सर्वत्र ईश्वर ही है।

November 1952

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(श्री स्वामी विवेकानन्द जी)

लोग ऐसा जानते हैं कि विश्वव्यापी आत्मा अनन्त है। परन्तु भला अनन्तता में खण्ड कैसे हो सकता है? यह तोड़ा कैसे जा सकता है? इसमें विभाग किस तरह होगा? यह कहना कि मैं उस अनन्त का एक कण हूँ, बहुत ही कवित्वमय है। परन्तु विवेकशील मन के लिये यह बात बहुत ही बेतुकी हैं। अनन्त को विभक्त करने का तात्पर्य क्या है? क्या यह कोई परमेय पदार्थ है, जिसे आप खण्ड-खण्ड में विभक्त कर सकेंगे? जिस वस्तु में परिमाण नहीं है, जिसे हम नाम नहीं सकते, उसके खण्ड भी नहीं किये जा सकते। जिसके खण्ड करना सम्भव है, उसमें फिर अपरिमेयता नहीं रह जाती। इसका निष्कर्ष यह निकला कि आत्मा जो कि विश्वव्यापी है वह “तुम” हो। और “तुम” एक खण्ड नहीं, बल्कि ईश्वर के पूर्ण अंश हो। परन्तु ये सब विभिन्नताएँ क्या हैं? इस संसार में हमें लाखों विभिन्न आत्माएँ मिलती हैं। ये सब क्या हैं? जिस समय पानी के लाखों बुद-बुदों पर सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है, उस समय उनमें से हर एक में सूर्य की प्रतिमूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं। हर एक बुद-बुदे में सूर्य की अविकल मूर्ति परिलक्षित होती है। इस प्रकार उस समय हमें लाखों सूर्य दिखाई पड़ते हैं, यद्यपि वास्तविक सूर्य केवल एक ही है। इस प्रकार वह माया-विशिष्ट आत्मा, जो कि हम में से प्रत्येक प्राणी के अन्तःकरण में वर्तमान है, ईश्वर की प्रतिमा-मात्र है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वास्तविक सत्ता जो कि अन्तराल में है, वह एकमात्र ईश्वर है। उसके समीप हम सभी लोग एक हैं।

इस विश्व ब्रह्माण्ड में आत्मा केवल एक है और वही हम, तुम तथा संसार के अन्य समस्त प्राणियों के शरीर में प्रतिबिम्बित होती है और वह भिन्न-भिन्न आत्माओं के रूप में प्रदर्शित होती है। परन्तु हम यह बात नहीं जानते। हमारी धारणा है कि हम सब एक दूसरे से भिन्न हैं और उससे-ईश्वर से- भी भिन्न हैं। जब तक हमारी यह धारणा बनी रहेगी तब तक संसार से दुखों का भी अन्त न होगा। यह भ्रान्ति है। इसके अतिरिक्त दुःख, क्लेश का एक और बहुत बड़ा कारण भय है।

भला एक व्यक्ति दूसरे के स्वार्थ का विघातक क्यों बनता है? कारण वह डरता है कि मैं यथेष्ट सुख न प्राप्त कर सकूँगा। मनुष्य को भय रहता है कि यथेष्ट धन न प्राप्त कर सकूँगा। इस भय के ही कारण वह दूसरों को हानि पहुँचाता है। इसी से वह दूसरों को धोखा देता है, ठगता है। यदि समस्त विश्व में केवल एकमात्र सत्ता होती तो भला इस तरह का भय क्यों होता? यदि मेरे ऊपर वज्र गिर पड़े तो मैं अपने ही ऊपर स्वयं गिर पड़ा हूँ। क्योंकि इस समस्त विश्व में मैं ही एक मात्र सत्ता हूँ। यदि प्लेग आती है, तो वह मैं हूँ, यदि कोई सिंह आता है, तो मैं हूँ, यदि मृत्यु आती है तो वह मैं हूँ। मैं जन्म और मृत्यु दोनों ही हूँ।

विश्व में दो सत्ताओं का अस्तित्व मानने पर भय का संचार होता है। इस तरह का उपदेश हम सदा से ही सुनते चले आ रहे हैं कि एक दूसरे से प्रेम करो। किस लिये? यह मत तो प्रचारित किया गया था, किन्तु इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। हमें प्रत्येक व्यक्ति को प्रेममय दृष्टि से क्यों देखना चाहिये? वह इसलिये कि मैं तथा संसार के अन्य समस्त प्राणी अभिन्न हैं। मैं अपने भाई से प्रेम क्यों करूं? इसलिये कि वह और मैं एक हूँ। इस प्रकार समस्त विश्व के सुख-दुख को समान मानने में ही यह एकता है। हमारे पैरों से कुचले जाने वाले छोटे से छोटे कीड़े-मकोड़ों से लेकर सृष्टि के बड़े से बड़े प्राणी तक पृथक्-पृथक् शरीर धारण करते हुये भी एक ही जीव हैं। सभी मुखों द्वारा तुम खाते हो, सभी हाथों के द्वारा तुम काम करते हो और सभी नेत्रों के द्वारा तुम देखते हो। इन लाखों शरीरों के द्वारा तुम स्वास्थ्य का उपभोग करते हो, तथा रोगों की यन्त्रणा भी सहन करते हो।

जब मन में इस तरह की भावना आ जाती है और हम इसका अनुभव करने लगते हैं तब दुःख, क्लेश और भय का अन्त हो जाता है। मैं मर कैसे सकता हूँ? मेरे अतिरिक्त और तो कुछ है ही नहीं। भय का अन्त हो जाने पर पूर्ण आनन्द और पूर्ण प्रेम आता है। यह विश्व-व्यापी सहानुभूति, विश्वव्यापी आनन्द, जो कि सर्वदा निर्विकार और अपरिवर्तनीय है, मनुष्य को सबसे ऊँचा उठा देता है। इसमें प्रतिघात नहीं है। दुःख, क्लेश भी इसका स्पर्श नहीं कर पाते। परन्तु संसार के इन तुच्छ सुखों-विषय वासना में सदा ही प्रतिघात हुआ करते हैं। इसका समस्त कारण यह द्वैतवाद—इस विश्व तथा ईश्वर के पार्थक्य का भाव है। परन्तु जिस समय हम में यह भावना आ जायगी कि मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही विश्व की आत्मा हूँ, मैं सदानन्द हूँ, जीवन मुक्त हूँ! तब वास्तविक प्रेम उत्पन्न होगा, भय जाता रहेगा और दुःख-क्लेश का अन्त हो जायगा।


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