एक ही ध्येय (Kavita)

November 1952

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पन्थ अनेकों पथिक अनेकों हैं अगणित पाथेय।

किन्तु एक ही ध्यान चिरन्तन और एक ही ध्येय॥

प्रभु तेरे मन्दिर में आने के लाखों ही द्वार।

मन की गति तरणी श्वासों का विस्तृत पारावार॥

तेरी कृपा साधकों के हित, बनकर दिव्य विवेक।

वयं द्वार पर है अन्धे की लकड़ी देती टेक॥

ज्ञान-चक्षु लेते वह सीधी पगडण्डी पहचान।

जिस पर दूरी के पत्थर हैं गीता वेद पुराण॥

मैं भी तो भूली-भटकी सी रही अभी तक डोल।

जाने कितने द्वार अभी तक भ्रमवश चुकी टटोल॥

मेरे प्रभु पाये बिन तेरी उंगली का संकेत।

नहीं पा सकूँगी मैं तेरा भगवन् पुण्य निकेत॥

कर लेने दो प्राप्त मुझे अब तो दर्शन का श्रेय।

पन्थ अनेकों पथिक अनेकों हैं अगणित पाथेय॥

किन्तु एक ही ध्यान चिरन्तन और एक ही ध्येय!


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