गायत्री उपनिषद्

November 1952

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(गताँक से आगे)

गायत्री के प्रथम पाद का शब्दार्थ तो बहुत साधारण है। उसे समझने मात्र से उतना लाभ नहीं मिल सकता, जितना कि मिलना चाहिये। ब्रह्म ने श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान रूपी तीन रत्नों का जिसे अधिकारी बनाया है, उसे घेर दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि गायत्री की मर्यादा के भीतर जिन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया है— वे ही भौतिक और अधिक आनन्दों को प्राप्त करेंगे। जिनकी जठराग्नि तीव्र है उनके लिये साधारण श्रेणी के पदार्थ भी बड़े रुचिकर और पुष्टिकर होते हैं और जिनकी जठराग्नि मन्द है उनके लिए बढ़िया मोहन भोग भी रोग उत्पन्न करते हैं। गायत्री से आच्छादित ब्रह्मकर्मा मनुष्य की आत्मिक जठराग्नि ऐसी ही तीव्र होती है वह थोड़ी मात्रा में प्राप्त हुये पदार्थों से भी पर्याप्त रसास्वादन कर सकता है।

जो यह जानता है कि गायत्री के प्रथम पाद का वास्तविक उद्देश्य मानव जीवन को आदर्शवाद की प्रतिज्ञा से ओत-प्रोत बनाना है। वही उसका तात्पर्य जानता है। जो इस ज्ञान को व्यवहार में लाता है, अर्थात् अपने को वैसा ही बनाता है, उसका जीवन अविच्छिन्न रहता अर्थात् जीवन पर पथ-भ्रष्ट नहीं होता और उसका वंश भी नष्ट नहीं होता। पीछे भी जन्म-जन्मान्तरों तक वह भावना नष्ट नहीं होती, इस अविच्छिन्नता के कारण उसे श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान का कभी भी अभाव नहीं होता ।

‘भर्गो देवस्य धीमही त सावित्र्याः द्वितीयः पादः’।

भर्गो देवस्य धीमहि— यह सावित्री का दूसरा पाद है।

अन्तरिक्षेण यजुः समदद्यात् यजुषा वायुम् वायुना वनस्पतिभिः पशून पशुभिः कर्मः, कर्मणा तपः, तपस्या सत्यम्, सत्येन ब्रह्म, ब्रह्मणा ब्राह्मणाम्, ब्राह्मणेन व्रतं व्रतेन वै ब्राह्मणः संशितो भवत्शून्यो भवत्यविछिन्नो भवति।

अन्तरिक्ष से यजु को युक्त करता है। यजुर्वेद से वायु को, वायु से मेघ को, मेघ से वर्षा को, वर्षा से औषधि वनस्पतियों को, कर्म से तप को, तप से सत्य को, सत्य से ब्रह्म को, ब्रह्म से ब्राह्मण को, ब्राह्मण से ब्रह्म को। तथा व्रत से ब्राह्मण तीक्ष्ण, पूर्ण और अविच्छिन्न होता है।

अविच्छिन्नोऽस्यतन्तुरविच्छिन्नं जीवनं भवति एवं वेद यश्चैवं विद्वानेवमेतं सावित्र्याः द्वितीयं पादं च्याचष्टे।

जो विद्वान इस प्रकार जानकर सावित्री के द्वितीय पाद की व्याख्या करते हैं उनका वंश तथा जीवन अविच्छिन्न होता है।

पिछली काण्डिका में भूः से ऋक् को सम्बन्धित करके प्रथम पाद का रहस्य समझाया था। इस काण्डिका में गायत्री के दूसरे पाद का विवेचन करते हैं। भुवः से अन्तरिक्ष से यजुः को सम्बन्ध किया है। यजुः कहते हैं यज्ञ को। यज्ञ कहते हैं परमार्थ को। पहली काण्डिका में ज्ञान द्वारा आदर्श जीवन की प्राप्ति का उपाय बतलाया था यहाँ यज्ञ द्वारा व्रत मय जीवन होने की शृंखला का वर्णन करते हैं।

भुवः से अन्तरिक्ष में यजुः को संयुक्त किया, यजुः से वायु को, वायु से मेघ को, मेघ से वर्षा को,वर्षा से औषधि और वनस्पतियों को, औषधि वनस्पति से पशुओं को सम्बन्ध किया। गीता में भी यज्ञ विधान का ऐसा ही वर्णन है। यज्ञ से वायु शुद्ध होती है,वायु के संपर्क से गुणदायक जल बरसता है उससे वृक्ष, वनस्पति और पशु, श्रेष्ठ तत्वों वाले होते हैं, उनका उपयोग करने से मनुष्य का मन श्रेष्ठ बनता है और श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कर्म होते हैं।

कर्म से तप को, तप से सत्य को, सत्य से ब्रह्म को, ब्रह्म से ब्राह्मण को, और व्रत से सम्बन्ध किया। अन्ततः वही कर्म आ गया । व्रत धारण करने से ब्राह्मण सुतीक्ष्ण परिपूर्ण एवं अविच्छिन्न वंश वाला होता है।

जो बात ज्ञान से प्राप्त होती है वही प्रकारान्तर से यज्ञ द्वारा श्रेष्ठ कर्मों द्वारा भी प्राप्त हो सकती है। उच्च अन्तःकरण से निकली हुई सद्भावनाएँ समस्त आकाश को, वातावरण को सत्मय बना देती हैं और उस वातावरण में पलने वाले सभी पदार्थ सत् से परिपूर्ण होते हैं। जिस वातावरण के कारण मनुष्य ब्रह्म परायण व्रतवान होकर अविच्छिन्न हो जाता है यह इस दूसरी काण्डिका का तात्पर्य है।

धियो यो नः प्रचोदयादिति सावित्र्यास्तृतीयः पादः।

धियो यो नः प्रचोयात्— यह सावित्र का तीसरा पाद है

दिवा साम समदधात् साम्नाऽदित्यम् आदित्येन रश्मीन् रश्मिभिवर्षम् वर्षेणौषधिवनस्पतीन् औषधि वनस्पतिभिः पशून्, पशुभि कर्मः, कर्मणातपः तपसा सत्यम् सत्येन ब्रह्म ब्रह्मणा ब्राह्मणम् ब्राह्मणेन व्रतम् व्रतेन वै ब्राह्मण सरातो भवत्यशून्यो भवत्य-विच्छिन्नो भवति। अविच्छिन्नोऽस्य तन्तुरविच्छिन्नं जीवनं भवति य एवं वेद, यश्चैवं विद्वानेवमेतं सावित्र्यास्तृतीयं पादं व्याचष्टे।

द्यु लोक से साम को युक्त करता है साम से आदित्य को, आदित्य से रश्मियों को, रश्मियों से वर्षा को, वर्षा से औषधि वनस्पतियों को, औषधि, वनस्पतियों से पशुओं को, पशुओं से कर्म को, कर्म सके तप को, तप से सत्य को, सत्य से ब्रह्म को, ब्रह्म से ब्राह्मण को, ब्राह्मण से व्रत को, व्रत से ब्राह्मण तीक्षणा, पूर्ण और अविच्छिन्न वशं होता है। जो यह जानकर सावित्री के तृतीय पाद की व्याख्या करते हैं वे अपने वंश एवं जीवन को अविच्छिन्न बनाते हैं।

गायत्री का तीसरा पाद ‘स्व’ से आविर्भूत हुआ है। ‘स्व’ कहते हैं द्यु लोक को। द्यु लोक सामवेद से संयुक्त किया गया है। साम से आदित्य, आदित्य से रश्मियाँ, रश्मियों से वर्षा, वर्षा से औषधि वनस्पति, उनसे पशुओं का सम्बन्ध है। इनका उपयोग करने से पूर्व कंडिकाओं में वर्णित प्रकार से मनुष्य ब्रह्मचारी व्रतधारी बनकर अविच्छिन्न जीवन और वंश वाला बन जाता है।

गायत्री के तीन पदों में यह विज्ञान सन्निहित है जिसके द्वारा मनुष्य को श्री, प्रतिष्ठा और ज्ञान की उपलब्धि होती है। तीन पाद तीन वेदों से बने हैं। प्रत्येक पाद तीन-तीन लोकों का प्रतीक है। इन तीन लोकों से यह तीनों वेदों के मन्त्र आवश्यक सावित्री को खींच कर लाते हैं और गायत्री साधक को सब प्रकार सुखी बना देती है। इससे व्यक्तिगत लाभ ही नहीं वरन् सामूहिक लाभ भी है। जैसे यज्ञ करने से वायु की शुद्धि, उत्तम वर्षा और उससे गुणकारी वनस्पति तथा दूध की उत्पत्ति होती है वैसे ही गायत्री द्वारा भी वह प्रक्रिया पूरी होती है।

यह सम्बन्ध-श्रृंखलाएँ अपने में एक बड़ा भारी पदार्थ विज्ञान सम्बन्धी रहस्य छिपाये बैठी हैं। एक पदार्थ से दूसरे का सम्बन्ध किस प्रकार है इसकी थोड़ी सी विवेचना हमने आध्यात्मिक शैली से की है, परन्तु इसमें और भी विशद् रहस्य मौजूद हैं। भौतिक विज्ञान के अनुसार भी वह फलितार्थ उपस्थिति होते हैं जिनके कारण गायत्री का साधक उन तीनों लाभों से श्री, प्रतिष्ठा एवं ज्ञान से पर्याप्त मात्रा में लाभान्वित होता है और अन्त में ईश्वर की प्राप्ति करके अविच्छिन्न जीवन— अर्थात् अमर हो जाता है उसे जरा- मृत्यु के जीवन बन्धन में नहीं बँधना पड़ता। ऐसा है इस त्रिपदा गायत्री का महान् रहस्य।

तेन ह वा एवं विदुषा ब्राह्मणेन ब्रह्माभिषन्नं प्रसितं परामृष्टम्।

सावित्री के तीन पाद जानने वाले ब्राह्मण से ब्रह्म प्राप्त ग्रसित और परामृष्ट होता है।

ब्रह्मणा आकाशमभिशन्नं, ग्रसितं परामृष्टम् आकाशेन वायुरभिषन्नो ग्रसितः परामृष्ट। वायुना ज्योतिरभिपन्नो ग्रसितः परामृष्टः। ज्योतिषापोऽभिपन्ना ग्रसित परामृष्टाः। अद्भिर्भूमिरभिपन्ना ग्रसिताँ परामृष्टा भूम्यान्न मभिषन्नं ग्रसितं परामृष्टम्। अम्नेन प्राणोऽभिपन्नो ग्रसितः परामृष्ट। प्राणेन मनोऽभिषन्नं ग्रसितं परामृष्टम्। मनसा वागभिषन्ना ग्रसिता परामृष्टा। वाचा वेदा अभिषन्ना ग्रसिताः परामृष्टाः। वेदैर्यज्ञोऽभिषन्नो ग्रसितः परामृष्टः। तानि ह वा एतानि द्वादश महाभूतान्येवं विदिप्रतिष्ठितानि। तेषाँ यज्ञा एव परार्ध्यः।

ब्रह्म से आकाश प्राप्त, ग्रसित एवं परामृष्ट है। आकाश से वायु प्राप्त ग्रसित तथा परामृष्ट है। वायु से ज्योति अभिपन्न ग्रसित और परामृष्ट है। ज्योति से जल प्राप्त, ग्रसित और परामृष्ट है। जल से पृथ्वी प्राप्त, ग्रसित और परामृष्ट है। भू में से अन्न अभिपन्न, ग्रसित और, परामृष्ट है। अन्न से प्राण अभिपन्न, ग्रसित तथा परामृष्ट है। प्राण से मन अभिपन्न, ग्रसित तथा परामृष्ट है। मन से वाक् अभिपन्न, ग्रसित तथा परामृष्ट है। वाक् से वेद अभिपन्न, ग्रसित एवं परामृष्ट है। वेदों से यज्ञ प्राप्त, ग्रसित एवं परामृष्ट है। इस प्रकार का ज्ञान करने वालों में ये बारह महाभूत प्रतिष्ठित रहते हैं। इनमें यज्ञ ही सर्वश्रेष्ठ है।

पिछली तीन कर्णिकाओं में वर्णित गायत्री के तीन पादों के रहस्य को जो भली प्रकार जानता है उस ब्राह्मण से ब्रह्म प्राप्त, ग्रसित और परामृष्ट होता है। अर्थात् वह ब्राह्मण- ब्रह्म को प्राप्त करता है, प्राप्त करके उसे अपने में पचाता है और उससे परामृष्ट- आच्छादित होता है। उसके भीतर और बाहर सब ओर ब्रह्म की ही सत्ता काम करती है।

अब 12 ऐसी कड़ियां बताई जाती हैं, जिन पर विचार करने से यह प्रकट हो जाता है कि पंच भूत, अन्तःकरण चतुष्टय, वेद और यज्ञ सब का मूल केवल ब्रह्म है। ब्रह्म से ही एक कड़ी के बाद दूसरी कड़ी की तरह यह सब जुड़े हुए हैं उसी से ओत-प्रोत हैं।

बताया गया है कि ब्रह्म से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से प्राण, प्राण से मन, मन से वाक्, वाक्. से वेद और वेद से यज्ञ प्राप्त होता है, ग्रसित किया जाता है आच्छादन होता है।

ब्रह्म प्रत्यक्ष रूप से आँखों से दिखाई नहीं पड़ता, स्वल्प ज्ञान वाले मनुष्य समझते हैं कि पंच भूतों का यह पुतला ही सब कुछ करता है। उन्हें यह बताया गया है कि यह पंच भूत और तुम्हारे अन्दर काम करने वाली मन, बुद्धि आदि की चैतन्यता ब्रह्म से पृथक नहीं है वरन् उसी से आच्छादित है। यदि ब्रह्म का आच्छादन इन पर न हो तो इनकी क्रिया-शीलता समाप्त हो जाय और कोई तत्व कुछ भी काम करने में समर्थ न हो सके।

जो प्रकृति में, पंच-भूतों में, शरीर में, मन में ब्रह्म को, परमात्मा को समाया हुआ देखता है, वह ब्राह्मण कहलाता है, वह वेद और यज्ञ से घिरा होता है। अर्थात् सद्ज्ञान और सत्कर्म उसके कण-कण में व्याप्त होते हैं। इस सब ज्ञान में यज्ञ ही, सत्कर्म ही, सर्वोत्तम हैं। क्योंकि इस ज्ञान का तात्पर्य ही यह है कि मनुष्य सत्कर्म में लगे। जिसे यह सब रहस्य मालूम है उसमें सब भूत प्रतिष्ठित रहते हैं अर्थात् समस्त सृष्टि विस्तार को वह अपने भीतर ही समझता है।

त ह स्मैतमेषं विद्वाँसो मन्यन्ते विद्यैनमिति याथातथ्यम विद्वसिः।

जो विद्वान यह समझ लेते हैं कि हम इस यज्ञ के जानकार हो गये, वे इसे नहीं जानते।

अयं यज्ञो वेदेषु प्रतिष्ठितः। वेदा वाचि प्रतिष्ठिताः वाड् मनसि प्रतिष्ठिता। मन प्राणो प्रतिष्ठितम्। प्राणेऽन्ने प्रतिष्ठितः अन्नं भू मौ प्रतिष्ठितम्। भूमि रप्सु प्रतिष्ठिता आपो ज्योतिषी प्रतिष्ठिताः ज्योतिर्वायो प्रतिष्ठितम्। वायु राकाशे प्रतिष्ठितः आकाशं ब्रह्मणि प्रतिष्ठितम्। ब्रह्म ब्राह्मणे ब्रह्म विदि प्रतिष्ठितम्।

यो हवा चित् स ब्रह्मवित्पुण्याँ च कीर्ति लभते सुरभींश्च गन्धान्। सोऽपहतपाप्मानन्ताँ श्रियमश्नुतेय एवं वेद, यश्चैवं विद्वानेवभेताँ वेदानाँ मातरं सावित्री संपदमुपनिषदपुयास्त इति ब्राह्मणम्।

यह यज्ञ वेदों में प्रतिष्ठित है। वेद वाक् में प्रतिष्ठित है। वाक् मन में प्रतिष्ठित है। मन प्राण में प्रतिष्ठित है, प्राण अन्न में प्रतिष्ठित है, अन्न भूमि में प्रतिष्ठित है, भूमि जल पर प्रतिष्ठित है। जल तेज पर प्रतिष्ठित है, तेज वायु पर प्रतिष्ठित है वायु आकाश पर प्रतिष्ठित है, आकाश ब्रह्म पर प्रतिष्ठित है। ब्रह्म ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण पर प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार जानने वाला ब्रह्म ज्ञानी पुण्य एवं कीर्ति को प्राप्त करता है तथा सुरभित गन्धों को पाता है। वह व्यक्ति पापहीन होकर अन्त ऐश्वर्य को प्राप्त होता है।

पिछली कण्डिका में यज्ञ को सर्वोत्तम बताया है परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि जो यह कहते हैं कि हमको जानते है वे नहीं जानते। कारण यह है कि दूसरे आदमी किसी कार्य के वाह्य रूप को देख कर ही उसे भले बुरे होने का अनुमान लगाते हैं। परन्तु यथार्थ में काम के बाहरी रूप से यज्ञ का कोई सम्बन्ध नहीं वह तो आन्तरिक भावनाओं पर निर्भर होता है, यह हो सकता है कि कोई व्यक्ति बड़े बड़े दान, पुण्य, होम, अग्निहोत्र, ब्रह्मभोज, तीर्थयात्रा आदि करता हो पर इसमें उसका उद्देश्य यश लूटना या कोई लाभ उठाना हो, इसी प्रकार डॉक्टर के आपरेशन करने के समान ऐसे कार्य भी हो सकते हैं जो देखने में पाप प्रतीत होते हैं परन्तु कर्त्ता की सद्भावना के कारण वे श्रेष्ठ कर्म हों। इसलिए कौन आदमी यज्ञ कर रहा है या यहीं, इसका निर्णय उन व्यक्तियों की अन्तरात्मा ही कर सकती है बाहर के आदमी के लिये बहुत अंशों में उसका जानना सम्भव होने पर भी पूर्ण रूप से शक्य नहीं है।

पिछली काण्डिका में जिन बारह कड़ियों को एक ओर से गिनाया था इस काण्डिका में उन्हें दूसरी ओर से गिनाया गया है। अर्थात् क्रम उलटा कर दिया गया है-

यज्ञ वेदों में, वेद वाक् में, वाक् मन में, मन प्राण में, प्राण अन्न में, अन्न भूमि में, भूमि जल में, जल तेज में, तेज वायु में, वायु आकाश में, आकाश ब्रह्म में और ब्रह्म ब्राह्मण में प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस शृंखला का एक सिरा ब्राह्मण है तो दूसरा यज्ञ, एक सिरा यज्ञ है तो दूसरा ब्राह्मण, ब्राह्मण वही है जो सद्ज्ञान और सत्कर्म से ओत-प्रोत है। दूसरी तरह से इसी को यों कह लीजिये कि जो सद्ज्ञान और सत्कर्म से ओत-प्रोत है वही ब्राह्मण है।

जो इस प्रकार जानता है जो ब्रह्मज्ञानी है, वह सुगन्ध की तरह उड़ने वाली पुण्यमयी कीर्ति को प्राप्त करता है, वह निष्पाप हो जाने से अनन्त ऐश्वर्यों को भोगता है, वह ज्ञान का उपासक बन कर इस वेद माता गायत्री की उपनिषद् का उपासक बनता है। अर्थात् इस उपनिषद् में वर्णित महान ब्रह्म ज्ञान को अपने अन्तःकरण में धारण करके उससे अपना जीवन ओत-प्रोत बनाता है। ऐसा व्यक्ति ही ब्राह्मण है,ऐसा शास्त्रों का अभिवचन है।


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