जैसे हम हैं, हमारी दुनिया भी वैसी है।

June 1945

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“दुनिया बहुत बुरी है। जमाना बड़ा खराब है, ईमानदारी का युग चला गया, चारों ओर बेईमानी छाई हुई है, सब लोग धोखेबाज हैं, धर्म धरती पर से उठ गया।” ऐसी उक्तियाँ जो आदमी बार-बार दुहराता है समझ लीजिए कि वह खुद धोखेबाज और बेईमान है। इसकी इच्छित वस्तुएं इसके चारों ओर इकट्ठी हो गई हैं और उनकी सहायता से सुव्यवस्थित कल्पना चित्र इसके मन पर अंकित हो गया है। जो व्यक्ति यह कहा करता है कि दुनिया में कुछ काम नहीं है, बेकारी का बाजार गर्म है, उद्योग धंधे उठ गये, अच्छे काम मिलते ही नहीं, समझ लीजिए कि इसकी अयोग्यता इसके चेहरे पर छाई हुई है और जहाँ जाता है वहाँ के दर्पण में अपना मुख देख आता है। क्रोधी मनुष्य जहाँ जायेगा, कोई न कोई लड़ने वाला उसे मिल ही जायगा, घृणा करने वाले को कोई न कोई घृणित वस्तु मिल ही जायेगी। अन्यायी मनुष्य को सब लोग बड़े बेहूदे, असभ्य और दण्ड देने योग्य दिखाई पड़ते है। होता यह है कि अपनी मनोभावनाओं को मनुष्य अपने सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है। जिसे दुनिया स्वार्थी, कपटी, गंदी, दुखमय, कलुषित दुर्गुणी, असभ्य, दिखाई पड़ती है समझ लीजिए कि इसके अन्तर में गुणों का बाहुल्य है। संसार एक लम्बा चौड़ा बहुत बढ़िया विल्लौरी काँच का चमकदार दर्पण है इसमें अपना मुँह हूबहू दिखाई पड़ता है। जो व्यक्ति जैसा है इसके लिए त्रिगुणमयी सृष्टि में से वैसे ही तत्व निकलकर आगे आ जाते हैं। सतयोगी आत्माएं सी काँपी में कटा हुआ है।


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