधारण स्वप्नों में अन्तर यह होता है कि स्वप्नावस्था के पूर्व ही मनुष्य उद्विग्नता का पता लगाना चाहे तो वह होने वाली घटना का पता लगा सकेगा।

तपस्या द्वारा मनोबल की वृद्धि :- जो मनुष्य अपने भीतर जितना ही अधिक अपने मन को ले जाता है वह दूसरों की घटनाओं को जानने की उतनी ही अधिक शक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे मनुष्यों के विचारों को प्रभावित करने की शक्ति तथा अपने संकल्प को सफल बनाने की शक्ति भी अपने मन को अपने भीतर ले जाने से आती है। कई दिनों के उपवास से इस प्रकार की शक्ति का उदय होता है। संसार के अनेक विद्वान् और सभी महात्माओं ने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए अनेक प्रकार की तपस्याएँ की हैं। जो व्यक्ति जितनी तपस्या करता है उसके विचार उतने ही प्रभावशाली होते हैं। सत्य और शक्ति दोनों को ही प्राप्त करने के लिए तपस्या की आवश्यकता है। हमारा आन्तरिक मन कल्पनातीत शक्तियों का केन्द्र है। हम जिस प्रकार की शक्ति का साक्षात्कार करना चाहते हैं मन की एकाग्रता के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। अपने स्वार्थ को त्यागने से शक्ति की असीम वृद्धि हो जाती है। जो व्यक्ति अपनी मानसिक शक्ति को अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये कामना में नहीं लाता वह उतना ही अधिक उस शक्ति को बली बना लेता है। हम इस तरह देखते हैं कि तप और निःस्वार्थ भावना के कार्य मनुष्य को अपार शक्ति प्रदान करते हैं। हमारी मानसिक शक्ति हमारे विश्वास पर निर्भर है। जैसा मनुष्य का अपनी शक्ति के विषय में निश्चय होता है उसके मन में उसी प्रकार की शक्ति का उदय होने लगता है। पर निश्चय की दृढ़ता तप का परिणाम है। तप और योग में मौलिक भेद नहीं, दोनों में ही मन को रोकना पड़ता है। मन की एकाग्रता से ही निश्चय की दृढ़ता अर्थात् विश्वास आता है। विश्वास सिद्धि का कारण होता है। मनुष्य जितनी ही अधिक तपस्या करता है मानसिक शक्ति को उतना ही अधिक बढ़ा लेता है। पर यह बढ़ी हुई शक्ति अपने ही काम में लाने से नष्ट हो जाती है। इस शक्ति को लोकोपकार में लगा देने से चिरस्थायी हो जाती है। शक्ति का उदय तप अर्थात् चित्त की एकाग्रता से होता है और उसका स्थायी रहना उसके उपयोग से।

वैयक्तिक और समष्टि-मंन :-

हमारे वैयक्तिक मन के परे समष्टि मन है। यही मन शक्ति और प्रतिभा का केन्द्र है। चित्त की एकाग्रता से मनुष्य अपने आपको समष्टि-मन से मिला देता है। तपस्या का यही परिणाम है। इस मनुष्य का वैयक्तिक मन शक्तिशाली हो जाता है, जब तक मनुष्य के वैयक्तिक मन और समष्टि मन में एकता रहती है मनुष्य शक्तिशाली बना रहता है, जब मनुष्य अपने आपको समष्टि-मन से अलग कर लेता है तो उसकी शक्ति का ह्रास हो जाता है। शक्ति समष्टि मन अर्थात् विराट पुरुषों से, जो कि हमारा अन्तर्यामी है, आती है। जब हम विराट पुरुष से प्राप्त शक्ति उसी के काम में लाते हैं तो वह नष्ट नहीं होती। जितना ही अधिक हम अपनी शक्ति को लोकोपकार में खर्च करते हैं हमारी शक्ति उतनी ही अधिक बढ़ती है। अपने स्वार्थ की सिद्धी वाले कार्यों में खर्च करने से उसका ह्रास होता है।

मानसिक शक्ति का सम्बन्ध मनुष्य की शारीरिक शक्ति से प्रायः स्थापित किया जाता है। कहा जाता है कि मनुष्य की जैसी शारीरिक शक्ति होती है उसी के अनुसार उसकी मानसिक शक्ति भी होती है। हमारी इस प्रकार की धारणा भ्रमात्मक है। देखा गया है कि मोटे-ताजे मनुष्य का मानसिक बल नहीं के बराबर होता है और दुर्बल मनुष्य के मानसिक बल से संसार डरता रहता है। अपढ़ और पढ़े लिखे लोगों के मानसिक बल को ही देखें। सुशिक्षित मनुष्य का मानसिक बल सदा अशिक्षित से अधिक होता है। जितना आत्म विश्वास शिक्षित में पाया जाता है उतना अशिक्षित व्यक्ति में नहीं। उसमें न तो उतना आत्म विश्वास होता है न मानसिक दृढ़ता ही। इसका कारण भी चित्त की एकाग्रता का अभ्यास है। जो व्यक्ति किसी विषय को लेकर जितना ही अधिक मानसिक एकाग्रता का अभ्यास करता है उसमें उतनी ही अधिक मानसिक दृढ़ता और आत्म विश्वास की उत्पत्ति होती है।


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