विवेक की साधना

November 1952

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(डॉ. गौरीशंकर जी श्रीवास्तव)

मनुष्य बुद्धि प्रधान होने के कारण सृष्टि के अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ और भिन्न है। बुद्धि की विशेषता ही उसे मनुष्य बनाती है। बुद्धि का कार्य विचार करना है। इसका क्षेत्र मस्तिष्क है। विचारों का उत्पादन करना बुद्धि का काम नहीं मन की क्रिया है। संकल्प पहले मन में जाग्रत होते हैं। बुद्धि के क्षेत्र में आकर वे विचार का रूप धारण करते हैं। बुद्धि की निरन्तर क्रिया शीलता के कारण हमारे मस्तिष्क में अनेक प्रकार के विचार एकत्रित हो जाते हैं। इनमें अच्छे भी होते हैं और बुरे भी। हमारे शरीर की क्रिया इन्हीं विचारों के आधीन रहती है। जब हमारी बुद्धि किसी बात को तय कर लेती है तो उसी के अनुसार शारीरिक क्रियाएँ होने लगती हैं। यह फैसला अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी।

विचारों के जमघट में हमें यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि उनमें से कौन सा हित-कारक और कौन सा अहितकर, कौन सा करणीय और कौन सा त्याज्य एवं कौन से सही और कौन सा गलत है। इस स्थिति में कोई विशिष्ट शक्ति हमें निर्णय सुझाती है। मस्तिष्क की इसी निर्णायक शक्ति का नाम विवेक है। यह हमारे अन्तरात्मा की वह पुकार है जिस पर हम सत् और असत् न्याय और अन्याय तथा अच्छे और बुरे का फैसला करते हैं। उलझनों की अँधेरी घड़ियों में— चिन्ता के भयंकर क्षणों में यही विवेक हमारा पथ प्रदर्शन करता है।

जिसमें विवेक की कमी होती है वे नाजुक क्षणों में अपना सही मार्ग निश्चित नहीं कर पाते और गलत रास्ते पर चल उठते हैं जिसके कारण उन्हें पतन और असफलता के गर्त गिरकर लाँछित और अपमानित होना पड़ता है। जिनमें शक्ति का प्राधान्य होता है वे दूरदर्शी होते हैं, काम के परिणाम को समझते हैं, अपने विचारों के महत्व को जानते हैं और इसीलिए उपयुक्त मार्ग अपनाते हैं। यही शक्ति साधारण व्यक्ति को नेता, महात्मा और युग पुरुष बनाती है।

विवेक प्रत्येक व्यक्ति में जन्मजात रूप से वर्तमान रहता है। इस पर हमारे संचित और क्रियमान कर्मों की छाया का प्रभाव पड़ता है जिसके कारण वह किसी में कम और किसी में अधिक दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि हम अपने संचित एवं क्रियमान कर्मों से इतने अधिक प्रभावित रहते हैं कि विवेक की पुकार हमें ठीक से सुनाई नहीं पड़ती। यही विवेक हमारी वास्तविक मानवता का प्रतीक और सद्बुद्धि का द्योतक है। इसके अभाव में मनुष्य पशु या उससे भी गया बीता बन जाता है और वह स्वयं के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए और अन्ततः सृष्टि के लिए एक भार एवं अभिशाप हो जाता है।

मानव होने के नाते हमारा यह प्राथमिक कर्त्तव्य है कि हम इस विवेक को जाग्रत करें और उसकी आवाज को सुनना सीखें। संसार के छोटे से छोटे और बड़े से बड़े सभी मनुष्य इसकी कृपा के लिए लालायित रहते हैं।

इसकी प्राप्ति का क्या उपाय है? इसके उत्तर को पाने के लिए नीचे का उदाहरण सहायक होगा।—

बाण शय्या पर, महाभारत के पश्चात्, भीष्म पितामह पड़े थे। उनके समीप ही युधिष्ठिर, द्रौपदी आदि बैठे थे। भीष्म कह रहे थे—

“मनुष्यत्व का तकाजा यही है कि वह अपनी आँखों से पाप और अधर्म को होता देखकर सहन न करे। यदि उसके समक्ष कोई अन्याय युक्त बात कही जाय तो उसका कर्त्तव्य है कि वह उस बात का विरोध करे और यदि विरोध करने की सामर्थ्य न हो तो उस स्थान से उठकर चला जाए।”

भीष्म के इन वाक्यों को सुनकर द्रौपदी को पहले कुछ हँसी आई फिर उनकी मुद्रा विकीर्ण हो गई। उन्होंने सोचा कि दुनिया में उपदेश करना कितना सरल काम है और पालन करना कितना दुस्साध्य। भीष्म का यह ज्ञान उस दिन कहाँ चला गया था जब दुर्योधन ने राज सभा में इन्हीं के सामने चीर खींचकर मेरा अपमान किया था। उस दिन प्रार्थना करने पर भी इनका मुँह क्यों न खुला? क्या मेरे प्रति वह अन्याय नहीं था? फिर भीष्म की मनुष्यता उस समय कहाँ थी?-इस विचार से उन्हें किंचित व्यंग्यात्मक हँसी आई।

उन्होंने फिर सोचा कि इतनी लाँछना और अपमान सहकर भी मैं आज तक दुनिया में जीवित हूँ,- कितने कलंक की बात है यह मेरे लिए- इस विचार से उनकी मुख श्री म्लान हो गई।

भीष्म से द्रौपदी का यह भाव छिपा नहीं रहा। उन्होंने उस अन्तर्द्वन्द्व को समझते हुए कहा—

“पुत्री द्रौपदी, तुम्हारी शंका झूठ नहीं है। मैं ही उस कुकर्म का मूल कारण हूँ। यदि मैं दुःशासन के उस कुकृत्य का उसी समय विरोध करता तो उसकी सामर्थ्य नहीं थी कि वह तुम्हारा अपमान कर सकता। किन्तु समझती हो- मैं यह क्यों नहीं कर सका?— मेरी बुद्धि पर उसके कुधान्य का प्रभाव था। मेरी विवेक शक्ति पर अज्ञान का परदा पड़ा था। कर्त्तव्य के ज्ञान से मैं उस समय शून्य था।

आज 56 दिनों से बिना अन्न जल के मैं बाण शय्या पर पड़ा हुआ हूँ। दुर्योधन के धान्य का कुप्रभाव इस तपाग्नि में जलकर नष्ट हो गया है और मुझे विवेकशक्ति का प्रकाश पुनः प्राप्त हुआ है। मैंने जो कुछ किया उसकी स्थिति आज में समझने के योग्य हूँ।”

तात्पर्य कहने का यह कि भीष्म ने जब अपने कुकृत्यों के दुष्परिणाम को तप द्वारा भस्म सान कर दिया तब उन्हें विवेक का प्रादुर्भाव हुआ। यह सिद्धान्त सभी के लिए लग रहे। यद्यपि भीष्म की तपश्चर्या भीष्म के ही अनुकूल है, जनसाधारण का इतने भीष्म साधन से जीवन ही संदिग्ध हो सकता है।

हमें क्या करना चाहिए :-

[1] हमारा आहार तथा शक्ति शुद्ध और पवित्र कमाई के धान्य का हो।

[2] भोजन सात्विक हो ताकि उसका दुष्प्रभाव हमारी बुद्धि पर न पड़े।

[3] हमारे कार्य सौम्य और अहिंसात्मक हों।

[4] अंतर्मुखी बनकर अपने संकल्पों का बारीक विश्लेषण करिए और देखिए कि वहाँ व्यर्थ की भीड़ जमा न हो।

[5] चित्त को निःसंकोच करने का प्रयत्न करिए।

[6] यम और नियम के पालन में यथाशक्ति तत्पर रहिए। आप देखेंगे कि विवेक की आवाज सुनने में आप समर्थ होंगे।


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